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फ़ैज़, कबीर, मीरा, मुक्तिबोध, फ़िराक़ को कोर्स-निकाला!
कटाक्ष: इन विरोधियों को तो मोदी राज बुलडोज़र चलाए, तो आपत्ति है। कोर्स से कवियों को हटाए तब भी आपत्ति। तेल का दाम बढ़ाए, तब भी आपत्ति। पुराने भारत के उद्योगों को बेच-बेचकर खाए तो भी आपत्ति है…
राजेंद्र शर्मा
23 Apr 2022
Faiz Ahmed Faiz and Firaq Gorakhpuri
फ़ैज अहमद फ़ैज (बाएं), फ़िराक़ गोरखपुरी (दाएं)

ये लो कर लो बात। अब मोदी के विरोधियों को सीबीएसई के पढ़ने वाले बच्चों का बोझ कम करने में भी आब्जेक्शन हो गया। कह रहे हैं कि दसवीं के सामाजिक विज्ञान के पाठ में से फ़ैज़ साहब को क्यों निकाल दिया। उधर हिंदी वाले चीख-पुकार कर रहे हैं कि ग्यारहवीं के पाठों में कबीर को, मीरा को, राम नरेश त्रिपाठी को, सुमित्रानंदन पंत को, कृष्णनाथ को, सैयद हैदर रज़ा को क्यों हटा दिया। और बाहरवीं के पाठों से मुक्तिबोध को, फ़िराक़ गोरखपुरी को, विष्णु खरे को, रज़िया सज्जाद ज़हीर को, एन फ्रैंक को, बाहर का दरवाजा क्यों दिखा दिया?

अरे भाई, आप को मोदी जी का विरोध करना है तो करो। पर बेचारे बच्चों ने आप का क्या बिगाड़ा है? उनसे आप किस बात की दुश्मनी निकाल रहे हो, जो उनका बोझ जरा सा कम किए जाने पर क्यों-क्यों कर के इतने सवाल उछाल रहे हो। हम तो कहते हैं कि यह सब निकाल दिया, फिर भी बच्चों पर बोझ ज्यादा ही है, कम किसी तरह से नहीं है। और फ़ैज़ निकलें तो और मीरा या कबीर निकलें तो और मुक्तिबोध या फ़िराक़ निकलें तो या और कोई भी निकले, बच्चों का बोझ कुछ न कुछ कम ही होगा।

और जो बच्चों से करें प्यार, उनका बोझ कम होने का स्वागत करने से कैसे करेंगे इंकार! पर विरोधियों में इसे समझने भर की पॉजिटिविटी होती, तो मोदी के विरोधी ही क्यों होते? इन्हें सिर्फ यह दिखाई देता है कि किस-किस को बाहर का रास्ता दिखा दिया, पर यह दिखाई ही नहीं देता है कि मोदी जी के राज ने बच्चों को क्या-क्या अल्लम-गल्लम पढऩे से बचा लिया।

माना कि मोदी जी जब भी मौका लगे, सौ काम छोडक़र बच्चों से परीक्षा पर चर्चा भी करते हैं और खुद ज्यादा इम्तहान भले ही नहीं दिए हों, बच्चों का इम्तहान का टेंशन खूब दूर करते हैं। लेकिन, इसका मतलब यह थोड़े ही है कि मोदी जी बच्चों की पढ़ाई का टेंशन कम कराने के लिए कुछ भी नहीं करेंगे और पढ़ाई के बोझ को पहले जितना ही छोड़ देंगे। उनका नया इंडिया सब को साथ लेकर चलेगा या बच्चों की पढ़ाई को पुराने भारत के ही टैम में छोड़ देगा!

फिर ये सिर्फ बच्चों का बोझ कम करने का ही मामला थोड़े ही है। और भी वजहें हैं इन सब को कोर्स-निकाला देने की। अब बताइए, कोर्स है समाज विज्ञान का, अध्याय है साम्प्रदायिकता और जनतंत्र का और भाई लोगों ने फ़ैज़ के अशआर चेप दिए। पाठ में जगह नहीं मिली तो, पोस्टर की तस्वीर बनाकर चेपे, पर चेप दिए। बताइए, धर्मनिरपेक्षतावादियों ने एकदम हद्द ही नहीं कर रखी थी क्या? माना कि फ़ैज़ साहब शायरी करते थे। सुना है कि अच्छी शायरी करते थे। सुनते हैं कि उनकी शायरी के अब भी बहुत सारे फैन हैं, पाकिस्तान तो पाकिस्तान, हिंदुस्तान में भी और इंग्लैंड, अमरीका, कनाडा यानी जहां-जहां हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी गए हैं, वहां-वहां भी। सब सही है। मगर शायर हैं तो शायरी की किताबों में रहें। शायर साहब समाज विज्ञान में क्या कर रहे थे? समाज विज्ञान में शायरी की मिलावट ठीक है क्या?

