NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
विज्ञान
अंतरराष्ट्रीय
साम्राज्यवादी विरासत अब भी मौजूद: त्वचा के अध्ययन का श्वेतवादी चरित्र बरकरार
त्वचा रोग विज्ञान की किताबों में नस्लीय प्रतिनिधित्व की ऐतिहासिक कमी ना केवल श्वेत बहुल देशों में है, बल्कि यह पूरी दुनिया में मौजूद है
क्लेयर रॉथ
19 Feb 2022
Lingering Colonial Legacies

जब सेये अबिम्बोला 2000 के दशक में नाइजीरिया में डॉक्टर बनने का प्रशिक्षण ले रहे थे, तब उनकी किताबों में शरीर की त्वचा श्वेत ही दिखाई जाती थी। उनकी ज़्यादातर किताबें अमेरिका और ब्रिटेन से आती थीं, जहां काकेशियन मूल के लोगों के चिकित्सकीय उदाहरण सामान्य तौर पर दिखाए जाते हैं।

जब त्वचा विज्ञान की बात आई, तो एबिम्बोला ने जो पाठ्यक्रम में पढ़ा था, उसे वे वास्तविकता में उपयोग नहीं कर पा रहे थे। नाइजीरिया की लगभग पूरी आबादी अश्वेत है। एबिम्बोला और उनके साथी अश्वेत हैं, उनके शिक्षक भी अश्वेत हैं।

एबिम्बोला ने डीडब्ल्यू को बताया, “मैंने जाकर एक भारतीय किताब खरीदी, क्योंकि मैं समझ नहीं पा रहा था कि श्वेत त्वचा में दिखने वाला घाव, अश्वेत त्वचा में कैसे दिखेगा। इसे समझने का कोई तरीका ही नहीं था।”

उन्होंने आगे कहा, “लेकिन भारतीय किताबों से यह आसान था। मैंने इस बारे में तब ज़्यादा नहीं सोचा।”

अफ्रीका में यह सामान्य है

दक्षिण अफ्रीका और उगांडा में भी त्वचा रोग विशेषज्ञों ने अपने अध्ययन के दौरान इसी तरह की चुनौतियां आने का जिक्र किया। जब दक्षिण अफ्रीकी त्वचा रोग चिकित्सक एनकोज़ा ड्लोवा अपना प्रशिक्षण कर रही थीं, वह 1990 में दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खात्मे के तुरंत बाद का वक़्त था। वे अपने देश में पहली अश्वेत त्वचा रोग विशेषज्ञों में से एक थीं।

वह कहती हैं, “हमें वह समझने में दिक्कत हो रही थी, क्योंकि हमारे ज़्यादातर मरीज़ अश्वेत थे।”

ड्लोवा कहती हैं, “पाठ्यक्रम में बताया जाता था कि सोरायसिस से पीड़ित मरीज़ो को सामन (सॉलमन रंग) रंग के चक्ते (गोल दाग) होते थे। तब हमें यह समझने में नाकाम रहते थे कि यह कैसा दिखता है? क्योंकि हमारे ज़्यादातर अश्वेत मरीज़ों में ऐसा नहीं होता।”

अश्वेत त्वचा में केलॉयड और एलबिनिज़्म की समस्या बहुत सामान्य होती है, लेकिन पाठ्यक्रम में उनपर ज़्यादा ध्यान ही नहीं दिया जाता था। ड्लोवा आगे कहती हैं कि अगर उनका पाठ्यक्रम में जिक्र भी होता था, तो बताई गई सामग्री डॉयग्नोसिस में बहुत ही ज़्यादा संक्षेप में होती थी। दक्षिण अफ्रीकी त्वचा रोग विशेषज्ञ सेपबी सिबिसी का विश्वविद्यालय का अनुभव भी ऐसा ही कुछ रहा। उनके सामने आई तस्वीरों में 95 फ़ीसदी श्वेत त्वचा वाली होती थीं। 

