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आख़िरकार तालिबान को सत्ता मिल ही गयी!
तालिबान की ओर से 7 सितंबर को घोषित की गयी कथित अंतरिम सरकार को लेकर ऐसी कई बातें हैं,जिन पर ग़ौर करने की ज़रूरत है।
एम. के. भद्रकुमार
09 Sep 2021
आख़िरकार तालिबान को सत्ता मिल ही गयी!

पाकिस्तान के इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) के प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद ने जिस तरह से तालिबान को एक अंतरिम सरकार की घोषणा करने के लिए मजबूर किया है, वह इस बात की गारंटी है कि काबुल की सत्ता की कुंडी पर रावलपिंडी का नियंत्रण बना रहेगा।

तालिबान की ओर से 7 सितंबर को घोषित कथित अंतरिम सरकार को लेकर ऐसी कई बातें हैं, जिन पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। "उदारवादी" तालिबान के राजनीतिक प्रमुख मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर, जिनके बारे में माना जाता है कि जिनकी तालिबान में हैसियत अब दूसरे नंबर की हो गयी है, उन्हें मुल्ला हसन अखुंद के पहले उप-प्रधानमंत्री के रूप में नामित किया गया है, जबकि ख़ुद मुल्ला हसन अखुंद कार्यवाहक प्रधान मंत्री होंगे।

बरादर ने दोहा वार्ता में तालिबान प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई की थी और उन्हें पहले नयी तालिबान सरकार के संभावित मुखिया के तौर पर व्यापक रूप से प्रचारित किया गया था, लेकिन उनके पर कतर दिये गये हैं, यानी उन्हें ऐसे नाममात्र का पद दे दिया गया है, जिसकी आम तौर पर एक सीमा होती है।

सत्ता की कमान मुल्ला अखुंद के हाथों में रहेगी। इस समय वह तालिबान आंदोलन के सबसे पेचीदे शख्सियतों में से एक हैं, वह प्रचार-प्रसार से दूर रहने वाला एक ऐसे व्यक्ति के दुर्लभ अपवादों में से एक है, जिसने 1980 के दशक में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ "जिहाद" में भाग तो नहीं लिया था, लेकिन उसकी पहचान शूरा परिषदों में काम करने वाले इस आंदोलन के एक ताक़तवर "विचारक" के रूप में ज़रूर रही है।

2001 में बामियान की बुद्ध प्रतिमा के तोड़ने का श्रेय मुल्ला अखंद को ही दिया जाता है और देवबंदवाद के रूप में ज्ञात सख़्त इस्लामी विचारधारा के ब्रांड में पैबस्त तालिबान की धार्मिक पहचान के विकास में उसकी एक अहम भूमिका रही है।

अखुंद ने अमेरिका समर्थित अफ़ग़ान सरकारों के ख़िलाफ़ विद्रोह के लिए वैचारिक ज़मीन तैयार की थी। ग़ौरतलब है कि पिछले 20 सालों की अवधि के दौरान वह तक़रीबन पूरी तरह पाकिस्तान से वहीं निर्वासित होते हुए काम करता रहा है।

अखुंद का वास्ता शुद्ध पश्तून वंश के कंधार की उस शक्तिशाली दुर्रानी जनजाति से है, जिसने ऐतिहासिक रूप से अफ़ग़ान शासकों का राजतिलक किया था। तालिबान शासन (जिसमें वह बतौर विदेश मंत्री था) को उखाड़ फेंके जाने के बाद अखुंद नेताओं की उस रहबरी शूरा परिषद के प्रमुख के तौर पर शक्तिशाली भूमिका में आ गया, जिसे अक्सर "क्वेटा शूरा" कहा जाता था। इसे आईएसआई ने तालिबान के दूसरी बार सत्ता में आने की साज़िश रचने के लिए तैयार किया था।

