NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
फिल्में
भारत
सिस्टम के शिकारियों के ख़िलाफ़ क़ानून की ताक़त दिखाती- जय भीम
दरअसल, यह एक ही विषय का दूसरा आयाम है, जिसमें बतौर निर्देशक उसका अपना विचार है, विचार यह कि सिस्टम में कोई एक अच्छा वकील, कोई एक अच्छा जज, या कोई एक अच्छा पुलिस अधिकारी, अच्छी सामाजिक कार्यकर्ता है तो न्याय संभव है।
शिरीष खरे
08 Nov 2021
Jai Bhim

'जय भीम', 'कोर्ट' की ही तरह के विषय पर बनी फिल्म है, जो 'कोर्ट' की तुलना में कमजोर फिल्म है, लेकिन किसी फिल्म के निर्देशक से यह अपेक्षा रखी ही क्यों जानी चाहिए कि वह दूसरे निर्देशक की तरह सोचकर फिल्म तैयार करे? वहीं, किसी निर्देशक से यह अपेक्षा रखना भी एक तरह का अतिवाद है कि वह सिरे से कार्यपालिका से लेकर पूरी न्यायपालिका तक सबको कठघरे में खड़ा करे?

निर्देशक गोविंद निहलाणी की 'आक्रोश' के दृष्टिकोण और मत भिन्न है, जबकि 'जय भीम' के निर्देशक टी. जे. ज्ञानवेल का मत भिन्न है, जो कि एक सच्ची घटना के आधार पर ही अपनी बात भिन्न नजरिए से कह रहे हैं और इसमें एक अहम बात यह है कि वह मूलतः देश के कानून व व्यवस्था में विश्वास जताते हुए अपनी बात कह रहे हैं।

दरअसल, यह एक ही विषय का दूसरा आयाम है, जिसमें बतौर निर्देशक उसका अपना विचार है, विचार यह कि सिस्टम में कोई एक अच्छा वकील, कोई एक अच्छा जज, या कोई एक अच्छा पुलिस अधिकारी, अच्छी सामाजिक कार्यकर्ता है तो न्याय संभव है। इस सिस्टम में ऐसा नहीं है कि न्याय असंभव ही है, हां न्याय मुश्किल है तो उसका कारण कानून व व्यवस्था नहीं है, बल्कि कानून व व्यवस्था में व्याप्त वे शिकारी हैं जिनकी जड़े इसके सामाजिक ढांचों की तह तक जाती हैं, जो जातीय या वर्गीय भेदभाव के चलते कमजोर लोगों का लगातार अपना शिकार बना रहे हैं, लेकिन जिनका तोड़ भारत के कानून से ही निकाला गया है, जिसके बूते उसी सिस्टम में रहकर शिकारियों के खिलाफ लड़ना होगा।

फिल्म में एक आदिम आदिवासी समुदाय की एक गर्भवती महिला सेंगनी (लिजो मॉल होजे) अपने पति राजाकन्नू (के. मर्णिकानंदन) की तलाश करती है, जो पुलिस हिरासत से गायब है। उसके पति को खोजने और उसे न्याय दिलाने के लिए हाईकोर्ट का एक वकील खड़ा होता है।

दृश्यों की भव्यता वास्तविकता पर भारी

करीब ढाई घंटे की इस फिल्म में कई जगहों पर दृश्यों की भव्यता वास्तविक स्थितियों पर भारी पड़ती हुई दिखती है। वहीं, फिल्म के 25वें मिनिट में जब नायक वकील चंद्रु (सूर्या) की एंट्री होती है तो जो ड्रामा तैयार होता है उसके कारण भी इसे यथार्थवादी सिनेमा मानना या न मानना अपने-अपने हिस्से का सिरदर्द है।