सिबिसी ने डी डब्ल्यू को बताया, “त्वचा के रंग में बहुत सारा ‘हायपर पिगमेंटेशन (अतिरिक्त रंगत की समस्या)’ अक्सर आती है। मतलब जांघों में गहरा रंग हो जाना, कोहनियों में गहरा रंग हो जाना। यह समस्याएं हम दैनिक तौर पर देखते हैं। लेकिन हम नहीं जानते कि इनसे कैसे निपटें क्योंकि हमें विश्वविद्यालय में कभी यह पढ़ाया ही नहीं गया।”

फिट्जपैट्रिक स्केल के मुताबिक़ अलग-अलग त्वचा के रंग दिखाता हुआ एक इन्फोग्राफ़।

कम प्रतिनिधित्व और शोषण

पिछले सितंबर में फिट्जपैट्रिक फ्रेमवर्क का इस्तेमाल कर प्रकाशित एक जर्मन अध्ययन में 17 त्वचा रोग किताबों से 5,300 से ज़्यादा तस्वीरों का अध्ययन किया गया। इन किताबों को जर्मन डॉक्टरों ने प्रकाशित किया था। इसमें पाया गया कि 91 फ़ीसदी तस्वीरों में श्वेत त्वचा का इस्तेमाल किया गया, जबकि 6 फ़ीसदी में मध्यम/जैतून रंग की त्वचा और 3 फ़ीसदी से भी कम में गेहुंए रंग की त्वचा का इस्तेमाल किया गया था। सबसे गहरा रंग, टाइप-6 सिर्फ़ एक ही तस्वीर में इस्तेमाल किया गया था। 

2021 में अमेरिकी किताबों का विश्लेषण करते एक अध्ययन में भी इसी तरह के नतीज़े सामने आए थे। वहां सिर्फ़ 14 फ़ीसदी तस्वीरों में ही अश्वेत त्वचा का इस्तेमाल किया गया था। ड्लोवा ने कहा कि किताबों में अश्वेत त्वचा की तस्वीरें खोजना मुश्किल है, लेकिन जब यौन संक्रमण से फैलने वाली बीमारियों का अध्ययन किया जाता है, तो अश्वेत त्वचा वाली तस्वीरें बहुत सामान्य हैं, ध्यान रहे यौन बीमारियां अक्सर त्वचा में ही पहले प्रवेश करती हैं।

सिफिलिस पर शुरुआती अमेरिकी अध्ययनों में अश्वेत लोगों का शोषण हुआ था, जो अक्सर फैलने वाला यौन संक्रमण है। 1930 के दशक में अमेरिका के सरकारी स्वास्थ्य सेवा ने एक अध्ययन के लिए सैकड़ों अश्वेत लोगों का पंजीयन करवाया। यह अध्ययन अब कुख्यात तुसकेगी अध्ययन के नाम से कुख्यात है। इसमें सिफिलिस के संक्रमण पर अध्ययन किया गया था। जब यह अध्ययन शुरू किया गया था, तब इस बीमारी का कोई इलाज़ नहीं मालूम था।

अगले 15 सालों में मेडिकल शोधार्थियों ने पाया कि सिफिलिस के इलाज़ के लिए पेंसिलीन का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन इसे अध्ययन में पंजीकृत लोगों को नहीं दिया गया। वहां डॉक्टर देखना चाहते थे कि जिंदगी का खात्मा करने तक यह बीमारी कैसे प्रगति करती है। 

1970 के दशक की शुरुआत में एक रिपोर्टर ने इस प्रयोग को सार्वजनिक कर दिया। लेकिन उसके पहले सिफलिस से दो दर्जन लोग मारे जा चुके थे, जिन्हें बचाया जा सकता था। कई दूसरे लोगों ने इसे अपने बच्चों और परिवारों में फैला दिया था। 

ज्ञान के विशेषाधिकार वाले तंत्र का प्रभाव

एबिम्बोला बताता हैं कि तुसकेगी अध्ययन अमेरिका में 1940 के दशक में चल रहा था, वहीं नाइजीरिया में पहला मेडिकल स्कूल एक ब्रिटिश स्वास्थ्य तंत्र शोधार्थी और यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिडनी के स्कूल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ में प्रोफ़ेसर ने खोला था।

