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भारत
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प्राइवेटाइजेशन की नीति से भारत को फ़ायदा या नुक़सान? चीन ने कैसे पछाड़ा अमेरिका को!
फॉर्चून मैगजीन ने दुनिया की 500 सबसे बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों की लिस्ट दी है। इस लिस्ट के मुताबिक चीन की बड़ी कंपनियों ने अमेरिका की कई कंपनियों को अधिग्रहित कर लिया है। 500 कंपनियों की इस लिस्ट में 124 कंपनियां चीन की हैं। इन 124 कंपनियों में 95 कंपनियां सरकारी हैं, जिनकी मालिक चीनी सरकार है। जबकि अमेरिका की केवल 118 कंपनियां इस इस लिस्ट में शामिल हैं।
अजय कुमार
26 Sep 2021
privatization
Image courtesy : iPleaders

भारत में 80 करोड़ लोग प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत दो वक्त का राशन हासिल करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारत में बेरोजगारी की वजह से तकरीबन 50 प्रतिशत परिवारों का जीवन प्रभावित हो रहा है। एक साल की महामारी में 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले गए। यह सारे आंकड़े भारत की भयावह गरीबी की तस्वीर बताते है। ऐसे गरीब मुल्क में सरकार को सरकारी कंपनियों को बेचने की नीति अपनानी चाहिए या सरकारी कंपनियों को जनकल्याण के लिए इस्तेमाल करने की नीति अपनानी चाहिए। इसका फैसला आप खुद तय करके देखिए।

इसे भी पढ़ें : हक़ीक़त तो यही है कि सरकारी कंपनियां प्राइवेट में तब्दील होने पर आरक्षण नहीं देतीं

आप खुद तय करके देखिए कि भारत जैसे देश में क्या आपको वैसी विचारधारा वाली सरकार चाहिए जो खुलकर कहे कि सरकार का काम बिजनेस करना नहीं है। जो पैसा जुटाने के लिए सरकारी कंपनियों को बेचने की नीति अपनाती हो। नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन जैसी नीतियां बनाती हो जिसके अंतर्गत सड़क, हवाई अड्डे, रेलगाड़ी, बंदरगाह जैसे सर्वजन से जुड़े आधारभूत ढांचे प्राइवेट सेक्टर को इस मकसद से सौंपे जाते हैं कि प्राइवेट कंपनियां इन्हें चलाएं और सरकार को मुनाफा कमा कर दे?

ऐसी नीतियों का असर क्या होगा? क्या प्राइवेट कंपनियां रिसर्च पर खर्च करेंगी? अगर रिसर्च पर खर्च नहीं होगा तो भारत की संप्रभुता आर्थिक स्वतंत्रता और ऊर्जा सुरक्षा का क्या होगा? आने वाले दिनों में भारत पूरे विश्व से मिलने वाली इन चुनौतियों का कैसे सामना कर पाएगा? क्या प्राइवेट कंपनियां अधिक मुनाफा कमाने के लिए केवल कीमत वसूलने पर जोर नहीं देंगी?

जिस रेलगाड़ी में भारत की 90 फ़ीसदी से बड़ी आबादी सफर करती है उसका किराया नहीं बढ़ेगा? जितने वक्त के लिए सरकारी कंपनियां प्राइवेट हाथों में रहेंगी तो क्या उस वक्त में प्राइवेट मालिक सरकारी कंपनियों को ठोक पीटकर सही करने का काम करेगा? क्या सरकारी कंपनियों में लगने वाले मानव संसाधन को उसकी मेहनत के लिए वही मेहनताना दिया जाएगा जो सरकारी कंपनी देती है? इन सारे सवालों का कोई मुकम्मल जवाब नहीं मिलता है। अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश का उदाहरण देकर के इन सारे सवालों को शांत करने की कोशिश की जाती है।

इसे भी पढ़ें: नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन का फायदा किसको?

