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नया प्रवासी विधेयक : देर से लाया गया कमज़ोर बिल
इस लेख में हम विशेषकर खाड़ी देशों में रह रहे श्रमिक वर्ग के प्रवासियों के बारे में बात करेंगे और देखेंगे कि विधेयक उनके हितों की रक्षा किस हद तक करता है।

बी. सिवरामन
10 Jul 2021
Immigration
फ़ोटो साभार : द इंडियन एक्स्प्रेस

मोदी सरकार प्रवासी विधेयक 2021 (Emigrants Bill 2021) का मसौदा ले आई है और उसे प्रतिक्रिया आमंत्रित करने के लिए 31 मई 2021 को सार्वजनिक पटल पर डाल दिया गया। क्योंकि यह देश से बाहर रहने और काम करने वाले करीब 3 करोड़ भारतीय नागरिकों के अधिकारों से संबंध रखता है, हमें बारीकी से अध्ययन करना होगा कि यह विधेयक उनके असली मुद्दों पर किस हद तक संवेदनशील है।

2017 में एक अंतर-सरकारी यूएन एजेंसी, इंटरनेशनल ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ माइग्रेशन, (International Organisation of Migration) ने अनुमान लगाया कि 2017 में भारत से 3 करोड़ प्रवासी थे। ज़ाहिर है, इतना विशाल प्रवासी समुदाय वर्गों में विभाजित होगा। आईटी इंजीनियर और चिकित्सक व अन्य वैज्ञानिक जैसे पेशेवर लोग यूएस और यूरोप जाते हैं और वहां जाकर मध्यम वर्ग का हिस्सा बन जाते हैं। इसके विपरीत खाड़ी देशों और अन्य अरब देशों में जाने वाले भारतीय प्रवासी श्रमिक वर्ग से आते हैं- वे 2020 में तकरीबन 85 लाख थे।

इस लेख में हम विशेषकर खाड़ी देशों में रह रहे श्रमिक वर्ग के प्रवासियों के बारे में बात करेंगे और देखेंगे कि विधेयक उनके हितों की रक्षा किस हद तक करता है।

पहली बात तो यह है कि खाड़ी देशों में भारतीय श्रमिकों को दोयम दर्ज़े के नागरिकों के रूप में देखा जाता है। उन्हें वे अधिकार नहीं मिलते जो वहां के नागरिकों को मिलते हैं। भले ही भारत के प्रवासी श्रमिक वहां कितने ही लंबे समय रहें या काम करते रहे हों-और, इसके बावजूद कि उनके बच्चे वहीं जन्म लिये हों और बड़े हुए हों-वे कभी आशा नहीं कर सकते कि उन्हें खाड़ी देशों में नागरिकता मिल जाएगी।

खाड़ी देशों में अधिकतर भारतीय प्रवासी अस्थायी श्रमिक होते हैं, यहां तक कि उनका कोई औपचारिक कॉन्ट्रैक्ट भी नहीं होता, चाहे वे अकुशल या कुशल श्रमिक हों। इन देशों में रोज़गार की शर्तें सभ्य देशों में कॉन्ट्रैक्ट पर काम की शर्तों से तनिक भी नहीं मिलतीं। खाड़ी देश विश्व का एक ऐसा पॉकेट हैं जहां 21वीं सदी में भी 17वीं सदी की दासों वाली गुलामी जारी है। 