बरादर को दरकिनार करने को लेकर उसके और हक़्क़ानी नेटवर्क के बीच राजनीतिक तनाव को ज़िम्मेदार ठहराये जाने की कोशिश की जाती रही है। इस मामले में आख़िरी फ़ैसला आईएसआई का है। करज़ई के साथ बरादर की सुलह की राजनीति से पहले उन्हें आईएसआई जेल में 8 साल की क़ैद का सामना तबतक करना पड़ा था, जब तक कि राष्ट्रपति ट्रम्प ने उन्हें दोहा में वार्ता के लिए नहीं बुला लिया था। लेकिन,आईएसआई ने बरादर पर कभी भरोसा नहीं किया।

अखुंद के बारे में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि उसकी गहरी आस्था में महिलाओं की हैसियत बच्चे पैदा करने वाली और पुरुषों की महज़ ज़ायदाद से ज़्यादा कुछ नहीं है। उसकी इस आस्था में जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ दोयम दर्जे के लोगों की तरह पेश आना भी शामिल है। वह नागरिक अधिकारों के मुद्दों पर चट्टान की तरह सख़्त रहा है। 1990 के दशक में तालिबान की अपनायी उसकी व्यवस्थाओं में महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध लगाना, लैंगिक अलगाव को लागू करना और सख़्त धार्मिक परिधान को अपनाना शामिल था।

अगर पीछे के घटनाक्रमों में नज़र डालें, तो साफ़ हो जाता है कि बरादर ने दोहा में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने महज़ तार्किक मुखौटे के रूप में काम किया था। एक तरफ़ अखुंद और दूसरी और मनोनीत गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक़्क़ानी के साथ बरादर ख़ुद को मुश्किलों के बीच पाता है।

इसमें शक नहीं कि सिराजुद्दीन आईएसआई की आंखों का तारा है। उसकी नियुक्ति नई दिल्ली के लिए एक भयानक ख़बर है। लेकिन, भविष्य के लिए बड़ा सवाल तो हक़्क़ानी नेटवर्क के साथ अमेरिका के समीकरण को लेकर हैं। एफ़बीआई की "सिराजुद्दीन हक़्क़ानी की गिरफ़्तारी के लिए सीधे सूचना देने वालों को 10 मिलियन डॉलर तक का इनाम" की अधिसूचना और इसकी साफ़-साफ़ की गयी मुनादी सिराजुद्दीन को लेकर सबकुछ स्पष्ट कर देती है, जिसमें कहा गया है, "अगर आपके पास इस शख़्स के बारे में कोई जानकारी है, तो कृपया अपने स्थानीय एफ़बीआई कार्यालय से संपर्क करें या निकटतम अमेरिकी दूतावास या वाणिज्य दूतावास से संपर्क करें।”

एफ़बीआई सिराजुद्दीन को “ख़ास तौर पर तैयार किया गया वैश्विक आतंकवादी" बताता है जिसके अल-क़ायदा से क़रीबी रिश्ते हैं, लेकिन उसके ख़िलाफ़ जो आरोप है, उसका कोई सुबूत नहीं है और जो कुछ है भी, वह स्पष्ट नहीं हैं। वैसे, सिराजुद्दीन "जनवरी 2008 में अफ़ग़ानिस्तान के काबुल स्थित एक होटल पर हुए उस हमले के सिलसिले में पूछताछ को लेकर एक वांछित आरोपी है, जिसमें एक अमेरिकी नागरिक सहित छह लोग मारे गये थे। माना जाता है कि उसने अफ़ग़ानिस्तान में संयुक्त राज्य अमेरिका और गठबंधन सेना के ख़िलाफ़ सीमा पार से हुए हमलों की योजना बनायी थी और उसमें भाग लिया था। हक़्क़ानी कथित तौर पर 2008 में अफ़ग़ान राष्ट्रपति हामिद करज़ई पर हुए हत्या के प्रयास की योजना में भी शामिल था।”