फॉर्चून मैगजीन ने साल 2021 के अपने सितंबर के अंक में दुनिया की 500 सबसे बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों की लिस्ट दी है। इस लिस्ट पर जानकारों का कहना है कि दुनिया के देशों की रणनीतिक योजनाएं बनाने वाली संस्थाएं इस लिस्ट को देखकर जरूर चौंकी होंगी।

इस लिस्ट के मुताबिक चीन की बड़ी कंपनियों ने अमेरिका की कई कंपनियों को अधिग्रहित किया है। आसान भाषा में कहें तो अपने भीतर समा लिया है। जो पहले अमेरिका की कंपनी हुआ करती थीं उनकी मालिक अब चीनी कंपनियां हैं। 500 कंपनियों की लिस्ट में तकरीबन 124 कंपनियां चीन की हैं। इन 124 कंपनियों में तकरीबन 95 वैसी कंपनियां है, जिनकी मालिक चीनी सरकार है। जबकि अमेरिका की केवल 118 कंपनियां शामिल हैं। इनमें से अधिकतर कंपनियां प्राइवेट हैं। ओईसीडी देशों की तरफ से 26 सरकारी कंपनियां और ब्राजील, भारत और मेक्सिको की तरफ से मात्र 17 सरकारी कंपनियां ही इस लिस्ट में शामिल हैं।

इस पूरी लिस्ट में 135 कंपनियां सरकारी हैं। अब आप पूछेंगे कि आखिरकार इसमें चौंकाने वाली बात क्या है? जानकार कहते हैं कि इसमें चौंकाने वाली बात यह है कि साल 2005 में फार्च्यून मैगजीन की सबसे बड़ी 500 कंपनियों की लिस्ट में महज 45 सरकारी कंपनियां शामिल थीं। जो साल 2020 में बढ़कर 135 हो चुकी हैं। जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा 118 चीनी सरकारी कंपनियों का है। यानी पूरी दुनिया के हालात को सबसे अधिक प्रभावित करने की ताकत चीन के हाथों में है।

न्यूज़क्लिक के अंग्रेजी संस्करण में प्रबीर पुरकायस्थ के एक लेख में जिक्र किया गया है कि किस तरह से टेक्नोलॉजी और कंप्यूटर चिप्स की दुनिया में चीन की कंपनियों ने अमेरिका को मात दे दी। चीन की कंपनियों ने पिछले दो दशकों में इतनी प्रगति की है कि अमेरिका के तेल, तकनीक, कंप्यूटर चिप्स, सोलर पॉवर, मोबाइल फोन, टेलीकॉम सेक्टर सभी क्षेत्रों में मौजूद कई कंपनियों को अधिग्रहित कर लिया है।

इसे भी पढ़ें : चिप युद्ध : क्या अमेरिका वास्तव में चीन को पछाड़ सकता है

साल 2010 तक पूरी दुनिया की 586 बिलियन डॉलर संपत्ति का मालिकाना हक चीनी सरकार के पास था। स्ट्रेटजिक स्टडी के क्षेत्र में अध्ययन करने वाली एक अमेरिकी संस्थान के अध्ययन के मुताबिक साल 2019 तक अमेरिका में चीन का निवेश 2.7 ट्रिलियन डॉलर का था। यह आंकड़ा भारत के लिए इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था महज 2.8 ट्रिलियन डॉलर की है। यानी कि भारत की अर्थव्यवस्था के लगभग बराबर तो चीन का निवेश अमेरिका जैसे देश में लगा हुआ है। इस आधार पर चीनी सरकारी कंपनियों के जरिए चीन की ताकत के बारे में सोचिए। साथ में यह भी सोचिए कि यह ताकत भारत की संप्रभुता आर्थिक स्वतंत्रता और ऊर्जा सुरक्षा को कितना अधिक प्रभावित करने की क्षमता रखती है।

सरकारी कंपनियों के महत्व को भारतीय परिप्रेक्ष्य में समझाते हुए भारत सरकार में सेक्रेटरी रह चुके अजय शंकर और सुशील खन्ना ने इंडियन एक्सप्रेस में इस पूरी विषय को एक लेख के जरिए समझाया है। वे कहते हैं कि अब तक दुनिया अमेरिका की मल्टी नेशनल कंपनियों और अमेरिका की मिलिट्री पावर से प्रभावित होती आई है। लेकिन आगे की दुनिया चीनी स्वामित्व वाली कंपनियों से प्रभावित होने वाली है। पूरी दुनिया चीन के उभार से सीख रही है। अपनी नीतियां बदल रही है। लेकिन भारत मजबूत पब्लिक सेक्टर की कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने की नीति बना रहा है।

