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किसानों और सत्ता-प्रतिष्ठान के बीच जंग जारी है
इस पूरे दौर में मोदी सरकार के नीतिगत बचकानेपन तथा शेखचिल्ली रवैये के कारण जहाँ दुनिया में जग हंसाई हुई और एक जिम्मेदार राष्ट्र व नेता की छवि पर बट्टा लगा, वहीं गरीबों की मुश्किलें भी बढ़ गईं तथा किसानों को नुकसान हुआ।
लाल बहादुर सिंह
21 May 2022
kisan

गेहूं निर्यात के सवाल पर सरकार के अचानक पलटी मारने और विरोधाभासी फैसलों से एक बार फिर यह साबित हुआ कि सरकार के पास बुनियादी महत्व के राष्ट्रीय प्रश्नों पर हालात का न तो कोई ठोस आंकलन है, न सुचिंतित नीति और न ही जनता के प्रति संवेदनशीलता, चाहे वह खाद्यान्न सुरक्षा जैसा अतिसंवेदनशील मुद्दा ही क्यों न हो। यह उसकी अर्थनीति की दिशा और राजनीति की प्राथमिकताओं का सीधा परिणाम है।

इस प्रश्न पर मोदी सरकार के हालिया फैसलों को विश्लेषक नोटबन्दी, flawed GST, कोविड के दौरान अचानक लॉक डाउन के misadventures व तुगलकी फैसलों की ही श्रेणी में  रख रहे हैं।

इस पूरे दौर में मोदी सरकार के नीतिगत बचकानेपन तथा शेखचिल्ली रवैये के कारण जहाँ दुनिया में जग हंसाई हुई और एक जिम्मेदार राष्ट्र व नेता की छवि पर बट्टा लगा, वहीं गरीबों की मुश्किलें भी बढ़ गईं तथा किसानों को नुकसान हुआ।

दरअसल इस वर्ष  मार्च-अप्रैल में पड़ी रिकॉर्डतोड़ गर्मी के कारण गेहूं पतला और हल्का हो गया और उत्पादन घट गया। पहले अनुमान था कि इस वर्ष 11.1 करोड़ टन गेहूं उत्पादन होगा, लेकिन अब ताजा आंकलन के अनुसार कुल उत्पादन 10 करोड़ टन से भी कम रह जायेगा। सरकार ने इस साल किसानों से सरकारी खरीद बेहद कम की। पिछले साल के 4.4 करोड़ टन से घटकर यह 1.8 करोड़ टन रह गयी।

यूक्रेन संकट के कारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कीमत बढ़ गयी। मोदी सरकार ने इसका लाभ उठाने के लिए गेहूं के निर्यात को बड़े पैमाने पर बढ़ा दिया। जहां 2020-21 में 21.55 लाख टन गेहूं निर्यात किया गया था, वहीं 2021-22 में बढ़कर यह 72.15 लाख टन पहुँच गया।

अप्रैल के मध्य तक गेहूं के कम उत्पादन की बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाने और कम सरकारी खरीद होने के बाद भी सरकार निर्यात बढ़ाओ अभियान में लगी रही। न सिर्फ वाणिज्यमंत्री व्यापारियों व निर्यातकों को प्रोत्साहित करने में लगे थे, बल्कि स्वयं प्रधानमंत्री 5 मई तक पूरी दुनिया को गेहूं देने की शेखी बघारते रहे। यहां तक कि 12 मई को वाणिज्य मन्त्रालय ने 7 देशों को export के लिए डेलीगेशन भेजे।

बहरहाल, अंधाधुंध निर्यात का नतीजा यह हुआ था कि घरेलू  खाद्य भंडार प्रभावित होने लगा। कम खरीद के कारण सरकार के पास अपनी योजनाओं (PDS, मिड-डे मील, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना) के लिए भी पर्याप्त गेहूं नहीं बचा। गेहूं के स्टॉक में कमी के कारण मोदी सरकार उन इलाकों में चावल बांटने के लिए बाध्य हो गई जहां पहले गेहूं बांटा जाता था। 30 से 70 लाख टन गेहूं जो सस्ते दाम पर सरकारें बाजार में बेचती थीं ताकि बाजार में आटे का दाम न चढ़े, वह भी उसके पास नहीं बचा, उधर स्टॉकिस्ट जमाखोरी करने लगे जिससे बाजार में आटे का दाम बढ़ने लगा।

गरीबों को मुफ्त और सस्ते अनाज की सौगात को चुनावी जीत का मंत्र बना चुकी सरकार  panic mode में आ गयी और  पलटी मारते हुए उसने गेहूं का निर्यात अचानक बंद करने का एलान कर दिया। इससे अगले ही दिन मंडियों में गेहूं का दाम 100 रुपये प्रति क्विंटल गिर गया। नई अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति के कारण निर्यात बढ़ने से किसानों को जो कुछ अच्छा दाम मिल रहा था, अब वे उससे वंचित हो गए। कम उत्पादन और बढ़ी लागत की मार तो वे पहले से झेल ही रहे हैं।

इसे लेकर किसान नेताओं और कृषि विशेषज्ञों में एक तरह का विभाजन भी दिख रहा है। जहां कृषि के कारपोरेटीकरण के पैरोकार, 3 कृषि कानूनों के सूत्रधार अशोक गुलाटी जैसे अर्थशास्त्री सरकार के फैसले की आलोचना कर रहे हैं, वहीं देविंदर शर्मा जैसे लोगों ने निर्यात पर रोक को खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से सही करार दिया । 

