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शिक्षा
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राजनीति
हाथ में कैंची लिए आरएसएस एक बार फिर से पाठ्यपुस्तकों की कतर-ब्योंत में लगा है
हिन्दू राष्ट्रवादी अपनी साम्प्रदायिक सोच को मूर्त रूप देने के लिए कोविड-19 का बूस्टर डोज देने से खुद को नहीं रोक पा रहे हैं।
राम पुनियानी
20 Jul 2020
Saffronisation of Education

कोरोनावायरस ने सारी दुनिया में कोहराम बरपा कर रखा है, लेकिन वहीं कुछ देशों के शासकों ने इस महामारी को अपने देशों में जनतांत्रिक आजादी में कतर-ब्योंत के मौके के तौर पर इस्तेमाल में लाने से भी परहेज नहीं किया है। इसके चलते कुछ देशों में इसका मुहंतोड़ जवाब भी देखने को मिल रहा है। उदहारण के तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका में “दम घोंटू” सांस्कृतिक वातावरण और सोची समझी साजिश के तहत “खुली बातचीत” को बढ़ावा देने वाले मंचों को कमजोर करने वाले क़दमों के खिलाफ अभियान लगातार जारी है।

भारत में भी विरोध प्रदर्शनों और लोकप्रिय आंदोलनों को कुचलने के प्रयास इस बीच तेज हुए हैं लेकिन उसी अनुपात में इसका मुंहतोड़ जवाब भी दिया जाना जारी है। लेकिन इस सबके बावजूद प्रतिक्रियावादी ताकतें कोविड-19 महामारी के बहाने अपने मंसूबों को फलीभूत करने की फिराक में लगी हुई हैं। पहलेपहल उन्होंने इसे मुस्लिम समुदाय को नीचा दिखाने के लिए इस्तेमाल में लाया। और अब शिक्षा के क्षेत्र में पाठ्यक्रमों के “बोझ” को कम करने के नाम पर पाठ्यक्रम से उन मूल विचारों को, जिसकी वजह से भारतीय पहचान निर्मित हो सकी है, को निकाल बाहर करने में लगे हैं।

संघवाद, नागरिकता, धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रवाद, मानवाधिकार, क़ानूनी सहायता एवं स्व-शासन सरकारों से सम्बन्धित अध्यायों को पाठ्यक्रम से हटाया जा रहा है। इतनी जानकारी सभी को मालूम है। इन साम्प्रदायिक ताकतों के निशाने पर शिक्षा ही हमेशा से सबसे पहला निशाना क्यों रही है, यह बात भी अब किसी से छिपी नहीं रही। आख़िरकार इन ताकतों को हमेशा इस बात की शिकायत रही है कि भारत में पाठ्यक्रम को निर्धारित करते समय “वामपंथियों” ने हमेशा से ही अपने दबदबे को बनाए रखा है, और इनके विचार में उन्होंने हमेशा ही स्कूलों में “मैकाले, मार्क्स और मोहम्मद” को ही आगे बढ़ाने का काम किया है, और इसी के चलते पाठ्यक्रमों के “भारतीयकरण” की महती आवश्यकता है।

हालाँकि जिस बात का वे जिक्र करने से बच रहे हैं वह यह कि पहले भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के शासनकाल में शिक्षा पर इसका क्या असर पड़ा था। जब बीजेपी ने पहली बार 1998 में केंद्र में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनाई थी तो मानव संसाधन विकास मंत्री के तौर पर मुरली मनोहर जोशी आसीन थे, और तत्कालीन सरकार ने शिक्षा के सिर्फ भगवाकरण पर ही काम किया था। शिक्षा के उनके तथाकथित भारतीयकरण का कुल मतलब ही समाज विज्ञान और उसमें भी खासकर इतिहास के बारे में आने वाली पीढ़ी को अँधा बहरा बनाना था। बीजेपी के विचार में संदर्भ से काटकर ज्योतिषी और संस्कृत के श्लोकों को इस्तेमाल में लाने को ही शिक्षा का भारतीयकरण करना मान सकते हैं। इन दोनों को ही स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल करा दिया गया था। यहाँ तक कि इसने जाति व्यवस्था का बचाव करने वाले अध्यायों तक को पाठ्यपुस्तकों में जोड़ने का काम किया था और यहाँ तक कि राष्ट्रवाद पर उन पैराग्राफ पर तटस्थता (वास्तव में नज़रें गड़ाये) का काम किया था।