हालांकि, बारीकी से गौर किया जाए तो ड्रामा सिर्फ नायक तक केंद्रित रखा गया है, बाकी ज्यादातर हिस्से सहज स्वाभाविक ही हैं, बल्कि एक दूसरी वजह से यह कथित यर्थाथवादी फिल्मों से इस मायने में ठीक है कि इसमें सिस्टम के भले आदमी के भीतर कुछ तो बुराई भी दिखाई गई है, क्योंकि हर आदमी सौ प्रतिशत भला नहीं हो सकता है, इसलिए कथित यर्थाथवादी सिनेमा की तरह यहां किसी भले आदमी को सौ प्रतिशत भला दिखाने की कवायद से बचा गया है। लिहाजा, एक भले पुलिस अधिकारी की भूमिका निभा रहे प्रकाश राज को एक जगह उनके तानाशाही रवैए के कारण सौ प्रतिशत भला दिखाने से परहेज भी किया गया है।

वहीं, सामान्यत: व्यावसायिक फिल्मों में नायक को पहले या दूसरे दृश्य में ही लाने का दबाव रहता है, जबकि यहां नायक आराम से आता है और उसे जल्दी लाने की कोई हड़बड़ी नजर नहीं आती।

इसी तरह, विचार आधारित बाकी फिल्मों की तरह इस फिल्म पर भी एजेंडा प्रेरित होने का आरोप लगाया जा सकता है, जो सही भी हो सकता है, साथ ही कुछ जगह निर्देशित अतिरंजित होता हुआ भी दिखता है, लेकिन थाने पर पुलिस वाले जब किसी बेसहारा आदमी को उस गुनाह को जबरन कबूल कराने के लिए जान से मारने की हद तक पीटेंगे तो जाहिर है कि सिचुएशन लाउड ही होगी।  

पहले दृश्य में स्पष्ट संदेश

जब पुलिस वाला जाति पूछते हुए कुछ लोगों को गुनहगार मानकर एक लाइन में खड़ा करता है और बाकी को छोड़ता जाता है, तब फिल्म अपने पहले ही दृश्य में जाति की उपस्थिति और उसकी जटिलता को स्पष्ट कर देती है। जो लोग पारधी (विस्तार से जिसका उल्लेख 'एक देश बारह दुनिया' पुस्तक में किया गया है) जैसी कथित आपराधिक समुदायों से अपरिचित हैं, उन्हें शायद ही इस प्रकार के दृश्य विश्वसनीय लगें, लेकिन जो ग्रामीण परिवेश से गहराई से जुड़े हैं, वे 'इज्जत से पूछा तो सिर पर चढ़ जाओगे' जैसा कथित उच्च जातियों का यह डर अच्छी तरह से जानते हैं।

फिल्म के अगले दृश्य में हरियाली और चिड़ियों की कोलाहल खुशी तथा सम्पन्नता के स्थापित प्रतीकों को तोड़ते हैं, शुरुआत में कुछ आशंका नजर आती है।
 
जो खेत मजदूर फसल को चौपट होने से बचाने के लिए खुद चूहे पकड़ रहे होते हैं, वे भी जानते हैं कि उनका पूरा घर परिवार किस अदृश्य जाल में फंसा हुआ है। लेकिन, वे करें तो क्या करें? यह देखकर अच्छा लगता है कि अभाव और परेशानियों के बावजूद उनके चेहरों पर हमसे कहीं अधिक मुस्कुराहट तैर रही होती है।

विपन्नता, संघर्ष और सपनों का सौंदर्य

बारिश के दिनों में भी जब पानी उनकी झोपड़ियों से रिसता है तो भी उनका प्यार और सेक्स कम नहीं होता और उस दौरान भी वे पूरी ईमानदारी से बीबी बच्चों के लिए पक्के मकान के सपना देख रहे होते हैं, जिन्होंने न जाने अपने जीवन में कितनी ईंटें बनाईं, लेकिन कभी अपने परिवार के लिए पक्की छत नहीं बना सके। आमतौर पर सम्पन्नता का सौंदर्य एक स्थापित मानक है, लेकिन यहां विपन्नता, संघर्ष और सपने का सौंदर्य स्थापित करने की कोशिश की गई है। कुछ बड़े सपने हैं भी तो उनका रास्ता खेतों के पार ईंट भट्टों तक जाता है पूरी ईमानदारी से। श्रम असल में उनके तमाम दुखों से लड़ने के लिए आखिरी विकल्प है।

