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नताशा और महावीर नरवाल: इंसाफ़ एक दूर की कौड़ी
महामारी की यह सियासत महज़ वायरस और टीकों को लेकर ही नहीं हो रही, बल्कि मौजूदा व्यवस्था राजनीतिक क़ैदियों के साथ किस तरह से पेश आ रही है, उसे लेकर भी है।
देबंगाना चटर्जी
13 May 2021
Natasha Narwal

“शक्तिशाली लोग जिन निंदनीय जुर्म को अंजाम देते हैं, उसके चलते इंसाफ़ के शब्द अकेले में सुबकते हैं।” रवींद्रनाथ टैगोर की कविता, ‘प्रोश्नो’ की यह अमर पंक्ति सबसे अच्छी तरह इस बात को दर्शाती है कि विद्वान-कार्यकर्ता नताशा नरवाल और उनके वैज्ञानिक-कार्यकर्ता पिता, महावीर नरवाल किस क़दर हताशा के हवाले कर दिये गये ।कोविड से जुड़ी जटिलताओं की ज़द में आने के बाद महावीर ने 9 मई को आख़िरी सांस ली। नताशा को उन्हें आख़िरी बिदाई देने का मौक़ा भी नहीं दिया गया। राजनीतिक क़ैद में तक़रीबन एक साल के लंबे समय तक जेल में गुज़ारने और नताशा की ज़मानत याचिका के बार-बार ख़ारिज किये जाने के चलते पिता और बेटी स्थायी रूप से अलग-थलग कर दिये गये थे। उनकी वह स्थिति दरअसल हमारी सामूहिक नाकामी भी थी, और इंसाफ़ सरकार के घातक अड़ियलपन के सामने उन तक पहुंच पाने में असमर्थ था। उनके साथ जो कुछ हुआ है, वह देश भर में सामने आती कोविड-19 की त्रासदियों की एक दर्दनाक ताक़ीद भी है।

अतीत पर एक नज़र

इसके पीछे की जो कहानी है, उसे जानने के लिए एक साल पहले वापस चलते हैं। दिल्ली पुलिस ने जेएनयू सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज की एक छात्रा और महिलाओं के लिए छात्रावास में दंडात्मक कर्फ्यू के समय भी चुनौती देता दिल्ली स्थित महिलाओं की अगुवाई करने वाले आंदोलन पिंजरा तोड़ के साथ जुड़ी एक प्रमुख कार्यकर्ता के रूप में नताशा को पिछले साल 23 मई को गिरफ़्तार किया था। इस गिरफ़्तारी के पीछे का बहाना यह गढ़ा गया कि नताशा ने फ़रवरी 2020 में पूर्वोत्तर दिल्ली के ज़ाफ़राबाद इलाक़े में एक सीएए विरोधी प्रदर्शन में भाग लिया था।

फ़रवरी 2020 में देशव्यापी सीएए विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था। 25 मई को ड्यूटी मजिस्ट्रेट, अजीत नारायण ने नताशा को इस आधार पर ज़मानत दे दी थी कि उनके ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 353 (जो कि लोक सेवक को कर्तव्य निर्वहन से रोकने के लिए उन पर हमला करने या आपराधिक ताक़त का इस्तेमाल करने से सम्बन्धित है) के तहत जो आरोप लगाये गये थे, उनके "बने रहने का कोई आधार" नहीं है, क्योंकि समाज में उनकी जड़ें मज़बूत हैं और वह बेहद पढ़ी लिखी हैं। इसके बावजूद, नताशा और उनकी साथी कार्यकर्ता, देवांगना कालिता को फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया था, क्योंकि उनके ख़िलाफ़ दर्ज एफ़आईआर में हत्या, आपराधिक साज़िश और दंगों के आरोप शामिल थे। हालांकि, ये आरोप धारा 186 (सार्वजनिक कार्यों के निर्वहन में एक लोक सेवक को बाधा पहुंचाने) और आईपीसी की धारा 353 के तहत आते हैं, लेकिन उस एफ़आईआर में लोक सेवकों के ख़िलाफ़ हमले करने या आपराधिक ताक़त का इस्तेमाल करने का ज़िक़्र नहीं किया गया था, और न ही हिंसक घटनाओं में शामिल होने का कोई ज़िक़्र था।

