वरिष्ठ कवि शोभा सिंह ने हमारे समय को अपनी कविताओं में इस ढंग से पिरोया है कि वो कभी ‘स्तब्ध शाम’ के तौर पर हमारे ज़ेहनो-दिल पर उतरती हैं और कभी ‘पतझर’ की सूरत। लेकिन हर कविता उनकी यही मांग करती है कि— वक़्त है फ़ैसलाकुन होने का। आपके दो कविता संग्रह ‘अर्द्ध विधवा’ और ‘ये मिट्टी दस्तावेज़ हमारा’ अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। और आपकी लेखनी और तेज़ी से आगे बढ़ रही है। तो आइए इतवार की कविता में पढ़ते हैं शोभा सिंह की तीन नई कविताएं।  
 तस्वीर, केवल सांकेतिक प्रयोग के लिए। साभार गूगल
तस्वीर, केवल सांकेतिक प्रयोग के लिए। साभार गूगल
वक़्त है फ़ैसलाकुन होने का 
 
वे कथकली  नृत्य का 
मुखौटा सा  लगाये 
हिंदुत्व गौरव कथाओं से 
मोहते बहु संख्यक 
छिड़कते भ्रम  के नशीले रंग 
मंत्रमुग्ध समूह में गर्वीला भाव 
आस्था सिद्ध करने की अपील दागते 
खोखले लफ़्ज़ों की कशीदाकारी 
शीशमहल जज़्बात के 
कोई भी जागरूक निगाह 
भांप लेती छद्म 
 ठहरे समाज की 
सम्मोहित जड़ता 
तोड़ने की कोशिश 
नाकाम होती 
कवि की ऊर्जा
हार नहीं मानती 
अलाव की आंच 
कश्मीर की कांगडी 
उसके रक्त को गर्म रखती 
लबादे में छुपी 
सुलगती यह  आंच 
उसे बांटनी है 
व्यापक समूह में 
और तोड़नी है 
अभिव्यक्ति की झिझक 
खोखले लफ़्ज़ों के गान का सम्मोहन 
भड़काऊ लशकारा मारते 
झूठ, नफ़रत 
जिसकी कीमत सत्य चुकाता है 
निश्चय ही 
इमारत कांच की  टूटेगी 
बस ज़ोरदार धमाके की ज़रूरत है 
लफ़्ज़ और मानी में 
वक़्त कम है  
फ़ैसलाकुन समय की दस्तक 
अनसुनी न रह जाए 
हिंदुत्व के बुलडोजर की 
रफ़्तार तेज़ है।
 तस्वीर: मुकुल सरल
तस्वीर: मुकुल सरल
स्तब्ध शाम 
                 
स्तब्ध पत्तियों के पास  
 ठिठकी शाम  
उस दिन 
कैसे समेटा उसने 
अपने आप को 
सौंदर्य के समूचेपन में 
जो पसरी थी 
 
यह भी सच है 
अब 
कैसे रहे निर्लिप्त 
अलग समय चक्र की 
मूक गवाह 
बोझ भारी
 बांटा है उसे भी 
हिंदू शाम मुस्लिम शाम में 
ख़ूनी तलवारें
हवा में भांजते
जैसे शाम को चीरते 
नफ़रती  गर्जनाएं 
उन्मादी  हुंकारें
 
शोर से वहां का 
आकाश जड़ हुआ 
ज़मींदोज़ ख़ुशहाल आशियाने 
गर्द गुबार, बुलडोजर की मार 
दृष्टि बिंदु असहाय
 मछली की तड़पन - भीगी 
मानवता बौनी 
दुबक गई 
झुरमुट में 
गुमसुम शाम 
देखती है नरसंहार का तांडव 
झुलसा बसंत 
 
कवि की कायनात में
छाई रही
तलख़्तर सच्चाइयां 
उस दिन सब सुर्ख़ हुआ 
लहू  
रगों में खोलता हुआ 
प्रतिरोध में 
तनी  मुट्ठियां 
चीख़ें हैं 
जो अब 
गले में घुट कर 
नहीं रहेगी।
 
 तस्वीर: मुकुल सरल
तस्वीर: मुकुल सरल
पतझर 
 
भीतर के तहख़ानों में 
जब पसरता है 
ठंडा सन्नाटा 
तब यूं ही 
स्मृति में उतर आते 
जागे से यायावरी हवा के हल्के थपेड़े 
ख़ुशदिली से दमकते खिले 
नन्हे बैजनी फूलों की झाड़ 
के आस पास कहीं यूहीं 
सधे  कदम आगे बढ़ते 
आह कैसे 
ख़ुदा हाफ़िज़ करते 
भूरे कत्थई पीले पत्ते 
पतझरी उदासी में भी 
पतझर इतना ख़ूबसूरत 
चिनार की बेअवाज़ पत्तियां झरती जाती 
 रंगीन फोहारों सी थिरकन लिए 
हवा का संग साथ पाकर उन्मुक्त 
 ख़ुशनुमा रास्ते ही नहीं
पूरी कायनात हसीन बनाते 
प्रकृति की
 गोया सिंफनी बजती 
दूर तक फैले पहाड़ों की गोद में 
बुरांश के पेड़ 
लाल दहक से खिला जंगल 
और बोझ नहीं कि  गुहार करते 
झर झर लाल ऊष्मा
सुनहरेपन की धज लिए 
धरती पर बिछे 
 पांवों तले चुर-मुर पत्ते 
लरजती हरी डाल पर 
लाल गुड़हल  
 पंच तत्व का बोध कराती पंखुड़ियां 
 
आभासी नदी से 
उठती धुंध में 
अलोप हो  जाते हंस युगल
प्रेम 
प्रकृति चुपके से 
हर लेती 
मन का सकल संताप 
मेरी आधी अधूरी दुनिया 
सवाल नहीं पूछती 
चुन लेती नन्हे फूलों के
कुमकुमी  सूर्यचक्र से 
ख़ुशियों के पल-छिन
अनमोल लम्हे 
सौंदर्य के नए प्रतिमान 
स्मृति  में दहक बन  
ख़ामोशी से दाख़िल हो
संजो लिए जाते 
गाढ़े वक्त के लिए।
 
-    शोभा सिंह 
(दिल्ली/लखनऊ)