इसी तरह, एफ़बीआई की उस नोटिस में बड़े ही हास्यास्पद तरीक़े से यह भी कहा गया है, “माना जाता है कि हक़्क़ानी पाकिस्तान में ही रहता रहा है, ख़ास तौर पर मिराम शाह के पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान में रहने की बात कही जाती रही है।”

सवाल है कि अगर अमेरिका ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान के सैन्य छावनी वाले शहर से पकड़ सकता है, तो उसे वाइल्ड वेस्ट की तरह इसकी गिरफ़्तारी को आउटसोर्स करने, यानी कि जहां-तहां पोस्टर चिपकाने की क्या ज़रूरत थी?

बात यह है कि विदेश विभाग की अभिलेखीय जानकारी यह भी दिखाती है कि अमेरिका और हक़्क़ानी की कहानी को जानने के लिए थोड़ा पीछे जाने की ज़रूरत है। 1980 के दशक की जिहाद में जलालुद्दीन हक़्क़ानी का मुजाहिदीन समूह वास्तव में एकमात्र ऐसा समूह था, जिस पर जनरल ज़िया-उल-हक़ का भरोसा इस क़दर था कि उसे सीआईए के साथ सीधे बात करने की अनुमति दी गयी थी। उस सीआईए ने निश्चित रूप से उसे एक ऐसी "अनूठे" दौलत बताया था, जिसने बदले में लाखों डॉलर नक़द हासिल किये थे।

दरअसल, जब सीआईए के लिए ओसामा बिन लादेन को सूडान से अफ़ग़ानिस्तान स्थानांतरित करने का समय आया था, तो उसे जलालुद्दीन के अलावा किसी और की सुरक्षित पनाह में नहीं छोड़ा गया था। दोनों के बीच ऐसा रिश्ता था!

मगर, यह भी सच है कि जलालुद्दीन ने बाद में बिन लादेन को धोखा देने से इनकार कर दिया और शायद दिसंबर 2001 में प्राकृतिक रूप से सुरक्षित तोरा बोरा की पहाड़ी गुफ़ाओं में अमेरिकी फंदे से बचने में उसकी मदद की थी। ज़ाहिर है, तब से दोनों पक्ष आगे बढ़ते रहे हैं।

सही बात तो यह है कि लेफ़्टिनेंट जनरल जॉन निकोलसन ने सुनवाई के दौरान सीनेट की सशस्त्र सेवा समिति को बताया था कि जनवरी 2016 में अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी और नाटो बलों का नेतृत्व करने के लिए उन्हें चुना गया था, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में इस अमेरिकी आतंकवाद विरोधी अभियान के निशाने पर आतंकवादियों का हक़्क़ानी नेटवर्क नहीं था। जनरल के हवाले से बताया गया कि "वे अभी उस ओहदे का हिस्सा तो नहीं हैं... लेकिन, हक़्क़ानी ख़ास तौर पर अफ़ग़ान सुरक्षा बलों का मुख्य बिंदु हैं।”

निकोलसन ने यह एक जटिल व्याख्या दे दी थी कि अमेरिकी आतंकवाद विरोधी कार्रवाई अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट पर केंद्रित थी। अमेरिका को उम्मीद थी कि पाकिस्तान सीमा पार से होने वाले हमलों को रोकने के लिए हक़्क़ानी पर पर्याप्त दबाव बनायेगा।

काबुल में भारतीय दूतावास पर हक़्क़ानी नेटवर्क के हमले के 8 साल बाद इस सैन्य प्रमुख की इस तरह की बात का कोई मतलब नहीं रह गया है। यह शर्म और डूब मरने की बात है कि भारत की अफ़ग़ान नीतियां अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी रणनीतियों के साथ-साथ चल रही हैं, भारत की यह नीति अमिरिकी रणनीतियों पर इस हद तक निर्भर है कि प्रधानमंत्री मोदी कथित तौर पर डीसी में क्वाड शिखर सम्मेलन से अलग से राष्ट्रपति बाइडेन के साथ चर्चा करने को लेकर बेतरह बेताब हैं कि आख़िर मौजूदा परिस्थितियों में समन्वय को किस तरह मज़बूत किया जाये।

बहरहाल,सवाल उठता है कि अंतरिम सरकार में मनोनीत विदेश मंत्री मौलावी अमीर ख़ान मुत्ताक़ी आख़िर है कौन?

