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कोविड-19
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देशभक्ति की वैक्सीन बनाम धार्मिक राष्ट्रवाद का वायरस
वास्तव में यही घड़ी है हमारे शासकों और नागरिकों की देशभक्ति की परीक्षा की। अगर हम और हमारे शासक वास्तव में इस देश और इसके नागरिकों से प्यार करते हैं तो जल्दी से जल्दी हर नागरिक को मुफ्त में कोविड-19 से बचाव करने वाला टीका लगवा देना चाहिए।
अरुण कुमार त्रिपाठी
26 May 2021
कोरोना
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : गूगल

भारत के शासकों और आमजन को देशभक्ति की वैक्सीन चाहिए ताकि वे धार्मिक राष्ट्रवाद के वायरस से मुक्त हो सकें। कितनी विडंबना है कि जब केंद्र सरकार को पूरे देश के लिए हर कीमत पर वैक्सीन का इंतजाम करना चाहिए तब लक्षदीप में उसके प्रतिनिधि बीफ पर पाबंदी लगाने और विरोध करने वालों पर गुंडा कानून थोपने पर लगे हैं। वास्तव में यही घड़ी है हमारे शासकों और नागरिकों की देशभक्ति की परीक्षा की। अगर हम और हमारे शासक वास्तव में इस देश और इसके नागरिकों से प्यार करते हैं तो जल्दी से जल्दी हर नागरिक को मुफ्त में कोविड-19 से बचाव करने वाला टीका लगवा देना चाहिए। वास्तव में आज सरकार की ईमानदारी, सेवा और कर्तव्यनिष्ठा की कसौटी यही है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि वह इस काम पर ध्यान देने की बजाय या तो राज्यों पर जिम्मेदारी डाल रही है या टूलकिट से लेकर दूसरे मुद्दों पर ध्यान भटकाने में लगी है। वहीं धार्मिक राष्ट्रवाद का वायरस इस देश को संक्रमित किए हुए है वरना दूसरी लहर में हमारी इतनी बुरी गति न होती और मरने वालों की तादाद तीन लाख से ऊपर न पहुंचती।

यह महज संयोग नहीं है कि अमेरिकी कंपनियां फाइजर और माडर्ना ने अभी भारत को वैक्सीन देने से मना कर दिया है। उनका कहना है कि उनके निर्यात के आर्डर बुक हो चुके हैं और अभी वे टीका देने का वादा नहीं कर सकते। यह बात भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल ने बताई है। उनका कहना है कि भारत सरकार फाइजर और माडर्ना से कोआर्डिनेट कर रही है। उधर 19 अप्रैल को जब से केंद्र सरकार ने यह घोषणा की कि राज्य अपनी जरूरत की वैक्सीन बाहर से मंगा सकते हैं तो पंजाब और दिल्ली राज्य ने बाहर की कंपनियों से संपर्क साधने की कोशिश की। लेकिन माडर्ना ने पंजाब को तो फाइजर ने दिल्ली को वैक्सीन देने से मना कर दिया। उनका कहना था कि वे वैक्सीन का सौदा सिर्फ केंद्र सरकार से करेंगे और न कि किसी राज्य सरकार से और निजी कंपनी से। यानी केंद्र सरकार ने औपचारिकता पूरी किए बिना एलान कर दिया कि अब राज्य बाहर से वैक्सीन मंगा सकते हैं। राज्य हवा में तीर चला रहे हैं और केंद्र सरकार और शासक दल के प्रवक्ता या तो राज्यों को दोषी ठहरा रहे हैं या विपक्षी दल पर सरकार और देश को बदनाम करने के लिए टूलकिट बनाने का आरोप लगा रहे हैं।

भारत में अभी तक सिर्फ 4.5 प्रतिशत आबादी को ही दोनों टीके लग पाए हैं। इस लिहाज से उसे अपने 95 करोड़ लोगों के लिए 1.9 अरब टीके चाहिए। यानी 1.58 करोड़ टीके प्रतिमाह। उतनी उपलब्धता न तो सीरम इंस्टीट्यूट कर पा रहा है और न ही भारत बायोटेक। सीरम इंस्टीट्यूट का मालिक तो देश में पड़ रहे तमाम दबावों के कारण विदेश चला गया है और भारत बायोटेक की अभी उतनी तैयारी नहीं है। विडंबना देखिए कि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने इस साल एक फरवरी को जो बजट पेश किया उसमें उन्होंने वैक्सीन के मद में 35,000 करोड़ रुपये आवंटित किए। लेकिन हैरानी की बात है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिए गए हलफनामे में कहा कि उसने वैक्सीन के शोध पर कुछ खर्च नहीं किया। सिर्फ 46 करोड़ रुपये कोवैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल के लिए दिए थे। बाद में सरकार ने 11 करोड़ खुराक के लिए 17,325 करोड़ रुपये सीरम इंस्टीट्यूट को और 7,875 करोड़ रुपये भारत बायोटेक को 5 करोड़ खुराक के लिए दिए। लेकिन भारत जैसे विशाल देश में यह राशि ऊंट के मुंह में जीरे के समान है।