2004 के आम चुनावों में एनडीए को मिली हार के बाद कांग्रेस के तत्वावधान में आई संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार ने इन गड़बड़ियों को दुरुस्त करने के प्रयास किये। लेकिन 2014 के बाद से बीजेपी एक बार फिर से सत्ता पर काबिज है और उसने एक बार फिर से वही हंगामा बरपा कर रखा है। बीजेपी के पैतृक निकाय के तौर पर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ एक बार फिर से शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ ये लोग लगातार बातचीत में हैं और अपने हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडा के तहत पाठ्यक्रम में बदलाव करने की कोशिशों में जुटे हुए हैं।

शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास और इस तरह के अन्य संगठनों ने इस बात की लगातार कोशिशें जारी रखी हैं कि पाठ्यक्रम से अंग्रेजी और उर्दू शब्दों को निकाल बाहर किया जाए। वे चाहते हैं कि रबिन्द्रनाथ टैगोर के राष्ट्रवाद के विचार को इसमें से हटा दिया जाए। उनकी इच्छा है कि विश्व प्रसिद्द रंगकर्मी एमएफ़ हुसैन की जीवनी के उद्धरणों को पाठ्यपुस्तक से निकाल बाहर कर दिया जाए। ज्ञात हो कि हुसैन को इन्हीं हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा देश निकाला दे दिया गया था और इस निर्वासन के दौरान ही उनकी विदेश में मौत हो गई थी। मुस्लिम शासकों की उदारता के उद्धरण, यहाँ तक कि बीजेपी हिन्दुओं के हितों को उठाने वाली पार्टी है के सन्दर्भ को और 1984 के सिख विरोधी नरसंहार के सन्दर्भ में कांग्रेस के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ओर से माफ़ी माँगने के सन्दर्भों तक पर भी कैंची चलाने का बीजेपी का लक्ष्य रहा है। और यही हाल 2002 के गुजरात नरसंहार को लेकर भी है- इन सभी को हटाने का उसका लक्ष्य रहा है और इसी को बीजेपी स्कूलों के पाठ्यक्रम का “भारतीयकरण” करने का नाम देती है।

कई सिरों वाले साँप के रूप में आरएसएस के पास दीनानाथ बत्रा नामक एक प्रचारक हैं जिन्होंने शिक्षा बचाओ अभियान समिति नाम से एक संस्था स्थापित कर रखी है जिसका काम उन प्रकाशकों को दबाव में लाने का होता है जो उन किताबों को प्रकाशित करने के बारे में सोचना बंद कर दें, जिनके विचार आरएसएस के दृष्टिकोण से मेल नहीं खाते। इस सम्बंध में कुख्यात मामला वेंडी डोनिगर की पुस्तक द हिन्दू का जिक्र करना प्रासंगिक होगा। आरएसएस के अनुसार डोनिगर की पुस्तक प्राचीन भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करती, जैसा कि उन्हें इसे कराना चाहिए था, क्योंकि उन्होंने तब की तमाम घटनाओं को एक सबाल्टर्न दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की है।