1989 से 1992 तक अफगानिस्तान पर अमेरिका के विशेष दूत रहे राजदूत पीटर टॉमसन ने अपनी क्लासिक किताब, ‘द वॉर्स ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान: मेसेनिक टेररिज़्म, ट्राइबल कन्फ़्लिक्ट्स एंड द फ़ेल्योर ऑफ़ ग्रेट पॉवर्स’ में लिखा है कि तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने निजी तौर पर नवंबर 2001 या उसके आस-पास अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश को उस कुंदुज से एक वीआईपी एयरलिफ्ट को लेकर मांग की थी, जिसे 9/11 के हमलों के सिलसिले में राशिद दोस्तम (अमेरिकी विशेष बल समर्थित) की अगुवाई में उत्तरी गठबंधन मिलिशिया ने घेर लिया था।

ज़ाहिर है कि बुश और उपराष्ट्रपति डिक चेनी ने मुशर्रफ़ के उस निजी अनुरोध को स्पष्ट रूप से मंज़ूर कर लिया था। जाने-माने खोजी पत्रकार सीमोर हर्श ने बाद में सीआईए के पूर्व सूत्रों से मिली जानकारी के आधार पर लिखा कि अमेरिकी मध्य कमान ने पाकिस्तानी सैन्य उड़ानों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कुंदुज से बाहर एक विशेष हवाई गलियारा स्थापित किया था।

पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर के चित्राल और गिलगित में कुंदुज एयरलिफ़्ट (जिसे "एयरलिफ़्ट ऑफ एविल" के नाम से भी जाना जाता है) में अल-क़ायदा के सदस्यों सहित क़रीब एक हज़ार लोगों को निकाला गया था। दिलचस्प बात है कि इस तरह निकाले गये वीआईपी में एक वीआईपी मौलावी अमीर ख़ान मुत्ताक़ी भी था, इसके अलावा,इनमें वरिष्ठ पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी भी थे। आईएसआई को मुत्ताक़ी में आने वाले दिनों की बड़ी संभावना दिखी थी !

सवाल है कि क्या पाकिस्तान इन सब सचाइयों से बच पायेगा ? यह अंतरिम सरकार आसानी से तो नहीं चल पायेगी, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वह कमज़ोर होगी या चल ही नहीं पायेगी, हालांकि इसे फिर से बनाया जा सकता है। तेहरान और मास्को (और शायद बीजिंग भी) जैसी क्षेत्रीय राजधानियों से प्रतिक्रियायें तो ज़रूर होंगी,क्योंकि उन्हें पाकिस्तान की अपनी तरह की व्याख्या वाली "समावेशी सरकार" के ज़रिये धोखे में रखा जा रहा है।

पाकिस्तान इस संभावना को टटोलते हुए आगे बढ़ने की हिम्मत कर रहा है कि एक बार जब हालात ठीक हो जायेंगे, तो अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगी तालिबान के साथ जुड़ जायेंगे। इस ख़्याल से 3 सितंबर को ब्रिटेन के विदेश सचिव डॉमिनिक रब की इस्लामाबाद का दौरा निर्णायक रहा।  

जनरल हमीद ने 5 सितंबर को काबुल के लिए उड़ान भरी थी। हमने 7 सितंबर तक उसके राजनीतिक संदेश पर  तालिबान की प्रतिक्रिया पहले ही देख ली थी।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Taliban Get a Government!

Haqqani Network
Pakistan
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