पिछले साल सितंबर में उन्हें उस एफ़आईआर के तहत ज़मानत देते हुए अदालत ने इस बात की पुष्टि कर दी थी कि दोनों कार्यकर्ता ज़ाफ़राबाद मेट्रो रेल स्टेशन के पास धरने पर बैठने वाली महिलाओं की अगुवाई करने वालों में शामिल थीं, हालांकि उनके पास इस बात का कोई सबूत नहीं था कि उन्होंने हिंसा भड़काई थी। जून 2020 में उन पर बेहद सख़्त ग़ैर-क़ानून गतिविधि रोकथाम अधिनियम (UAPA) लगा दिया गया और पूर्वोत्तर दिल्ली में हुए उन दंगों को भड़काने की साज़िश रचने का आरोप लगाया गया, जिनमें 53 लोगों की मौत हुई थी। सितंबर में दंगे से जुड़े अन्य आरोपों में ज़मानत दिये जाने के बावजूद, उन्हें यूएपीए मामले में बार-बार ज़मानत दिये जाने से इन्कार किया जाता रहा।

इसके उलट ज़ाफ़राबाद में वही सीएए विरोधी आंदोलन, बीजेपी नेता कपिल मिश्रा के लिए सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ एक विवादास्पद भाषण देने का बहाना बन गया। जहां मिश्रा तमाम दाग़ से बरी कर दिये गये, वहीं नताशा जैसे छात्र-कार्यकर्ताओं की फिर से गिरफ़्तारी हुई, यह सत्ता के ज़बरदस्त दुरुपयोग की मिसाल पेश करती है। यह मामला देश भर में उन लोकतांत्रिक और नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं के चुन-चुनकर शिकार बनाये जाने वाले उसी पैटर्न का अनुसरण है, जिन्होंने सीएए के विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया था या उनका समर्थन किया था।

तक़रीबन साल भर पहले भारत कोविड-19 महामारी की पहली लहर से निपट रहा था। उस समय भी सरकार ने छात्रों और नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं पर अपनी कार्रवाई जारी रखने में किसी तरह का कोई गुरेज नहीं किया था। उस समय संक्रमण के फैलने के डर से कोई व्यापक विरोध प्रदर्शन या आंदोलन नहीं चल रहा था।

आख़िरी सफ़र

महावीर नरवाल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के वरिष्ठ सदस्य और सीसीएस कृषि विश्वविद्यालय में पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक थे। उन्होंने रविवार को कोविड से जुड़े जटिलताओं के कारण दम तोड़ दिया। उन्हें 3 मई को अस्पताल में भर्ती कराया गया था।

एक पिता, एक कॉमरेड, एक हमवतन के तौर पर महावीर नरवाल अपनी बेटी के लिए न सिर्फ़ एकमात्र सहारा थे, बल्कि नताशा के मक़सद में यक़ीन करने वाले भी थे। वह सरकार के ख़िलाफ़ इसलिए खड़ा थे, ताकि दुनिया को यह बताया जा सके कि उनकी बेटी को ग़लत तरीक़े से क़ैद किया गया है। जब-जब नताशा को ज़मानत से वंचित कर दिया जाता था, तब-तब इसे लेकर एक संदेह का बादल छा जाता था कि क्या वह फिर से नताशा को गले लगा पायेंगे। इसके बावजूद, उन्होंने एक पिता की तरह, एक कॉमरेड की तरह व्यवस्था से ख़ूब लड़ाई लड़ी।

पिता के नक़्श-ए-क़दम पर बेटी

उन्हें इस बात से कुछ ढाढस ज़रूर मिली थी कि वह ख़ुद आपातकाल के दौरान जेल गये थे, जबकि उनकी बेटी को अघोषित आपातकाल के दौरान क़ैद में रहना पड़ रहा है।

उन्होंने अपनी बेटी और छात्रों के एक व्यापक समुदाय को प्रतिरोध के प्रगतिशील मूल्य व्यवस्था में यक़ीन करना सिखाया था। उनके निधन पर दिये गये एक बयान में पिंजरा तोड़ ने कहा, “यह नताशा और हमारे इस विशाल समुदाय के लिए एक बहुत बड़ा नुक़सान है। वह कई लोगों के लिए एक ऐसे चट्टान की तरह थे, जो शोर के बीच भी अपनी अक़्लमंदी से अडिग रहते है, वह सब्र और शांत तरीक़े से अपनी दृढ़ आवाज़ उठा रहे थे।”