श्रमिकों की कठिनतम परीक्षा भारत में रिक्रूटमेंट एजेंसियों से आरम्भ हो जाती है। ये एजेंसियां खाड़ी के लिए श्रमिक सप्लाई करने वाले ठेकेदारों के रूप में कार्य करते हैं। इनमें से कई तो आवेदकों से भारी मात्रा में पैसा लेते हैं, पर न उन्हें खाड़ी भेजते हैं न ही उनका पैसा लौटाते हैं। फिर दूसरी समस्या यह है कि खाड़ी देशों के मालिकों से उतना पैसा नहीं मिलता जितना श्रमिकों की मांग करते समय वायदा किया गया था। इन देशों में श्रमिकों को ऐसे लेबर कैंपों में रहने को मजबूर किया जाता है जहां मानव के जीने लायक भी न्यूनतम सुविधाएं नहीं होतीं। गैरकानूनी निरोध शिविर यानी डिटेन्शन कैम्प भी होते हैं, जहां उन श्रमिकों को जबरन ठूंस दिया जाता है जो किसी भी प्रकार का प्रतिरोध करते हैं। फिर उन्हें मारा-पीटा जाता है और यातनाएं दी जाती हैं।

भारत में मिलने वाले वेतन से कुछ बेहतर वेतन का लालच लाखों श्रमिकों को खाड़ी की ओर आकर्षित करता है। जिस निराशा और मजबूरी में वे देश छोड़कर जाते हैं, उससे भी अधिक निराशा और मजबूरी की स्थिति उन्हें वहां के भयानक श्रमिक स्थितियों के चलते झेलनी पड़ती है। खाड़ी देशों में उनके लिए कोई श्रमिक अधिकार नहीं होते। वहां पर जो श्रमिक कानून होते भी हैं, वे दिखावे के लिए होते हैं। श्रमिक अधिकारों को लेकर जो कानूनी प्रावधान हैं, उन्हें कभी लागू नहीं किया जाता, और इसके विरुद्ध ट्रेड यूनियन बनाने की अनुमति नहीं होती। पर श्रमिक कानून में ऐसे खतरनाक प्रावधान होते हैं जिन्हें प्रतिरोध करने वाले प्रवासी मजदूरों पर व्यापक तौर पर लागू किया जाता है।

यह सच है कि भारतीय राज्य अपने श्रमिकों के श्रमिक अधिकारों को दूसरे संप्रभु देश में लागू नहीं करवा सकता; फिर भी इतना तो वह राजनीतिक व कूटनीतिक तौर पर जरूर कर सकता है कि उनके अधिकारों की रक्षा हो सके और वे खुशहाल रहें। प्रवास से पूर्व न्यायोचित भर्ती प्रक्रिया से लेकर संकट में देश वापसी के समय सही तरीके से पुनर्वास जैसे अधिकार व संबंधित तमाम समस्याओं को भी ये श्रमिक झेलते हैं। ऐसे अधिकारों की रक्षा तभी हो सकती है जब उन्हें संहिताबद्ध किया जाए और कानून द्वारा सुनिश्चित किया है।

विश्व में भारत ही एक ऐसी प्रमुख शक्ति है जो उस समय आंख मूंद लेती है जब उसके नागरिकों को दूसरे देशों में यातना दी जाती है और बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित किया जाता है। भारतीय राज्य को पूरे 66 वर्ष लग गए तब 1983 में वह पहली बार प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा हेतु घरेलू कानून बनाने में कामयाब हुआ। मोदी सरकार ने 2017 में विधेयक तैयार किया और उसे बदलकर 2021 में एक और विधेयक तैयार किया, पर हम यह कह नहीं सकते कि वह 1983 वाले कानून से वास्तव में बेहतर है।

कानून में इस कमी का कारण है क्रमशः सत्ता में आने वाले यूपीए और एनडीए सरकारों का प्रवासी श्रमिकों के प्रति नजरिया। इन्हें केवल निर्यात-योग्य सामग्री माना जाता है, जिसके माध्यम से विदेशी मुद्रा कमायी जा सकती है। सही मायने में देखें तो फारस की खाड़ी के भारतीय श्रमिकों द्वारा 2020 में जो 8 करोड़ 30 लाख डॉलर धन देश भेजा गया उससे साबित होता है कि श्रमिक वर्ग ही भारत की सबसे बड़ी निर्यात सामग्री है। इन प्रवासी श्रमिकों को केवल धन उगाही का माध्यम समझा जाता है, न कि मानवाधिकारों के हकदार इन्सान या श्रमिक अधिकारों के हकदार मजदूर। यही श्रमिकों को आखों पर पट्टी बांधकर देखना और उनके प्रति वर्गीय नजरिया अपनाना नए प्रवासी या उत्प्रवासी विधेयक 2021 के मसौदे में भी प्रतिबिंबित होता है। इस मसौदे में बहुत सी महत्वपूर्ण बातें शायद जानबूझकर व सावधानी से छोड़ दी गई हैं।