इन सबके बावजूद जब उन पर मुसीबत का पहाड़ टूटता है तो उसका दंश गर्भवती महिलाएं और मासूम बच्चों को भी भुगतना पड़ता है, जिसमें बच्चे के खिलौने तक पुलिस की जीप के पहिए के नीचे आकर चकनाचूर हो जाते हैं।  

स्वतंत्रता के पिछले सात दशकों में एक बड़ा सवाल है जहां टीचर वकील से पूछती है कि वह तीन ट्राइब्स को जानती तो है, लेकिन कोर्ट में कैसे साबित करे कि वे ट्राइब्स हैं, यह उसे नहीं पता।

ऐसे में नायक की एंट्री आत्मबल बढ़ाती है। दूसरी तरफ, थाने में हत्या करने वाले क्रूर पुलिस वालों की तरफ से पैरवी कर रहे सरकारी वकील की लापरवाही राहत देती है, पर इसके आगे का पूरा संघर्ष बड़ा लंबा और जटिल है, जो महज पीड़ित को न्याय दिलाने तक सीमित नहीं रह जाता है, बल्कि समाज और सरकार की मानसिकता के विरुद्ध कानून की चूक और कानून की ताकत दोनों को दर्शाता है।

यही वजह है कि इसी बात से हैरान परेशान न्यायपालिका का बड़ा वकील पुलिस वालों से कहता है, ''एक आदिवासी लड़की हाईकोर्ट तक पहुंच गई, ये वर्दियां क्या मक्खियां पकड़ने के लिए पहन रक्खी हैं तुमने। मुझे सच-सच बताओ....'' 

(शिरीष खरे पुणे स्थित स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Jai Bhim
Jai Bhim Reviews
Lijomol Jose
K. Manikandan
Rajisha Vijayan
PRAKASH RAJ
Rao Ramesh

Related Stories

अगर एक कलाकार कायर बन जाता है, तो समाज भी कायर बन जाता है : प्रकाश राज


बाकी खबरें

  • मनोलो डी लॉस सैंटॉस
    क्यूबाई गुटनिरपेक्षता: शांति और समाजवाद की विदेश नीति
    03 Jun 2022
    क्यूबा में ‘गुट-निरपेक्षता’ का अर्थ कभी भी तटस्थता का नहीं रहा है और हमेशा से इसका आशय मानवता को विभाजित करने की कुचेष्टाओं के विरोध में खड़े होने को माना गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट
    03 Jun 2022
    जस्टिस अजय रस्तोगी और बीवी नागरत्ना की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि आर्यसमाज का काम और अधिकार क्षेत्र विवाह प्रमाणपत्र जारी करना नहीं है।
  • सोनिया यादव
    भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल
    03 Jun 2022
    दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता पर जारी अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट भारत के संदर्भ में चिंताजनक है। इसमें देश में हाल के दिनों में त्रिपुरा, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में मुस्लिमों के साथ हुई…
  • बी. सिवरामन
    भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति
    03 Jun 2022
    गेहूं और चीनी के निर्यात पर रोक ने अटकलों को जन्म दिया है कि चावल के निर्यात पर भी अंकुश लगाया जा सकता है।
  • अनीस ज़रगर
    कश्मीर: एक और लक्षित हत्या से बढ़ा पलायन, बदतर हुई स्थिति
    03 Jun 2022
    मई के बाद से कश्मीरी पंडितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए  प्रधानमंत्री विशेष पैकेज के तहत घाटी में काम करने वाले कम से कम 165 कर्मचारी अपने परिवारों के साथ जा चुके हैं।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License