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कला
रंगमंच
भारत
महामारी के बीच जनता के बीच कैसे पहुँच रहा है थियेटर
जहाँ सरकार द्वारा थिएटर से जुड़े कलाकारों को उपेक्षित छोड़ दिया गया है, वहीं कोलकाता में इप्टा के एक स्थानीय संस्करण, अंगीकार ग्रुप के सदस्यों ने कोविड-19 के बारे में जागरुकता फैलाने और थिएटर कर्मचारियों के समर्थन का बीड़ा उठाया है।
दीपांजन सिन्हा
01 Sep 2020
थियेटर

कोलकाता: यही कोई शाम का 7 बज रहा होगा, बारिश लगातार तेज होती जा रही थी और कोलकाता के दमदम इलाके में एक ओवरब्रिज के आसपास की गली में लोग इस मह्मारी काल में शाम ढलते ही धीरे-धीरे अपनी अपनी दुकानें बंद करने की ओर बढ़ रहे थे। लेकिन 25 अगस्त के दिन मंगलवार की शाम को कुछ ऐसा था जो उन्हें ऐसा करने से रोके जा रहा था। ओवरब्रिज के नीचे अलग-अलग तबकों वाली भीड़ जुटती जा रही थी, एक कदम आगे बढ़कर देखने पर ही कोई देख सकता था कि एक नाट्य प्रस्तुति चल रही थी। इसमें सिर्फ तीन कलाकार शामिल थे, और एक माइक लगा हुआ था. वे हर पड़ोस में चल रही आशंका के बारे में बातें कर रहे थे- “कहीं मेरा पड़ोसी वायरस से संक्रमित तो नहीं है?” भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के एक स्थानीय संस्करण अंगीकार की ओर से इस लघु नाटिका प्रतिबेशी (पड़ोसी) की प्रस्तुति जारी थी। 

यह नाटक महामारी के प्रति किसी इंसान के मन में घर कर गये डर की दीवार को तोड़ने का काम करता है। उसने अपनेआप को पूरी तरह से हर किसी से काटकर कर रख डाला है। यहाँ तक कि आपातकाल की स्थिति में भी वह अपने पड़ोसी की मदद से इंकार कर देता है। इसके एक पात्र जिसने तार्किकता का रोल निभाया है, के जरिये इस नाटिका में कोरोनावायरस के बारे में चल रहे मिथकों के खिलाफ तर्कों को पेश किया गया है और सामाजिक दूरी के स्थान पर शारीरिक दूरी के महत्व पर जोर दिया गया है। यह नाटक सरकार द्वारा विभिन्न तरकीबों से इस चुनौती का मुकाबला कर पाने में में विफलता को भी दर्शाता है क्योंकि उसके पास कमजोर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का बुनियादी ढांचा ही मौजूद है।

53 वर्षीय शिबाजी नंदी जिन्होंने इस प्रस्तुति को देखा, के अनुसार “मैं इसके हर पहलू से खुद को जोड़कर देख पा रहा हूँ। मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसे परिवारों को जानता हूँ जो इसी प्रकार की परिस्थितियों दो-चार होकर अब उबर चुके हैं, लेकिन इस दौरान उन्हें बेहद मुश्किलों में दिन बिताने पड़े हैं। ऐसे ही एक परिवार के जब पॉजिटिव पाए जाने की खबर लगी तो उनके रिश्तेदारों तक ने इस परिवार को जरुरी मदद उनके दरवाजे तक पहुँचाने से इंकार कर दिया था। हमें वाकई में इस प्रकार के संदेश की आवश्यकता है जिसमें हम एक दूसरे की मदद कर सकें” वे कहते हैं।

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इस प्रस्तुति का उद्देश्य हालाँकि इससे कहीं व्यापक है। यह देखते हुए कि मार्च के अंतिम सप्ताह से लॉकडाउन की शुरुआत के बाद से ही सारे ऑडीटोरियम बंद कर दिए गये थे, और कोई विकल्प नहीं बचा था, ऐसे में अंगीकार ने सड़कों पर उतरने का फैसला किया था।

इस नाटक के लेखक और निर्देशक दिलीप कार, जोकि भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के सदस्य भी हैं के अनुसार “हमने बाकी के अन्य ग्रुपों के साथ मिलकर, कम दरों पर थिएटर ऑडीटोरियम खोले जाने की माँग की थी, जिसमें सभी स्वास्थ्य सम्बंधी नियमों का पालन किया जा सकता था और इसके साथ ही स्टेज परफॉरमेंस को दोबारा शुरू किये जाने की इजाजत मांगी थी, जिसमें जोखिम और भी कम है। हमारी ओर से थिएटर के काम में शामिल बुनियादी ढांचागत कर्मियों और लाइटिंग आर्टिस्ट जैसे थिएटर कर्मचारियों के लिए बीमा और वित्तीय सहायता प्रदान किये जाने के लिए अभियान चलाये जा रहे हैं। क्या यह सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह इस आपदा में थोड़ी-बहुत बुनियादी सामाजिक सुरक्षा मुहैय्या कराये?  

