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साहित्य-संस्कृति
भारत
कितने मसलक… कितनी टोपियां...!
सुन्नी जमात हैं तो गोल टोपी... बरेलवी से हैं तो हरी टोपी...., अज़मेरी हैं तो ख़ादिम वाली टोपी.... जमाती होे तो जाली वाली टोपी..... आला हज़रत के मुरीद हों तो लम्बी टोपी। कौन सी टोपी चाहती हैं आप?
नाइश हसन
02 May 2022
Muslim
तस्वीर केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए

ईद अनकरीब थी, चारों तरफ रौनक अफरोज माहौल, खरीदारी करती खातून, बाजार रंगबिरंगे नजर आ रहे थे, कहीं चूडियाँ, कही रंगरेज़ की दुकान पर दुपट्टे रंगाती लड़कियाँ, गोटे लचके की सजी दुकानें... पूरा अमीनाबाद खचाखच भरा, कदम रखने की गुजाइश न थी। कबीर की उंगली पकड मैं भी एक टोपी की दुकान की ओर बढ़ गई। ईद की नमाज के लिए कुर्ता पायजामा टोपी रूमाल खरीदने। मैंने दुकानदार से कहा जरा बच्चे की साइज की एक टोपी देना!

दुकानदार - जी अच्छा ! हाथ टोपी की आलमारी की ओर बढाते हुए उसने मेरी तरफ एक बार फिर पलट कर देखा।

दुकानदार - कौन से मसलक की?

मैंने कहा - मसलक! अरे बच्चे की साइज की एक टोपी निकाल दीजिए।

दुकानदार - अरे वही तो मैं जानना चाहता हूॅं मोहतरमा कि कौन से मसलक की हैं आप?

(मसलक यानी राह, रास्ता, आस्था, पद्धति, तरीका, चलन, विचारधारा आदि)

सुन्नी जमात हैं तो गोल टोपी... बरेलवी से हैं तो हरी टोपी...., अजमेरी हैं तो खादिम वाली टोपी.... जमाती होे तो जाली वाली टोपी..... आला हजरत के मुरीद हों तो लम्बी टोपी। कौन सी टोपी चाहती हैं आप?

मैं हक्का-बक्का दुकानदार का मुॅंह ताकती रही। मेरे चेहरे पर तनाव और असमंजस का मिला जुला भाव आसानी से देखा जा सकता था। या अल्लाह मैं टोपी लेने आई हूॅं या मजहब और फिरकों की पड़ताल करने। मेरी जुबान से बस यूॅं ही निकल गया।

मैं दुकानदार को बिना कुछ जवाब दिए कबीर का हाथ थामें दुकान की सीढियों से नीचे उतरने लगी। दुकानदार ने मुझे दोबारा आवाज दी। अरे मोहतरमा.....! आप इस ओर तशरीफ तो लाएं..... मेरी दुकान में हर किस्म की टोपी है।

उसने शोकेस की ओर इशारा करते हुए कहा देखिए वो जरदोजी का काम की हुई बोहरा लोगों की टोपी है। हमारे पास शिया, सुन्नी, अहले हदीस, बरेलवी, जमाती, अजमेरी, अहमदी, चिश्ती, नक्शबंदी, सलफी, हर मसलक की टोपी मौजूद है। आप बताइये तो सही कौन सी टोपी चाहिए आप को।

मैंने कहा- मोमिन (ईमान) वाली टोपी दिखला दीजिए। दुकानदार ने जवाब दिया , वो यहाँ नहीं मिलेगी मोहतरमा क्योंकि कोई मोमिन वाली टोपी मांगने आता ही नहीं। इस लिए हम रखते भी नहीं।

दुकानदार का जवाब सुन मैं सोच में पड़ गई। समझ नहीं पाई कि इतने मसलकों में से किस मसलक की टोपी खरीदूॅं।

मकसद सिर्फ सिर ढकना था लेकिन टोपी आज मसलकों की पहचान हो गई और मैं टोपी में मोमिन ढूंढ रही थी।

मैंने कबीर की उंगली पकड़ी और मन ही मन यह अहद करते हुए कि इन मसलकी जमीनी खुदाओं के फरमान से कबीर को बचाना ज्यादा जरूरी है नमाज तो बिना टोपी के भी हो सकती है। दुकान की सीढ़ि्यों से उतरी और घर वापस चली आई ।

(लेखिका एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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Islam
Shia-Sunni
Shia–Sunni relations
Difference between Sunni and Shia
Eid al-Fitr

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