निश्चित ही हमारी सरकार को चिंता रहती है कि प्रवासी श्रमिकों के श्रमिक अधिकारों को यदि कानूनी तौर पर मान्यता दी जाए तो पेट्रो डॉलरों के धनी अरब शेखों की मुद्रा का भारत आना कहीं बंद न हो जाए। इस प्रकार खाड़ी से आने वाली मुद्रा का स्थान नए विधेयक में भारतीय श्रमिकों के हकों से ज्यादा अहमियत रखता है।

अधिकारों के मामले में लचर और महत्वपूर्ण मुद्दे गायब

खण्ड 3 में विधेयक ब्यूरो ऑफ एमिग्रशन पॉलिसी ऐण्ड प्लानिंग (Bureau of Emigration Policy and Planning) व राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में नोडल कमेटियों (Nodal Committees) की स्थापना का प्रस्ताव रखता है। यह एक नीति निर्माण करने वाला निकाय होगा जो प्रवासियों को सामाजिक बीमा, कौशल विकास, देश से प्रवास के पूर्व सहायता आदि के विषय में निर्णय लेगा। यह भी कहा गया कि वह महिला प्रवासी मजदूरों की सहायता करेगा। यद्यपि कोई कानून नियमों के अंतरगत आने वाले कार्यक्रमों का विस्तृत वर्णन नहीं प्रस्तुत कर सकता, विधेयक को कम-से-कम इनके कार्यक्रमों की विस्तृत रूपरेखा को इंगित करना चाहिये था।

मसलन, कानून को प्रवासी मजदूरों के सामाजिक बीमे के स्वरूप को निर्देशित करना चाहिये था। 2013 में यूपीए सरकार ने प्रवासी भारतीयों के लिये अनिवार्य प्रवासी बीमा योजना लागू की थी। मोदी सरकार ने उसे 2017 में परिवर्तित कर दिया, जिसमें सापेक्षिक रूप से उच्च प्रीमियम 375 रु के लिए केवल 10 लाख का लाइफ कवर दिया गया। इसके बरखिलाफ 1 करोड़ के एलआईसी कवर का प्रीमियम 411 रुपये प्रतिमाह है और प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के एक लाख के कवर का प्रीमियम केवल 12 रुपये है!

विधेयक ने यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि महिला प्रवासी श्रमिकों को किस प्रकार की सुरक्षा और मदद मिलेगी। केरल की नर्सों से लेकर आंध्र प्रदेश की घरेलू कामगारिनें, ढेर सारी भारतीय महिलाएं खाड़ी देशों में कमाने जाती हैं। भारतीय घरेलू कामगारिनों के यौन उत्पीड़न के अनेकों मामले प्रकाश में आए हैं। दक्षिण व दक्षिण पूर्वी एशिया से आने वाली हज़ारों घरेलू कामगारिनें शेखों की सेक्स गुलाम बना दी गई हैं, पर वहां के कानून शेखों पर उंगली तक नहीं रखते। कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिससे इन मालिकों व उनकी कम्पनियों पर प्रतिबंध लगाए जा सकें।

यह विधेयक ब्यूरो पर दो किस्म के क्वाज़ी-लीगल (quasi-legal) कार्य थोपता है। एक-रिक्रूट करने वाली एजेन्सियों के गैर-कानूनी करतूतों पर कानूनी कार्यवाही करना, दूसरे-प्रशासनिक किस्म के काम, जैसे कौशल विकास व प्रशिक्षण का काम। 

