NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
नेहरू म्यूज़ियम का नाम बदलनाः राष्ट्र की स्मृतियों के ख़िलाफ़ संघ परिवार का युद्ध
सवाल उठता है कि क्या संघ परिवार की लड़ाई सिर्फ़ नेहरू से है? गहराई से देखें तो संघ परिवार देश के इतिहास की उन तमाम स्मृतियों से लड़ रहा है जो संस्कृति या विचारधारा की विविधता तथा लोकतंत्र के पक्ष में है।
अनिल सिन्हा
04 Apr 2022
Nehru Museum
नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी। फ़ोटो साभार

मोदी सरकार ने नेहरू म्यूजियम का नाम बदल कर प्रधानमंत्री म्यूजियम कर दिया है और अब यह सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों की स्मृतियों को संजोने वाली जगह होगी। यह दिखाने की कोशिश हो रही है कि यह देश के सभी प्रधानमंत्रियों के योगदान का सम्मान करने वाला कदम है। लेकिन गहराई में जाने पर समझना मुश्किल नहीं है कि यह राष्ट्रीय आंदोलन की स्मृतियों को मिटाने के संघ परिवार के प्रोजेक्ट का हिस्सा है।

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को बाकी प्रधानमंत्रियों के साथ खड़ा करने का काम ऊपर से लोकतांत्रिक और उदार दिखाई देता है, लेकिन वास्तव में यह संघ परिवार के उस राजनीतिक नजरिए को ही दिखाता है जिसके तहत वह आजादी के आंदोलन की विचारधारा से नफरत करता है।

नेहरू न केवल देश के पहले प्रधानमंत्री और मौजूदा सेकुलर भारत की नींव रखने वाले नेता थे बल्कि आजादी के आंदोलन का अगुआ नेता थे। उनकी स्मृतियों का विशेष महत्व है और भारत के इतिहास में अपना अलग स्थान रखता है। उनकी स्मृतियों को किसी खास परिवार से जोड़ना इतिहास के साथ बेईमानी है। उन्हें देश के बाकी प्रधानमंत्रियों के साथ खड़ा करना निश्चित तौर पर पाखंड और दुर्भावना से भरा है।

इसे उसी तरह का कदम मानना चाहिए जैसे अब्राहम लिंकन को अमेरिका के बाकी राष्ट्रपतियों के बराबर खड़ा कर दिया जाए। अभी के माहौल में शायद कांग्रेस भी नेहरू की तुलना लिंकन से करने की हिम्मत न करे, लेकिन सच यही है कि भारत को लोकतंत्र बनाने में नेहरू की भूमिका कमोबेश वैसी ही होगी। नेहरू को लिंकन बताने में इसलिए हम संकोच करते हैं कि अमेरिकी राष्ट्र की हैसियत ज्यादा है और लिंकन का प्रभाव विश्वव्यापी है। लेकिन अगर गुलाम देशों की मुक्ति तथा लोकतंत्र के व्यापक संदर्भ में देखें तो नेहरू का व्यक्तित्व भी विराट है। अंग्रेजों की कुटिलता के बाद दो टुकड़े हुए देश को उन्होंने सांप्रदायिक नफरत से निकालने के गांधी के लगभग असंभव लक्ष्य को पूरा किया। दुनिया में ऐसे उदाहरण कम ही हैं। भले ही हम उनकी जमकर आलोचना करें,   लेकिन हमें उनके योगदानों को एक कृतज्ञ राष्ट्र के रूप में स्वीकार करना चाहिए।  

हिंदुत्ववादियों ने आाजादी के आंदोलन में भाग नहीं लिया और अंग्रेजी हुकूमत के पक्ष में काम किया। यहां तक कि जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस बाहर से और कांग्रेस भीतर से अंग्रेजों से लड़ रही थी तो हिंदू महासभा अंग्रेजों की पिट्ठू मुस्लिम लीग के साथ कई प्रांतों में सरकार चला रही थी। इससे 1937 में कांग्रेस से हार कर हाशिए पर चली गई मुस्लिम लीग को इतनी ताकत मिल गई कि उसने 1947 में देश का बंटवारा कराने में प्रमुख भूमिका अदा की।