एबिम्बोला ने डी डब्ल्यू को बताया, “वह औपनिवेशिक काल था। संस्थापक पाठ्यक्रम के ढांचे को लेकर बेहद कठोर थे। उन्हें ऐसे डॉक्टरों की जरूरत थी, जो ब्रिटेन में अपना काम कर सकें।” इसका मतलब हुआ कि डॉक्टरों को ब्रिटेन की जरूरत के हिसाब से बीमारियों को ठीक करने की प्रशिक्षण दिया जाता था, ना कि नाइजीरिया के लिहाज से वे प्रशिक्षित होते थे। 

एबिम्बोला कहती हैं, “अगर आप 1948 के नाइजीरिया और इंग्लैंड के हालातों की कल्पना करें, तो उन्हें यह तय करना था कि वो किसके लिए इन डॉक्टरों को प्रशिक्षित कर रहे हैं। क्योंकि अगर आप उन्हें ब्रिटेन में प्रशिक्षित कर रहे हैं, तो निश्चित तौर पर आप यह कह रहे हैं कि उन्हें नाइजीरिया में काम करने के लिए तो प्रशिक्षित नहीं किया जा रहा है।”

एबिम्बोला कहती हैं कि इस तर्क ने नाइजीरिया मेडिकल स्कूलों के पाठ्यक्रम को गढ़ने में अहम भूमिका निभाई। यहां तक कि 1960 में आज़ादी के बाद भी ऐसा चलता रहा।

स्थानीय विशेषज्ञों की जरूरत

एबिम्बोला बीएमजे ग्लोबल हेल्थ की एडिटर-इन-चीफ नियुक्त की गई हैं, जो ब्रिटिश मेडिकल जर्नल का हिस्सा है। इसका लक्ष्य वैश्विक स्वास्थ्य मुद्दों पर काम करना है, जिनके ऊपर एक क्षेत्र विशेष में काम करने वाली जर्नल में ध्यान नहीं दिया जाता। 

एबिम्बोला कहती हैं, “स्थानीय जर्नल का काम स्थानीय लोगों को सेवा देना है। तो जब हम ब्रिटिश मेडिकल जर्नल जैसी जर्नल से लागोस या एक्करा के लोगों की समस्याओं पर ध्यान देने की अपेक्षा करते हैं, तो समस्याएं पैदा होती हैं।”

जब ड्लोवा पहली बार एक यूरोपियाई त्वचा रोग विशेषज्ञ से मिलीं, तब उन्होंने पाया कि वहां अफ्रीका में सामान्य तौर पर होने वाली त्वचा समस्याओं के इलाज़ के अनुभव की कमी है। उस त्वचा रोग विशेषज्ञ के पास कांगो का एक मरीज़ था और वहां स्टाफ डॉयग्नोसिस के लिए बॉयोप्सी करना चाहता था। लेकिन ड्लोवा ने तुरंत समस्या को पहचान लिया, जो सारकॉयडोसिस थी, यह एक गंभीर बीमारी है, जिससे त्वचा पर लाल या बैंगनी चक्ते आ जाते हैं, जिससे त्वचा का रंग बदल सकता है और त्वचा के नीचे की वृद्धि बाधित हो सकती है।मैंने उनसे कहा, “यह सारकॉयडोसिस है। आपको बॉयोप्सी करने की जरूरत नहीं है।” 

ड्लोवा ने आगे कहा कि मेडिकल जर्नल को इस तरह के त्वचा रोगों पर लिखने के लिए मेडिकल जर्नलों को अफ्रीका से विशेषज्ञों को बुलाना चाहिए। वह कहती हैं, “उन्हें किसी अमेरिकी या यूरोपियाई त्वचा रोग विशेषज्ञ से इस तरह की समस्याओं पर नहीं लिखवाना चाहिए। उन्हें अफ्रीकी विशेषज्ञों को बुलाना चाहिए, जिन्होंने उनका अध्ययन किया है।”