जरनल ऑफ इंडियन रिसर्च में इंद्राणी गुप्ता और दया बारू के परचे में कहा गया है कि वैक्सीन की खुराक और उसके लिए दिए जाने वाले एडवांस के बारे में भारत सरकार के आंकड़े स्पष्ट नहीं हैं। यह भी स्पष्ट नहीं है कि भारत ने कितनी खुराक डब्ल्यूएचओ के वैक्सीन पूल में दी हैं। यही वजह है कि कांग्रेस के नेता राहुल गांधी और पी चिदंबरम इस नीति को संवेदनहीन और क्रूर बता रहे हैं। उनकी मांग है कि वैक्सीन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार ले और राज्यों को उसके वितरण के काम में लगाए। सन् 2020 के पूरे साल इसी नीति पर केंद्र चलता भी रहा है। लेकिन अचानक दूसरी लहर के तेज होते ही केंद्र ने गीयर बदल दिया।

यह सही है कि टीकाकरण के मामले में भारत फिसड्डी रहा है। सन् 2012 की यूनिसेफ की स्टेट आफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में आरंभ में टीकाकरण की दर अफ्रीकी देशों या अल्प विकसित देशों से भी जैसी रही है। नेपाल और पाकिस्तान जैसे दक्षिण एशियाई देशों से भी भारत पीछे रहा है। अगर भारत से कम टीकाकरण की दरें देखनी हों तो आपको अफगानिस्तान, हैती, इराक और पापुआ न्यूगिनिया जैसे देशों की ओर देखना होगा। बल्कि तमाम टीकों के लिए बांग्लादेश के टीकाकरण की दर 95 प्रतिशत रही है। दरअसल भारत में इन दरों में तेजी 1990 और 2000 के दशक में आई है।

यही वह दौर है जब भारत ने टीकाकरण का महत्व समझा और उस क्षेत्र में लंबी छलांग लगाई। सन 1997 में भारत के स्वास्थ्यकर्मियों ने जनवरी माह में एक दिन में 12.7 करोड़ बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई। अगले साल फिर भारत में 13.4 करोड़ बच्चों को एक ही दिन में पोलियो की खुराक दी गई। हालांकि भारत में टीका लगाने का इतिहास देखें तो वह बहुत पुराना है। अगर डॉ. एडवर्ड जेनर ने 1796 में चेचक का टीका पहली बार बनाया तो उसे 1802 में भारत के बांबे शहर में अन्ना डस्थाल नामक तीन साल की बच्ची को पहली बार लगाया गया। उस बच्ची के शरीर से बहुत सारे टीके निकाले गए और उसे कई बच्चों को लगाया गया। लेकिन भारत स्माल पाक्स से मुक्त 1977 में हो पाया।

दरअसल भारत की दिक्कत यह है कि यहां वैज्ञानिक शोध और उपचारों का आगमन तो जल्दी हो जाता है लेकिन उसके आम आदमी तक पहुंचने में सैकड़ों साल लग जाते हैं। इस मुद्दे पर चर्चा करते हुए `द अनसर्टेन ग्लोरी –इंडिया एंड इट्स कांट्राडिक्शन’ में ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन लिखते हैं--- बात सिर्फ इतनी ही नहीं है कि भारत बच्चों के टीकाकरण के मामले में खराब प्रदर्शन कर रहा है, बल्कि भारत के इस खराब रिकार्ड को न तो ढंग से चुनौती दी गई और न ही इसका समाधान निकाला गया। कहने का मतलब यह है कि ऐसी ढिलाई सिर्फ भाजपा के शासन में हो ऐसा नहीं है। यह ढिलाई अंग्रेजी शासन से लेकर कांग्रेसी शासन तक में रही है। शायद यह एक औपनिवेशिक देश का चरित्र है जहां सभी के बारे में एक साथ सोचा नहीं जाता।

लेकिन यह हमारी सामाजिक संरचना का भी दोष है। असमानता पर आधारित सामाजिक संरचना डार्विनवादी ही होती है। यानी हम या तो नियतिवाद में यकीन करते हैं या फिर मानते हैं कि जो योग्यतम है वही जिएगा। इसी मान्यता को स्वीकार करते हुए एक ओर तो यह कहने वालों का जोर है कि 140 करोड़ लोगों को टीका लगते लगते तो दस साल लग जाएंगे। इसलिए लॉकडाउन और हर्ड इम्युनिटी ही एक चारा है। या फिर लोग मर रहे हैं तो उन्हें मरने दिया जाए क्योंकि मरने वाले तो सवाल पूछने आते नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि कमजोर का कहीं ठिकाना ही नहीं है। इसी सिद्धांत को चुनौती देते हुए डॉ. आंबेडकर अपनी पुस्तक बुद्ध औऱ उनका धम्म में कहते हैं----धम्म समानता का उपदेशक है। हो सकता है कि समानता के कारण जो श्रेष्ठतम व्यक्ति है वह भी बना रह सके, चाहे वह जीवन संघर्ष की दृष्टि से योग्यतम न हो।

मुश्किल यही है कि हिंदू धर्म पर आधारित राष्ट्रवाद एक प्रकार से डार्विन के सिद्धांत के आधार पर चल रहा है। यानी उसे श्रेष्ठतम लोग नहीं चाहिए योग्यतम लोग चाहिए। उसे समानता नहीं चाहिए असमानता चाहिए। आज जरूरत ऐसे राष्ट्रवाद की नहीं है जो अल्पसंख्यकों ही नहीं बहुसंख्यकों की भी उपेक्षा करे और लोगों को डार्विन के सिद्धांत के आधार पर मरने को छोड़ दे। बल्कि उस तरह की देशभक्ति चाहिए जो अपने नागरिकों से प्यार करे, सबकी परवाह करे और सभी को बचाने के लिए सार्वजनिक टीकाकरण की नीति बनवाए।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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