सेकुलरवालों से राष्ट्रवादियों को इसीलिए नफरत है। ये हर चीज में मिलावट करने के  चक्कर में रहते हैं और वह भी एक नहीं कई-कई दर्जे की मिलावट। अब मान लीजिए कि बच्चों को सांप्रदायिकता और जनतंत्र के बारे में समझाने के लिए, समाज विज्ञान में कविताई की मिलावट जरूरी ही हो, तब भी पाकिस्तानी शायर की शायरी की ही मिलावट क्यों? हमारे अपने भी तो कवि हैं, कविताई का छोंक लगाना इतना ही जरूरी है तो हमारे कवियों की कविताई का छोंक क्यों नहीं? फैज़ ही क्यों, मनोज मुंतशिर क्यों नहीं? शायरी के छोंक के बिना रहना पड़ा तो रह जाएंगे, पर अब अपने बच्चों को पाकिस्तानी शायरी नहीं पढ़ाएंगे। आखिरकार, मोदी जी के नये इंडिया में आत्मनिर्भरता का संकल्प भी तो शामिल है। और फ़ैज तो खैर हर्गिज नहीं पढ़ाए जाएंगे। हमारी पढ़ाई राष्ट्रवाद बढ़ाने के लिए है या राष्ट्रद्रोह फैलाने के लिए?

कानपुर में आईआईटी के छात्रों पर ‘हम देखेंगे, हम देखेंगे’ करने के लिए मुकद्दमा चलाना पड़ा था, जबकि उनके कोर्स में तो फ़ैज़ का नाम तक नहीं था। नये इंडिया में शिक्षा परिसरों में कोई गड़बड़ी नहीं चाहिए। शिक्षा कैरियर संवारने के लिए है या बंदे बिगाड़ने के लिए! और हिंदुत्ववाद में विश्वास के चलते फ़ैज़ को हटाने का शोर मचाने वाले ये क्यों नहीं देखते हैं कि केसरिया भाइयों के विश्वास अपनी जगह, दसवीं के पाठ्यक्रम में सांप्रदायिकता और जनतंत्र का पाठ अब तक बना हुआ है।

रही बात कबीर, मीरा से लेकर मुक्तिबोध, फ़िराक़ तक को बच्चों की हिंदी की किताबों से बाहर करने की तो, हमें तो इसमें कोई नुकसान दिखाई नहीं देता है। मुक्तिबोध, फ़िराक़ वगैरह न सही, पर कबीर, मीरा, पंत वगैरह तो पुराने भारत के टैम से ही हिंदी वालों को पढ़ाए जाते  रहे थे। पर उससे कोई फायदा हुआ हो, हमें तो नहीं लगता है। उल्टे, इन्हीं सब के चक्कर में हिंदी प्रदेश का हिंदू जागने से रह गया। अगर हिंदू इनकी एकता-भाईचारे टाइप की बातों में आकर सोता नहीं रह जाता और जब अंगरेजों ने आजादी दी थी तभी जागकर आजादी अपने हाथ में ले लेता, तो नये इंडिया के लिए सत्तर साल इंतजार नहीं करना पड़ता। ये जब तक पढ़ाए जाएंगे, नये इंडिया में और डिले ही कराएंगे। और इन सबके स्कूल के कोर्स के निष्कासन में बच्चों का बोझ कम करने के अलावा जो असली पाजिटिव बात है, उसे मोदी जी विरोधी जान-बूझकर छुपाना चाहते हैं। वर्ना कोर्स-बदर होने वालों की सूची के एकदम सेकुलर होने से तो कोई इंकार कर ही नहीं सकता है।

कबीर का मामला थोड़ा कन्फ्यूज्ड है सो उसे छोड़ दिया जाए तो, ग्यारहवीं और बारहवीं के हिंदी कोर्स से निष्कासितों में पक्के मुसलमान तो दस में दो ही हैं--सैयद हैदर रज़ा और रज़िया सज्जाद ज़हीर। फ़िराक़ गोरखपुरी को पाकिस्तान भेजे जाने वालों में गिनने की गलती कोई नहीं करे, उनका असली नाम रघुपति सहाय था। यानी ठीक 20 और 80 का अनुपात है। इससे बढक़र सेकुलरता क्या होगी!

और हां एक बात और। इन विरोधियों को तो मोदी राज बुलडोजर चलाए, तो आपत्ति है। कोर्स से कवियों को हटाए तब भी आपत्ति। तेल का दाम बढ़ाए, तब भी आपत्ति। पुराने भारत के उद्योगों को बेच-बेचकर खाए तो भी आपत्ति है। और तो और नफ़रत की आंधी के बीच चुप लगाए, तो भी आपत्ति है। ये क्या चाहते हैं, अठारह-अठारह घंटे काम करने के बाद भी मोदी राज कुछ भी नहीं करे। मोदी जी कुछ नहीं करने के लिए प्रधान सेवक बने हैं क्या?  

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं।)

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Firaq Gorakhpuri
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