नताशा को अस्पताल में अपने बीमार पिता से मिलने की इजाज़त देने के लिए दायर की गयी याचिका पर 10 मई को सुनवाई हुई थी। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इसके बाद, डॉ नरवाल का अंतिम संस्कार करने की इजाज़त देने के लिए एक याचिका दायर की गयी। इस बार, सरकारी वकीलों ने भी दिल्ली उच्च न्यायालय में उनकी ज़मानत का विरोध नहीं किया।असल में नताशा को चल रहे मामलों पर "किसी से कोई बात नहीं करने" की शर्त पर 50, 000 रुपये के व्यक्तिगत बांड पर तीन हफ़्ते के लिए अंतरिम ज़मानत दे दी गयी। दिल्ली हाई कोर्ट की खंडपीठ ने कहा, "... दुख और व्यक्तिगत नुकसान के इस समय और इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों की रौशनी में आवेदक की रिहाई अनिवार्य है।"

इस ज़मानत पर उनकी रिहाई पिता और बेटी, दोनों के लिए खुशी का पल बन सकता था, लेकिन यह बड़ी ही निराशा और दुःख का क्षण बन गया था। नताशा अपने पिता के गले लग जाने की गर्मजोशी लिए नहीं, बल्कि अपने पिता के पार्थिव शरीर की दहशत के बीच लौटी थी।

चल रही महामारी ने भारतीय जेल प्रणाली को तबाह कर दिया है, क्योंकि इस वक़्त देश के बाक़ी हिस्से इस महामारी की ज़द में है। इसके बावजूद, राजनीतिक क़ैदियों और अन्य संकटग्रस्त क़ैदियों को अंतरिम ज़मानत देने की बार-बार अपील नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बन गयी है। हाल ही में एक अन्य कार्यकर्ता, उमर ख़ालिद जेल में ही कोविड परीक्षण में निगेटिव हुए। एक पखवाड़े पहले ही वह पोज़िटिव पाये गये थे। अक्टूबर 2020 में हाथरस में हुए गैंगरेप पर रिपोर्ट करने जा रहे पत्रकार सिद्दीक़ी कप्पन, जिन पर उत्तर प्रदेश सरकार ने यूएपीए लगा दिया था, एम्स और मथुरा के बीच कोविड से जूझते हुए ज़िंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहे हैं, कप्पन की परेशानियां भी सुर्खियों में हैं।

क़ैद में रह रहे जीएन साईंबाबा की वे यादें अब भी हमारी स्मृति में ताज़ा बनी हुई है कि किस तरह उन्हें अगस्त 2020 से ही एक वीडियो कॉल पर अपनी मरती हुई मां को देखने की अनुमति से वंचित किया जा रहा है। इस तरह, महामारी की यह सियासत महज़ वायरस और टीकों को लेकर ही नहीं हो रही, बल्कि मौजूदा व्यवस्था राजनीतिक क़ैदियों के साथ मानसिक और शारीरिक रूप से किस तरह से पेश आया जा रहा है, उसे लेकर भी हो रही है। आख़िरकार, कोविड-19 और सीएए आपस में एक दूसरे से अटूट रूप से जुड़े हुए हैं, क्योंकि देशव्यापी लॉकडाउन ने जब देश के सभी नागरिकों की ज़िंदगी को ख़तरे में डाल दिया था, तभी सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं पर ढाये जा रहे ज़ुल्म अपने चरम पर पहुंच गये थे।

नताशा और मैं एक दूसरे को व्यक्तिगत तौर पर तो नहीं जानते थे, हालांकि हम दोनों ने जेएनयू में थे। फिर भी, वह जिस पीड़ा से इस समय गुज़र रही है, उसे गहराई से निजी तौर पर महसूस करती हूं। शायद, महामारी से होने वाली मौतों के सामूहिक शोक के बीच, नताशा की पीड़ा निजी पीड़ा महसूस होती है और उसका संभावित ग़ुस्सा जायज़ से कहीं ज़्यादा मुनासिब है। नताशा ने अपनी मां को 13 साल की उम्र में ही खो दिया था। महावीर नरवाल ने नताशा का पालन-पोषण माता-पिता दोनों की तरह किया था। मातृत्व तो औरत-मर्द होने से परे होता है, लेकिन, संयोग है कि डॉ.नरवाल का निधन उसी दिन हुआ, जिस दिन अंतर्राष्ट्रीय मातृ दिवस था। उस दिन वह आख़िरी बार अपनी बेटी से मिले बिना यह दुनिया छोड़ गये।

लेखिका जेएनयू स्थित सेंटर फ़ॉर इंटरनेशनल पॉलिटिक्स, ऑर्गेनाइज़ेशन एंड डिपार्टमेंट के पीएचडी कैंडिडेट हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Natasha-Mahavir-Narwal-A-Far-Cry-Justice

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