अभी तक इस नाटक का दो बार मंचन किया जा चुका है, एक बार अकेडमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स के पास खुले में प्रदर्शन वाले स्थान पर, जोकि शहर का सांस्कृतिक केंद्र है जिसमें इंडिपेंडेंट सिनेमा और थिएटर के लिए अनेकों मंचों की व्यवस्था है और उसके बाद दमदम के एक व्यस्त सड़क के पास। कार के अनुसार यदि इसके जरिये कुछ धन इकट्ठा होता है तो इसका इस्तेमाल थिएटर कर्मचारियों की मदद के लिए किया जायेगा। 

वे कहते हैं “मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि हमें मंचन की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही है। यह एक नाटक है, कोई हिंसक भीड़ नहीं, एक प्ले मात्र है। हम चाहते हैं कि अन्य थिएटर ग्रुप भी खुली जगहों को इस्तेमाल में लायें। लोगों तक पहुँचने की और महामारी काल की कहानियों को बताये जाने की जरूरत है। प्रेम और सौन्दर्य वाली अन्य कहानियों को कुछ समय के लिए स्थगित किया जा सकता है।”

इस महामारी काल में नुक्कड़ नाटक के मंचन का काम भी अपनेआप में किसी चुनौती से कम नहीं है। कलाकारों को उचित दूरी बनाये रखनी पड़ती है, और साथ ही चेहरे को मास्क से ढकना भी जरुरी है। जहाँ तक नाटक में कलात्मक गुणवत्ता को बनाये रखने का प्रश्न है तो ये सभी कारक एक चुनौती के तौर पर उभरकर आते हैं। लेकिन कार इन परिस्थितियों में कलात्मक गुणवत्ता को हासिल करने पर उतना जोर नहीं देते। “यह एक राजनीतिक नाट्य प्रस्तुति है जिसमें एक संदेश है और फिलहाल हमारा प्राथमिक उद्देश्य इतना ही है” वे कहते हैं।

बाकी के कलाकार भी इससे सहमत हैं। लेकिन उनके लिए भी यह एक नया प्रारूप है। यहाँ तक कि उनके लिए भी जिन्होंने इससे पहले भी सड़कों पर नुक्कड़ नाटकों में हिस्सा लिया है। 61 वर्षीया फाल्गुनी चटर्जी, जिन्होंने उस व्यक्ति का रोल निभाया है जिसे डर ने जकड़ रखा है का कहना है “यह पहली बार नहीं है जब मैंने सड़क पर खड़े होकर मंचन किया हो, लेकिन मेरे लिए भी यह एक बेहद अलग अनुभव रहा है।”

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चटर्जी आगे बताती हैं “पूरे मंचन के दौरान मुझे हमेशा मास्क लगाकर रखना पड़ा और सभी किरदारों को एक दूसरे से दूरी बनाकर रखनी पड़ी थी। इसका अर्थ यह हुआ कि हम सभी को लगातार काफी ऊँचे सुरों में अपने संवादों को बोलना था। इस वजह से हमारे लिए सूक्ष्म मनोभावों या संवाद अदायगी की महीन परतों को उकेर पाने के लिए काफी मुश्किल हो रही थी।”

हालाँकि उस समय की चुनौतियाँ अलग थीं, लेकिन यह उनके लिए 80 के दशक में पीछे जाने का क्षण साबित हुआ है, जब बादल सरकार के आन्दोलन से प्रेरित होकर मंचों से थिएटर को उतारकर चटर्जी ने  सड़कों पर अपनी प्रस्तुति दी थी।

रंगमंच के विद्वान, लेखक और कोलकाता के मशहूर संग्लप ग्रुप के निर्देशक कुंतल मुखोपाध्याय ने इस पहलकदमी का स्वागत किया है। उनका मानना है कि भारत में आम लोगों के बीच में परफॉर्म करने का अर्थ है कि रंगमंच को एक बार फिर से वहाँ ले जाया जा रहा है, जहाँ से पारम्परिक तौर पर वह सम्बद्ध रहा है। 

“भारतीय रंगमंच के इतिहास में यदि नजर डालें तो यह हमेशा से ही स्ट्रीट थिएटर या जन नाट्य के तौर पर ही जाना जाता रहा है। यहाँ तक कि इसे सम्राट अशोक के काल में भी और बाद के दौर में चैतन्य के समय में भी देख सकते हैं। इसलिए इस संकट की अवधि में यदि थिएटर एक बार फिर से आम जगहों पर वापस आ सकता है तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता है। मैंने खुद इस बीच प्रवासी मजदूरों पर एक नाटक कोरोना-काल का लेखन लगभग पूरा कर लिया है, और यदि इस प्रकार का कोई नाटक सड़कों पर प्रस्तुत किया जा सके तो यह अद्भुत होगा” वे कहते हैं।

इसके साथ ही मुखोपाध्याय अपनी बात में जोड़ते हुए कहते हैं कि किसी भी रंगमंच को सफल बनाने के लिए स्टेज को तैयार करने वाले कर्मचारियों की भूमिका बेहद अहम होती है। आज जरूरत इस बात की है कि रंगमंच से जुड़े सभी लोग आगे बढ़कर एक दूसरे की मदद करें।” 

कार इससे सहमत हैं। वे इसमें आगे जोड़ते हुए कहते हैं कि लोगों को राजनीतिक तौर पर मुखर होने की भी जरूरत है। “यदि हम राजनीतिक तौर पर मुखर नहीं होंगे तो वास्तव में हमारे सामने बेहद बुरे दिन आने वाले हैं। इसे ध्यान में रखकर मैं आगे और भी नाटकों के आउटडोर मंचन की तैयारी करने में लगा हुआ हूँ” वे कहते हैं। 

उन्होंने यह भी बताया कि इस सम्बन्ध में कई अन्य नाटक भी लिखे जा रहे हैं। कार अपने अगले नाटक के मंचन के लिए महामारी के दौरान हुई नौकरियों के खात्मे को लेकर विचार कर रहे हैं। 

लेखक कोलकाता स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Taking Theatre to Streets Amid the Pandemic

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