अजय शंकर लिखते हैं कि साल 2004-05 में भारत की पब्लिक सेक्टर कंपनियों का मुनाफा तकरीबन 43 हजार करोड़ रुपए था यह साल 2018 में बढ़कर 1 लाख 75 हजार करोड़ रुपए हो गया था। यह मुनाफा तब हो रहा था जब इस दौर में प्राइवेटाइजेशन को भी प्रोत्साहित किया जा रहा था। जब मुनाफा बढ़ता है तो कंपनी अपना इन्वेस्टमेंट भी बढ़ाती है। अपना प्रचार भी करती है।

साल 2003 से लेकर साल 2010 के बीच उन सरकारी क्षेत्र की कंपनियों ने जिनका नेशनल मोनेटाइजेशन प्लान के तहत एक तरह से कहा जाए तो निजीकरण हो रहा है, उन्होंने बखूबी अपना काम किया। ओएनजीसी सरकारी कंपनी ने भारत की एक प्राइवेट रिफाइनरी को अधिग्रहित किया। यह वह दौर था जब भारत की कंपनियां विदेशों में उन कंपनियों को अधिग्रहित करने की प्रतिस्पर्धा करती थीं जिन्हें चीन अधिग्रहित करना चाहता था। लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। भारत सरकार भारत पैट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड जो फॉर्च्यून मैगजीन के 500 कंपनियों के सबसे बड़े लिस्ट में शामिल है, उसे प्राइवेटाइज करने की ओर है। शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया और ओएनजीसी जैसी कंपनियों को निजी कंपनियों को सौपने की ओर है। इन कंपनियों में किसी ना किसी तरीके से आने वाले समय में दूसरे देशों का ही पैसा लगेगा। राफेल विमान और रूस से किराए पर सबमरीन लेकर भारत की संप्रभुता आर्थिक स्वतंत्रता और रणनीतिक प्रभाविता से कैसे बचाई जा सकती है, जब सबसे जरूरी प्रतिष्ठानों पर आर्थिक तौर पर नियंत्रण दूसरे देशों के हाथों में होगा?

इसे भी पढ़ें विश्लेषण: नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन या भाजपा के दानकर्ताओं के लिए पैसा कमाने का ज़रिया

भारत पैट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड की 17 देशों में संपत्तियां मौजूद हैं। देश और दुनिया के कई इलाकों में रणनीतिक तौर पर भारत सरकार के अधीन ऑयल फील्ड मौजूद हैं। साल 1989 में भारत के समुद्र तटीय इलाकों में 40 फ़ीसदी समुद्री व्यापार का मालिकाना हक भारत के हाथों में था। अब यह घटकर महज छह फ़ीसदी हो गया है। यह तब हो रहा है जब पूर्वी एशिया के अधिकतर देश खुद की नौसेना की शक्ति बढ़ाने का काम कर रहे हैं। तब भारत में जहाजरानी प्राइवेट सेक्टर को सौंपी जा रही है।

हिंदुस्तान मशीनरी टूल्स की बर्बादी के बाद भारत के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के लिए जरूरी अस्सी फीसदी मशीनों के औजार दूसरे देशों से आयात किए जाते हैं। दवाइयों में इस्तेमाल होने वाले ज्यादातर घटक चीन से आयातित होते हैं। BHEL को सरकारी मदद ना मिलने की वजह से पॉवर सेक्टर में इस्तेमाल होने वाले ज्यादातर औजार भी चीन से आयातित किए जाते हैं।

इसे भी पढ़ें:  राजकोषीय घाटे से ज्यादा ज़रूरी है आम लोगों की ज़िंदगी की बेहतरी!

सोलर पॉवर, कंप्यूटर चिप्स, कंप्यूटर चिप्स बनाने वाली मशीन जैसी तकनीकों का राज होने वाला है. यहां पर भारत की उपस्थिति लगभग नगण्य है. अपने सबसे मजबूत सरकारी खंभों को प्राइवेट सेक्टर में सौंपने से भारत आत्मनिर्भर नहीं बन रहा. बल्कि आत्मनिर्भर भारत के स्लोगन के पीछे अपनी संप्रभुता आर्थिक स्वतंत्रता और रणनीतिक आजादी से समझौता कर रहा है।

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