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विपक्षी एकता में ही है देश की एकता
इतिहास और राजनीति की गहरी समझ रखने वाले लोग यह महसूस करने लगे हैं कि भारत में आज जो कुछ हो रहा है उसका परिणाम सिर्फ तानाशाही के रूप में नहीं होगा बल्कि उसका परिणाम देश के विखंडन के रूप में भी होगा। यहां बाल्कन देशों जैसी स्थिति निर्मित हो रही है।
अरुण कुमार त्रिपाठी
29 Jul 2021
विपक्षी एकता में ही है देश की एकता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मन की बात में देश की एकता की बात कर रहे हैं। लेकिन वे यह नहीं बताते कि एकता का यह आधार क्या होगा? आखिर देश की यह एकता बहुसंख्यकवाद के आधार पर बनेगी? या व्यक्तियों और संस्थाओं के दमन और जासूसी के आधार पर बनेगी? या उसका आधार महज वह आर्थिक सुधार होगा जो अपनी तीस साल की यात्रा के बाद पूरी दुनिया में या तो लड़खड़ा रहा है या विफल हो चुका है? या फिर देश की वह एकता उसकी विविधता के आधार पर बनेगी? क्या देश की एकता का आधार समता और समृद्धि नहीं हो सकती? क्या देश की एकता का आधार पारदर्शिता, जवाबदेही और बंधुत्व नहीं हो सकता? क्या देश की एकता का आधार लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति आदर और सम्मान नहीं हो सकता? जिनके भीतर देश के लिए सकारात्मक भावना नहीं है वे ही विपक्षी एकता के प्रयास को अराजकतावादी और नकारात्मक प्रयास बता रहे हैं।  इसी दौरान दिल्ली में विपक्षी एकता का प्रयास कर रही ममता बनर्जी ने यह कहकर एक उम्मीद पैदा की है कि विपक्षी एकता अपने आप होगी। यानी जहां निर्वात पैदा होगा वहां हवा अपने आप जाएगी।

यह विडंबना की बात है कि इस देश की आजादी के साथ ही विपक्ष की स्थिति कमजोर रही है। भारतीय लोकतंत्र का जन्म ही कमजोर विपक्ष के साथ हुआ और बीच में उतार चढ़ाव के साथ वह मजबूत हुई लेकिन आखिरकार इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में वह फिर कमजोर स्थिति में आ चुका है। इसका दोष भारतीय समाज के मानस को भी दिया जा सकता है और उसकी संस्थाओं की संरचना को भी। संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि देश में नागरिक अधिकारों और लोकतंत्र की स्थिति तभी मजूबत रह सकती है जब विपक्ष मजबूत हो। क्योंकि विपक्ष के कमजोर रहने पर लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने दायित्व ठीक से निभा नहीं पातीं। हालांकि वे प्रयास करती हैं। जैसे न्यायपालिका, मीडिया और कार्यपालिका की अपनी सक्रियता कभी जूडिशियल एक्टिविज्म के रूप में सामने आती है तो कभी मीडिया के आक्रामक रूख और खोजी पत्रकारिता और तो कभी चुनाव आयोग जैसी संस्था के शीर्ष पर टीएन शेषन का अवतार हो जाता है।  

विपक्षी एकता के एक महत्वपूर्ण सूत्रधार डॉ. राममनोहर लोहिया इस देश में कांग्रेस के विरुद्ध विपक्ष निर्माण के लिए बेहद बेचैन थे। उन्होंने यहां तक एलान कर दिया था कि वे कांग्रेस के खिलाफ शैतान से हाथ मिला लेंगे। यह उनकी झुंझलाहट थी और उन्होंने ऐसा किया भी। उस समय जनसंघ समाजवादियों और कम्युनिस्टों के लिए भी एक अछूत पार्टी थी लेकिन संयुक्त विधायक दल के माध्यम से उन्होंने सात राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकार बनवा दी थी। संयोग से उन संविद सरकारों में एक ओर जनसंघ थी तो दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी भी। भले विपक्षी दलों की वे गैर कांग्रेसी सरकारें ज्यादा दिन नहीं चलीं लेकिन उससे देश में एक हौसला कायम हुआ कि कांग्रेस का विकल्प तैयार हो सकता है।

आज देश में उसी साहस, कल्पनाशीलता और जोखिम की जरूरत है। आज भारतीय जनता पार्टी उसी तरह से सत्ता पर कायम है जैसे, पचास और साठ के दशक में कांग्रेस पार्टी कायम थी। इसलिए इस एकाधिकार का विकल्प भी उसी जज्बे से बनेगा जिस भावना से डॉ. लोहिया ने कांग्रेस का विकल्प तैयार किया था या जिस जज्बे से जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की तानाशाही को उखाड़ फेंका था। अगर डॉ. लोहिया कहते थे कि मैं जानता हूं कि मैं पहाड़ से टकरा रहा हूं और इससे मेरा सिर फूटेगा लेकिन इससे पहाड़ में दरार भी पड़ेगी। वैसे ही जब हिरासत में जेपी की किडनी खराब हो गई तो उन्होंने एक अधिकारी से कहा कि मेरी सेहत खराब है लेकिन मेरी सेहत से ज्यादा देश की सेहत जरूरी है।