नेहरू आजादी की लड़ाई के निर्णायक युद्ध अंग्रेजों, मुस्लिम लीग तथा हिंदू महासभा से लड़ने वालों में गांधी के अगली पंक्ति के सिपाहियों में से थे। वास्तव में वह सरदार पटेल, खान अब्दुल गफ्फार खान, जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, मौलाना आजाद जैसी हस्तियों के नेता थे।

यह तथ्य है कि गांधी ने आजादी के काफी पहले  उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। संघ परिवार इतिहास के बाकी सच की तरह उनकी इस हैसियत को भी झुठलाना चाहता है। मोदी सरकार ने तो इसके लिए सारी राजनीतिक मर्यादाएं ही लांघ रखी है। इसने उनके दो समकालीनों, नेताजी सुभाषचंद्र बोस तथा सरदार पटेल के साथ उनके बैर की कहानी बनाई और उनके राजनीतिक मतभेदों को व्यक्तिगत दुश्मनी का रंग देने की कोशिश की। नेताजी सुभाष तथा सरदार पटेल को इतिहास में किसी सहारे की जरूरत नहीं है। लेकिन आजादी के आंदोलन के दौरान उनके खिलाफ लड़ने वाला संघ परिवार उन्हें इतिहास के गर्त से उबारने का नाटक कर रहा है। नेहरू को इतिहास में उनके स्थान से गिराने के लिए स्कूल-कालेज की किताबों से लेकर सोशल मीडिया और व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी पर लगातार मुहिम चल रही है।  

तीन मूर्ति भवन जहां नेहरू म्यूजियम बना है, सोलह साल तक प्रधानमंत्री नेहरू का निवास रहा है और अनेक राजनीतिक घटनाओं का गवाह रहा है। हरदेव शर्मा जैसे समर्पित लोगों ने  अपने परिश्रम से यहां समकालीन इतिहास की बेहतरीन लाईब्रेरी बनाई है जहां दुर्लभ दस्तावेज रखे हुए हैं।

सवाल उठता है कि क्या संघ परिवार की लड़ाई सिर्फ नेहरू से है? गहराई से देखें तो संघ परिवार देश की राष्ट्र के इतिहास की उन तमाम स्मृतियों से लड़ रहा है जो संस्कृति या विचारधारा की विविधता तथा लोकतंत्र के पक्ष में है। आजादी के आंदोलन की  स्मृतियों से वह खास तौर पर लड़ रहा है क्योंकि वह इन विविधताओं को सही अर्थों में अभिव्यक्त करता है।

संघ दोहरे काम में लगा है। एक ओर, वह भारत में इस्लाम या ईसाइयत से संबंधित विरासत को नष्ट कर सांप्रदायिक स्मृतियों को जिंदा करना चाहता है, दूसरी ओर आजादी के आंदोलन की स्मृतियों को मिटाना चाहता है। उसकी लड़ाई अकेले नेहरू के व्यक्तित्व से नहीं है, बल्कि आजादी के आंदोलन की तमाम हस्तियों को अपनी जड़ों से अलग कर रहा है या उनके विचारों से काट कर पेश कर रहा है। इसमें नेताजी सुभाष बोस, सरदार पटेल ही नहीं महात्मा गांधी, बाबा साहेब आंबेडकर और भगत सिंह शामिल हैं।

देश और समाज की स्मृतियों को नष्ट करने की इसी योजना के तहत उन यादगार स्थलों का स्वरूप बदला जा रहा है जो आजादी के आंदोलन की हस्तियो से जुड़े हैं। इसमें पहले नंबर पर अमृतसर का जलियांवाला बाग का नाम लेना चाहिए।

आजादी के आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण स्मारक का स्वरूप बदलने को लेकर इतिहासकार तथा शोधकर्ताओं में बेहद रोष है। इसे स्मारक से पिकनिक स्पॉट में बदला जा चुका है। इस बदलाव के पीछे इतिहास के बारे में अज्ञान काम कर रहा होता तो और बात थी। लेकिन इसके पीछे कारपोरेट तथा हिंदुत्व की सोच काम कर रही है। इतिहासकार मानते हैं कि जलियांवाला बाग की स्मृतियों को रहस्यमय और मनोरंजक बना दिया गया है जो बाजारी जरूरतों को पूरा करने करने के लिए किया गया है। दूसरी ओर, लाइट एंड साउंड के कार्यक्रम के जरिए इतिहास की हिेंदुत्ववादी व्याख्या परोसी जा रही है। इस व्याख्या के अनुसार जलियांवाला बाग में लोग बैसाखी मनाने के लिए जमा हुए थे यानी लोग अंग्रेजों के विरोध के लिए आयोजित सभा में भाग लेने के लिए नहीं आए थे। यह आजादी के आंदोलन को मजहबी आधार देने की