विधेयक में यह स्पष्ट रूप से विभाजित नहीं किया गया कि राज्य-स्तरीय नोडल एजेन्सियों के अधिकार व कर्तव्य क्या होंगे और एक संघीय राजतंत्र में राज्य सरकारें उनपर कितना अधिकार रखेंगी। तकरीबन 6-7 लाख श्रमिकों को केरल वापस भेजा गया था। यह तीन लहरों के दौरान हुआ। पहला 2009 के वैश्विक वित्तीय संकट के समय, दूसरा, जब यूनाइटेड अरब अमिरात ने कुछ श्रम कानून परिवर्तित किये, जिनके चलते स्थानीय लोगों का वरीयता दी जाने लगी, और तीसरा इस महामारी के दौरान। केरल सरकार को इन मजदूरों के पुनर्वास का पूरा खर्च उठाना पड़ा और केंद्र ने कुछ भी मदद नहीं की। यह विधेयक ऐसी खास विकट परिस्थितियों में केंद्र की जिम्मेदारी पर मौन है।

विधेयक में प्रावधान है कि भारतीय दूतावास/वाणिज्य दूतावास (Consulate) श्रम कल्याण प्रकोष्ठ (Labour Welfare Wings) की स्थापना करें और काउंसलिंग व कानूनी सेवाएं, कौशल विकास प्रशिक्षण और संकटग्रस्त प्रवासियों को अस्थायी रिहायशी सुविधा, आदि दें। पर न्यायिक सेवाओं के बारे में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है, और फिर भारतीय वाणिज्य दूतावासों के लेबर वेलफेयर विंग्स तो रोजमर्रे के श्रम विवादों का निपटारा नहीं करते न ही उत्पीड़न के या वेतन न देने के मामले देखते हैं।

बिल में प्रस्तावित है कि मानव अवैध व्यापार या ट्रैफिकिंग को रोकने के लिए रिक्रूट करने वाली एजेन्सियों पर महिलाओं व बच्चों को ठगने के विरुद्ध 5 साल कारावास और 7 लाख तक का जुर्माना हो। परन्तु छिपे तौर पर ट्रैफिकिंग जारी रहती है और एक भी ऐसा मामला सामने नहीं आया है जिसमें किसी रिक्रूटमेंट एजेन्सी को विदेशी मालिकों द्वारा महिलाओं के यौन शोषण के मामले में सजा हुई हो। बल्कि मोदी सरकार ने तो साथ ही एक एण्टी-ट्रैफिकिंग बिल भी ला दिया है और विधेयक और इस बिल में काफी बातें समान हैं। फिर भी दोनों ही इस बात पर अस्पष्ट हैं कि हर यौन उत्पीड़न के मामले में कानूनी कार्यवाही होनी चाहिये और मुआवजे के साथ वैकल्पिक नौकरियों के जरिये पुनर्वास भी होना चाहिये। ऐसे मामलों में भारत के कानून की अपनी सीमाएं हैं। पर इस मुद्दे पर भारत की ओर से शक्तिशाली कूटनीतिक प्रतिक्रिया, जिसमें विश्व के अन्य देश शामिल हों, के बारे में कोई सोच ही नहीं है।

 भारत सरकार की दोहरी नीति है। आखिर उसे भी ढेर सारे ऐसे विदेशी नागरिकों के लिए ऐसे ही कानूनों को लागू करना होगा,  जो नेपाल, बंग्लादेश, श्रीलंका जैसे देशों से आते हैं, यदि वह अपने नागरिकों के लिए ऐसा प्रस्ताव लाती है। यही डर है जो भारत सरकार को ऐसे लचर किस्म के विधेयक लाने पर मजबूर कर रहा है।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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