इस बीच संघ परिवार से निकले संगठन विद्या भारती के हिस्से के तौर पर बत्रा ने स्कूली छात्रों के लिए नौ पुस्तकें प्रकाशित कर डालीं, जो आरएसएस के प्राचीन इतिहास के बारे में और आरएसएस के समाज विज्ञान के बारे में दृष्टिकोण को प्रदान कराती हैं। इन सभी का गुजराती भाषा में अनुवाद किया गया है और इस पश्चिमी राज्य के बच्चों के बीच में इसे पढाया जा रहा है, जिसमें जुलाई 2014 से इसे उच्च-प्राथमिक स्कूलों के छात्रों के बीच में पढाया जाना शामिल है। ये सभी पुस्तकें “आर्यों” के पक्ष में और “पश्चिम” विरोधी दृष्टिकोण से भरी पड़ी हैं। बत्रा अपनी एक किताब, शिक्षण मा त्रिवेणी में लिखते हैं “जो छात्र आरएसएस शाखा में नियमित तौर पर जाते हैं, वे अपनी जिन्दगी में चमत्कारिक परिवर्तन को महसूस करते हैं।”

अब बात आती है उस हालिया फैसले की जिसमें पाठ्यक्रम के कुछ हिस्सों को सीधे हटाने का निर्णय लिया गया है- ये वे हिस्से हैं जो भारतीय राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकारों के सम्बंध में बुनियादी आधार को मुहैया कराते हैं। ये विषय हमेशा से ही हिन्दू राष्ट्रवादियों के लिए असहनीय बने हुए थे, और पिछले कुछ वर्षों से यह बात उनके लिए पूरी तरह से असहनीय बनी हुई थी कि आखिरकार ये विषय अस्तित्व में ही कैसे बने हुए हैं। क्योंकि आरएसएस और इसके आनुषांगिक संगठनों और समर्थकों ने धर्मनिरपेक्षता को बदनाम करने का अभियान हालिया सत्ता में बने रहने के दौरान लगातार किया है, जैसा कि वे तब भी करते आये थे जब वे सत्ता में नहीं थे। धर्मनिरपेक्षता से तो वे इतनी बुरी तरह से खार खाते हैं कि आरएसएस ने 2015 के गणतंत्र दिवस के अवसर पर संविधान की प्रस्तावना के जिस विज्ञापन को जारी किया था, उसमें से धर्मनिरपेक्षता के सन्दर्भ को ही निकाल दिया था।

कुछ दशक पूर्व जबसे राम मन्दिर आन्दोलन की शुरुआत हुई है, तभी से हिंदुत्व की शक्तियों ने भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने और संविधान के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की लगातार आलोचना के काम को बदस्तूर जारी रखा है। आरएसएस के कई सिद्धान्तकारों और बीजेपी नेताओं ने संविधान के पुनर्लेखन की मांग को दुहराया है, क्योंकि उनके अनुसार यह यह सभी को विवेक और समानता की स्वतंत्रता देने की बात करता है।

जबकि सच्चाई यह है कि धर्मनिरपेक्षता को भारतीय राष्ट्रवाद से अलग कर पाना उसी तरह से असंभव है जैसे राष्ट्रीय आन्दोलन को आज़ादी से। यह कुछ ऐसा है जिसे हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ स्वीकार करने से इंकार करती रही हैं या कहें कि इसे मान्यता ही नहीं देतीं। धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम पर ये ताकतें राष्ट्र के साम्प्रदायिक और विभाजनकारी विचारों को लगातार परवान चढ़ाते जा रही हैं। अपने इस घोषित लक्ष्य को हासिल करने के लिए इन्होने विशेष तौर पर छात्र नेताओं को अपने निशाने पर ले रखा है। वे इस उम्मीद में हैं कि इस तरीके से वे उन ताकतों को कमजोर करने में कामयाबी हासिल कर सकते हैं जिन्होंने संविधान के परचम को बुलंद कर रखा है। भारतीय राष्ट्रवाद की बुनियाद में ही उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन में बहुलता का समावेश रहा है। मुस्लिम और हिन्दू दोनों ही समुदायों के साम्प्रदायिक तत्व भारत के स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई से किनारा किये रहे। इसी वजह से उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष, जिसने भारतीय राष्ट्र की नींव रखने का काम किया है, ने विविधता भरे राष्ट्र के विचार को परवान चढ़ाया है।