कोशिश ही है जबकि जलियांवाला बाग अंग्रेजों के खिलाफ देश में पहली बार एक बहुत मजबूत कौमी एकता का प्रतीक है।
आजादी के आंदोलन से जुड़े स्मारकों को मूल स्वरूप को नष्ट करने के कार्यक्रम के तहत ही साबरमती आश्रम में बदलाव किया जा रहा है। गांधीवादियों के तमाम विरोध के बावजूद इसका स्वरूप बदला जा रहा है। इस सूची में पुणे का आगा खान पैलेस भी है जहां 1942 के भारत

छोड़ो आंदोलन के समय महात्मा गांधी नजरबंद किए गए थे और अंग्रेजों की हिरासत में कस्तूरबा की मृत्यु हुई थी।
इसका कारपोरेट पक्ष भी है। जलियांवाला बाग,  साबरमती और आगा खान पैलेस में हो रहे बदलाव का जिम्मा मोदी ने उसी कंपनी को दिया जिसने वाइब्रेंट गुजरात के आयोजन स्थल में शीशों तथा रोशनी के सहारे गांधी को बाजारी तमाशा बनाया था। म्यूजियम को लेकर इस कंपनी के व्यापारिक नजरिए को समझने के लिए यह जान लेना ही काफी है कि इसने ही गुजरात के डायनोसोर म्यूजियम तथा दिल्ली के पुलिस म्यूजियम में निर्माण कार्य किए हैं। यह अभी तक साफ नहीं हुआ है कि नेहरू म्यूजियम का कायापलट का जिम्मा किस कंपनी को दिया जा रहा है।

राष्ट्र की स्मृतियों को मिटाने के प्रोजेक्ट में मुसलमानों के प्रति नफरत एक प्रमुख तत्व है। मुस्लिम कालंखंड से जुड़ी स्मृतियों के साथ छेड़छाड़ का सबसे दिलचस्प उदाहरण ताजमहल को एक शिव मंदिर बताने का प्रचार है। इसकी कोशिश संघ परिवार लंबे समय से कर रहा है कि देश ही नहीं दुनिया में अपने महानतम वास्तुशिल्प के लिए जाने गए  इस स्मारक को शाहजहां की उपलब्धि न मानी जाए। इसके लिए पीएन ओक ने साठ के दशक में ही किताब एक किताब लिखी जो इतिहास से ज्यादा तर्कशास्त्र की किताब लगती है। इसमें ताज महल को तेजामय महल नामक शिव मंदिर बताया गया है। मोदी सरकार के दौरान पीएन ओक की राय का जमकर प्रचार किया गया है। हालत यहां तक आ पहुंची है कि कोंकण के सुदूर इलाके में एक मछुआरे ने इन पंक्तियों के लेखक से इस बारे में सवाल किया।

मुस्लिम कालखंड की स्मृतियों को मिटाने की कोशिशों का ही नतीजा है कि इलाहाबाद का नाम प्रयागराज और फैजाबाद का अयोध्या हो गया। धार्मिक विविधता पर प्रहार करने और एक महान तीर्थस्थल को बाजारू पर्यटन स्थल बनाने का नमूना हम बनारस की गलियों तथा छोटे-छोटे मंदिरों को जमींदोज करने में देख ही चुके हैं।