संयोग से विपक्षी एकता के लिए अथक प्रयास करने वाले वे राजनेता राष्ट्रीय एकता के लिए भी अति समर्पित थे। डॉ. लोहिया जो कुछ करते थे उसका प्रमुख उद्देश्य लोकतांत्रिक ढंग से राष्ट्रनिर्माण ही रहता था। बल्कि पिछड़ी और दलित जातियों के लिए सामाजिक न्याय का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा था कि अगर आजादी की लड़ाई उन जातियों के नेतृत्व में लड़ी गई होती तो शायद देश का विभाजन न होता। हालांकि उनके इस कथन पर आज की स्थितियां कई सवाल पैदा करती हैं। पर वह समता और एकता की एक दृष्टि थी जिसे आज भी अप्रासंगिक कहना ठीक नहीं होगा।

इसलिए आज जो भी नेता विपक्षी एकता का प्रयास कर रहे हैं उन्हें देश की जनता के सामने यह साबित करना होगा कि मोदी की शैली में कायम की जा रही राष्ट्रीय एकता न सिर्फ विपक्ष को तोड़ रही है बल्कि वह समाज और देश को भी तोड़ रही है। वह लोकतांत्रिक संस्थाओं को नष्ट कर रही है और असत्य को वैधता दे रही है। इतिहास और राजनीति की गहरी समझ रखने वाले लोग यह महसूस करने लगे हैं कि भारत में आज जो कुछ हो रहा है उसका परिणाम सिर्फ तानाशाही के रूप में नहीं होगा बल्कि उसका परिणाम देश के विखंडन के रूप में भी होगा। यहां बाल्कन देशों जैसी स्थिति निर्मित हो रही है। मामला सिर्फ असम और मिजोरम जैसे पूर्वोत्तर राज्यों के बीच मचे सीमा विवाद का ही नहीं है यह विवाद देश के विभिन्न समुदायों और जातियों के बीच सुलग रहा है।

लेकिन विडंबना यह है कि इस देश का सत्तापक्ष और उसका ठकुरसोहाती करने वाला मीडिया न तो सत्ता पक्ष के चरित्र का विश्लेषण संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों के आधार पर और न ही विपक्ष का। यह सही है कि मीडिया को पालिमिक्स करनी पड़ती है और सामग्री को रोचक बनाने की एक शैली है। लेकिन उस पालिमिक्स की भाषा का भी एक स्तर होता है जो अब और कितना गिरेगा कहा नहीं जा सकता। सवाल महज भाषा के गिरने का नहीं है, सवाल उस सोच के गिरने का है जिसमें सत्य, शालीनता और लोककल्याण मीडिया के आवश्यक मूल्य होने चाहिए पर वे सिरे से नदारद हैं।

विपक्षी एकता के आज के जो मूल्य हो सकते हैं वे किसान मजदूर एकता, सबकी आर्थिक उन्नति, सौहार्द और विकेंद्रीकरण के रूप में चिह्नित किए जा सकते हैं। इन्हें अगर संवैधानिक भाषा में कहा जाए तो वे स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के मूल्य हैं जिसमें मानवीय गरिमा शामिल है। जाहिर सी बात है यह सब राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय के बिना संभव नहीं है। किसान आंदोलन ने देश के विपक्षी दलों के सामने एक मॉडल पेश किया है कि 300 संगठनों और नेताओं के बावजूद अगर लक्ष्य बड़ा है तो लंबे समय तक एक साथ चल पाने में कोई मुश्किल नहीं है।

इस दौरान विपक्षी दलों को अराजकतावादी, विखंडनवादी, संकीर्ण क्षेत्रीय दृष्टि वाला और भ्रष्ट भी कहा जाता रहेगा। लेकिन अगर उनका लक्ष्य महान है तो वे जल्दी ही यह साबित कर देंगे कि भारत जैसे विविधता वाले देश की एकता वे ही कायम कर सकते हैं। जो लोग यह कह रहे हैं कि विडंबना है कि विपक्षी एकता की पहल तृणमूल कांग्रेस जैसा क्षेत्रीय दल कर रहा है और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी नहीं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पहले भी विपक्षी एकता की कोशिशें कभी आंध्र प्रदेश से हुई हैं तो कभी जनता दल की तरफ से। भाजपा अपनी छवि के कारण ऐसा प्रयास कम करती रही है। वह अक्सर पिछलग्गू रही है। कांग्रेस का कमजोर होना या बिखरना एक बड़ा सवाल जरूर है लेकिन वह उतना बड़ा सवाल नहीं है जितना बड़ा सवाल देश के लोकतंत्र का बिखरना और उसकी एकता का भीतर से टूटना। इसलिए देश की एकता की गारंटी विपक्षी एकता से ही आ सकती है न कि मोदी जी की दिखावटी एकता कायम करने वाली मन की बात से।

 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)  

PM MODI
opposition unity
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TMC
NCP
CPI(M)
CPI

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