भारत का संविधान देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करता है, और इसी वजह से नागरिकता से संबंधित अध्यायों को हटाने की बात की जा रही है। वहीं संघवाद भारत के राजनैतिक और प्रशासनिक ढाँचे का आधार स्तंभ रहा है। जैसे-जैसे तानशाही प्रवत्तियां बढ़ती जा रही हैं, संघवाद को धक्का पहुंचना स्वाभाविक है और यह बताने के लिए काफी है कि क्यों पाठ्यक्रम से इस विषय को भी हटा दिया गया है। लोकतंत्र का अर्थ ही है सत्ता का विकेन्द्रीकरण करना। इसका अर्थ है कि सत्ता को गाँवों और प्रत्येक नागरिक के हाथ में पहुँचाना, व्यवस्था को लोकतंत्र की अनुगूँज को देश के सुदूर अंचल तक पहुंचाना होगा।

संवैधानिक संशोधनों के जरिये बुनियादी ताकत की ईकाई के तौर पर स्थानीय स्वशासन का काम तय किया गया है, जो लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संसाधनों पर अपना नियन्त्रण बनाकर चलती हैं। भारत में शक्ति का बंटवारा गांवों, शहरों, राज्यों और केंद्र के बीच में किया गया है। संघवाद और स्थानीय स्व-शासन की शिक्षाओं को हटाकर सत्ताधारी पार्टी ने सत्ता के केन्द्रीयकरण की अपनी प्रवत्ति का ही परिचय देने का काम किया है।

मानवाधिकार से जुड़े अध्याय को पाठ्यक्रम से हटाने के निर्णय पर हमें विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। मानवाधिकार और मानवीय गरिमा की संकल्पना आपस में अभिन्न तौर पर गुंथी हुई है। इन प्रावधानों से नाता तोड़ने के अंतर्राष्ट्रीय नतीजे देखने को मिल सकते हैं, क्योंकि मानवाधिकारों के मामले में संयुक्त राष्ट्रसंघ के भीतर भारत उसके हस्ताक्षरकर्ता के तौर पर मौजूद है। स्कूलों के स्तर पर मानवाधिकार जैसे विषय को पाठ्यक्रम से हटाने का मतलब है कि आगे चलकर “अधिकारों” पर हक मात्र कुछ कुलीन तबकों का रहने वाला है, जबकि आम नागरिकों एवं वंचित तबकों के हिस्से में “कर्तव्यों” के निर्वहन का दायित्व ही रहने वाला है।

कुलमिलाकर देखें तो सरकार का इरादा इस कोरोनावायरस से उपहार के तौर मिले मौके को शिक्षा के क्षेत्र में सत्ता पक्ष के एजेंडा को आगे बढ़ाने के तौर पर नज़र आता है। पाठ्यक्रम के सिर्फ उन्हीं हिस्सों को हटाया जा रहा है, जिनसे बीजेपी पहले से ही खफा चल रही थी। इसे हटाने का अर्थ है राजनीतिक कीचड़ में अपने गोरखधंधे को मजबूती प्रदान करना। जो भी बदलाव किये गए हैं वे सभी इसके पैतृक निकाय आरएसएस और इसके आनुषांगिक संगठनों के मन-मुताफिक ही किये गए हैं। आरएसएस के लिए तो रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य ही इतिहास हैं।

सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा स्कूली पाठ्य पुस्तकों में जिन चीजों को इतिहास के तौर पर गौरवगान किया जाने वाला है वे महज कल्पनाएँ हैं। किस प्रकार से भारत ने प्राचीन काल में ही स्टेम सेल तकनीक में महारत हासिल कर ली थी, से लेकर कैसे प्लास्टिक सर्जरी के जरिये गणेश बने, कैसे पुष्पक विमान के युग में हवाई क्षेत्र में हम पूर्ण विकसित अवस्था में पहुँच चुके थे, और इसी प्रकार के भारतीय इतिहास और पौराणिक कथाओं की अन्य अधोगति का महिमामंडन करते रहने का क्रम जारी रहने वाला है।

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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