लेकिन इतिहास की हिंदूवादी समझ को सिर्फ मध्ययुग पर लागू करने से संघ का उद्देश्य पूरा नहीं होता है, उसे अंग्रेजों के काल को बेहतर बताने तथा इसके खिलाफ चले उस महान आजादी के आंदोलन को भी लांछित करना है जो कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहा था। भगत सिंह या बाबा साहेब आंबेडकर के लिए उनके प्रेम की वजह उनक क्रांतिकारी विचारों के प्रति आकर्षण नहीं है बल्कि कांग्रेस और गांधी जी के साथ उनका मतभेद है जिसका इस्तेमाल वे आजादी के आंदोलन को लांछित करने के लिए कर किया जा सके। इसलिए संघ उनके विचारों का प्रचार नही करता बल्कि उन्हें मूर्तियों के रूप में बिठाना चाहता है। इसके अलावा कांग्रेस के ही नेताओं को ही उनकी पार्टी के ही नेताओं के खिलाफ खड़ा किया जा सके। कांग्रेस तथा आजादी के आंदोलन को विकृत बनाने के इस काम में संघ की कई संस्थाएं लगी हैं।

लेकिन इस लेकर खुद कांग्रेस का रवैया एकदम लापरवाही से भरा है। सच पूछिए तो इंदिरा गांधी ने ही नेहरू के विचारों को छोड़ दिया था और आपातकाल लगा कर भारतीय लोकतंत्र को चोट पहुंचाई थी। लेकिन राजीव गांधी तथा बाद में नरसिम्हा राव तथा सोनिया गांधी के नेतृत्व में तो कांग्रेस ने नेहरू के आर्थिक विचारों को पूरी तरह अलविदा कह दिया। आज भी सरकारी कंपनियों के निजीकरण जैसे मामलो के खिलाफ कांग्रेस कोई बड़ी मुहिम चलाने से परहेज कर रही है। पार्टी के भीतर या बाहर नेहरू के विचारों और आजादी के आंदोलन में उनके योगदान से लोगों को परिचित कराने के लिए कुछ नहीं कर रही है। यही वजह है कि नेहरू म्यूजियम का नाम बदलने और पहले प्रधानमंत्री की स्मृति को छिन्न-भिन्न करने के अभियान के खिलाफ कोई असरदार मुहिम नहीं चला पा रही है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Nehru Museum
Renaming Nehru Museum
BJP
RSS
Sangh Parivaar
Narendra modi
Modi Govt
Congress
Indian History
Indian History Congress
Prime Minister's Museum
Jawaharlal Nehru

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    डिजीपब पत्रकार और फ़ैक्ट चेकर ज़ुबैर के साथ आया, यूपी पुलिस की FIR की निंदा
    04 Jun 2022
    ऑल्ट न्यूज के सह-संस्थापक मोहम्मद ज़ुबैर पर एक ट्वीट के लिए मामला दर्ज किया गया है जिसमें उन्होंने तीन हिंदुत्व नेताओं को नफ़रत फैलाने वाले के रूप में बताया था।
  • india ki baat
    न्यूज़क्लिक टीम
    मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट
    03 Jun 2022
    India की बात के इस एपिसोड में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश, अभिसार शर्मा और भाषा सिंह बात कर रहे हैं मोहन भागवत के बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को मिली क्लीनचिट के बारे में।
  • GDP
    न्यूज़क्लिक टीम
    GDP से आम आदमी के जीवन में क्या नफ़ा-नुक़सान?
    03 Jun 2022
    हर साल GDP के आंकड़े आते हैं लेकिन GDP से आम आदमी के जीवन में क्या नफा-नुकसान हुआ, इसका पता नहीं चलता.
  • Aadhaar Fraud
    न्यूज़क्लिक टीम
    आधार की धोखाधड़ी से नागरिकों को कैसे बचाया जाए?
    03 Jun 2022
    भुगतान धोखाधड़ी में वृद्धि और हाल के सरकारी के पल पल बदलते बयान भारत में आधार प्रणाली के काम करने या न करने की खामियों को उजागर कर रहे हैं। न्यूज़क्लिक केके इस विशेष कार्यक्रम के दूसरे भाग में,…
  • कैथरिन डेविसन
    गर्म लहर से भारत में जच्चा-बच्चा की सेहत पर खतरा
    03 Jun 2022
    बढ़ते तापमान के चलते समय से पहले किसी बेबी का जन्म हो सकता है या वह मरा हुआ पैदा हो सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि गर्भावस्था के दौरान कड़ी गर्मी से होने वाले जोखिम के बारे में लोगों की जागरूकता…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License