जब ड्लोवा, एबिम्बोला और सिबिसी मेडिकल स्कूलों में थीं, तबसे स्थितियों में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है।

ड्लोवा ने “डर्मेटोलॉजी: अ कॉम्प्रीहेंसिव हैंडबुक फॉर अफ्रीका” नाम से 2017 में एक किताब प्रकाशित की थी। वे उस अंतरराष्ट्रीय टीम का हिस्सा भी हैं, जिसने 2019 में एक जीन को खोजा था, जिससे यह जानने में मदद मिली थी कि कई अश्वेत महिलाओं के बाल क्यों गिरते हैं।

दिसंबर 2021 में नाइजीरिया के मेडिकल छात्र चिदिबेरे इबे की वह तस्वीर वायरल हो गई थी, जिसमें एक मां की कोख में अश्वेत शिशु को दिखाया गया था। दुनियाभर से लोगों ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि इस मेडिकल तस्वीर में उन्हें अपनी त्वचा का रंग दिखाई दिया था। 

पिछले महीने इबे ने एक नई ऑनलाइन त्वचा विज्ञान की किताब “माइंड द गैप” में तस्वीरें बनाने की योजना का खुलासा किया। यह किताब पहले ब्रिटेन में 2020 में लॉन्च की गई थी।

यह ऐसा पहला ऑनलाइन संसाधन था, जिसमें खासतौर पर अश्वेत त्वचा में मौजूद स्थितियों को दर्शाया गया था।

संपादन: लुईसा राइट

साभार: डी डब्ल्यू

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Lingering Colonial Legacies: The Study of Skin is Too White

skin
black skin
Global Health
Colonialism
Racism
decolonization
dermatology
apartheid
Discrimination

Related Stories


बाकी खबरें

  • Modi
    अनिल जैन
    PM की इतनी बेअदबी क्यों कर रहे हैं CM? आख़िर कौन है ज़िम्मेदार?
    01 Jun 2022
    प्रधानमंत्री ने तमाम विपक्षी दलों को अपने, अपनी पार्टी और देश के दुश्मन के तौर पर प्रचारित किया और उन्हें खत्म करने का खुला ऐलान किया है। वे हर जगह डबल इंजन की सरकार का ऐसा प्रचार करते हैं, जैसे…
  • covid
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में पिछले 24 घंटों में 2,745 नए मामले, 6 लोगों की मौत
    01 Jun 2022
    महाराष्ट्र में एक बार फिर कोरोना के मामलों में तेजी से वृद्धि देखी जा रही है। महाराष्ट्र में आज तीन महीने बाद कोरोना के 700 से ज्यादा 711 नए मामले दर्ज़ किए गए हैं।
  • संदीपन तालुकदार
    चीन अपने स्पेस स्टेशन में तीन अंतरिक्ष यात्रियों को भेजने की योजना बना रहा है
    01 Jun 2022
    अप्रैल 2021 में पहला मिशन भेजे जाने के बाद, यह तीसरा मिशन होगा।
  • अब्दुल अलीम जाफ़री
    यूपी : मेरठ के 186 स्वास्थ्य कर्मचारियों की बिना नोटिस के छंटनी, दी व्यापक विरोध की चेतावनी
    01 Jun 2022
    प्रदर्शन कर रहे स्वास्थ्य कर्मचारियों ने बिना नोटिस के उन्हें निकाले जाने पर सरकार की निंदा की है।
  • EU
    पीपल्स डिस्पैच
    रूसी तेल आयात पर प्रतिबंध लगाने के समझौते पर पहुंचा यूरोपीय संघ
    01 Jun 2022
    ये प्रतिबंध जल्द ही उस दो-तिहाई रूसी कच्चे तेल के आयात को प्रभावित करेंगे, जो समुद्र के रास्ते ले जाये जाते हैं। हंगरी के विरोध के बाद, जो बाक़ी बचे एक तिहाई भाग ड्रुज़बा पाइपलाइन से आपूर्ति की जाती…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License