किसान नेताओं का एक हिस्सा खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों और गरीबों के लिये उसकी उपलब्धता सुनिश्चित करने के मद्देनजर निर्यात पर रोक को जरूरी मानता है। वहीं राकेश टिकैत और योगेन्द्र यादव आदि ने निर्यात पर रोक की आलोचना की है, हालांकि उनका प्रस्थान बिंदु किसानों के हितों के प्रति सरकार की संवेदनहीनता है और किसानों को कैसे कुछ लाभ हो, इसकी ही चिंता है।

बहरहाल, यह पूरी स्थिति सरकार की नीतिगत असफलता और किसानों तथा गरीबों के प्रति उसकी संवेदनहीनता तथा बड़ी बड़ी कम्पनियों के प्रति पक्षधरता का नतीजा है।

सरकार ने अगर किसानों को पर्याप्त बोनस देकर, बड़े पैमाने पर सरकारी खरीद की होती, उसके पास प्रचुर मात्रा में सरकारी स्टॉक होता, तब वह गरीबों के लिए खाद्यान्न और घरेलू बाजार में समुचित कीमतों को भी सुनिश्चित कर सकती थी और और सरप्लस अनाज का उचित अनुपात में निर्यात भी, जिससे किसानों को कुछ अच्छी कीमत मिल पाती। साथ ही इस तरह अचानक पलटी मारने से अंतरराष्ट्रीय जगत में हुई जग हंसाई से भी वह बच जाती।

आज अंधाधुंध बढ़ती लागत और वाजिब कीमत पर सरकारी खरीद न होने से किसानों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है और स्थानीय स्तर पर तमाम राज्यों में वह आंदोलन के रूप में फूट रहा है।

हाल ही में अपने गढ़ पंजाब में किसान-आंदोलन ने एक बार फिर ताकत दिखाई है और पंजाब सरकार को दिल्ली- आंदोलन के दौर का संकल्प और तेवर दिखाकर एक दिन में घुटने पर ला दिया।

मुख्यमंत्री मान ने शुरू में कुछ राजसी ठसक दिखाई लेकिन किसानों के तीखे तेवर देख उन्होंने उनकी मांगें मानने में ही भलाई समझी। दरअसल किसानों के भारी समर्थन के बल पर ही आप पार्टी को हाल ही में प्रचंड बहुमत मिला है। जाहिर है चुनाव के तुरन्त बाद किसानों के मुंह फेरने से सरकार की पूरी जमीन ही खिसक जाती, जबकि  उसका कार्यकाल अभी शुरू ही हुआ है।

चंडीगढ़-मोहाली बॉर्डर पर धरना देकर बैठे किसानों की लड़ाई में दिल्ली आंदोलन की स्पिरिट गूंजती रही। किसान 200 ट्रॉलियों में राशन और तमाम जरूरी सामान लेकर धरने पर पहुंचे थे।

वे गर्मी से उपज कम होने की क्षतिपूर्ति के लिए प्रत्येक कुंटल गेहूं पर 500 रुपये का बोनस मांग रहे थे, उनकी प्रमुख मांगे थीं- मक्का और मूंग के लिए सरकार एमएसपी को लेकर अधिसूचना जारी करे, गन्ने का बकाया भुगतान जल्द से जल्द किया जाए और स्मार्ट इलेक्ट्रिसिटी मीटर लगाए जाएं। किसान पंजाब सरकार द्वारा धान की रोपाई की अनुमति 18 जून से देने के फैसले के भी खिलाफ थे।

किसानों पर मुख्यमंत्री भगवंत मान की इस धमकी और सलाह का कोई असर नहीं पड़ा कि नारेबाजी करने से कुछ नहीं होगा और किसान कम से कम 1 साल तक उनका साथ दें।

किसानों के time-bound अल्टीमेटम और आगे कूच की धमकी को देखते हुए अंततः सरकार को उनकी मांगे मांगनी पड़ी।

यह पंजाब में विधानसभा चुनाव के समय से पैदा हुए विभ्रम और बिखराव से आगे बढ़ते हुए आंदोलन के reorganise होने का संकेत है और पूरे किसान-आंदोलन के लिए शुभ संकेत है। जाहिर है इससे पूरे देश में किसानों का मनोबल बढ़ेगा।

मोदी सरकार MSP पर अपनी वायदा-खिलाफी के विरुद्ध आने वाले दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर किसान-आंदोलन के पुनः उभार की संभावना से सशंकित है। इसीलिये वह किसान-आंदोलन व संगठनों को कमजोर करने की कोशिश में लगी हुई है।

हाल ही में टिकैत यूनियन को तोड़ने का घिनौना खेल सामने आया है। राकेश टिकैत की भारतीय किसान यूनियन से अलग होकर अपनी अलग यूनियन बनाने वालों ने तानाशाही वगैरह के और जो भी आरोप लगाए हों और उनमें जो भी सच हो, पर split के पीछे मूल कारण उन्होंने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया कि BKU ने विधानसभा चुनाव में अराजनीतिक न रहकर भाजपा के विरुद्ध stand लिया, इसके विरोधस्वरूप वे अलग होकर अपनी अराजनीतिक यूनियन बना रहे हैं ! मजेदार यह है कि राकेश टिकैत के अनुसार इन "अराजनीतिक" splitters में से कई भाजपा के विरुद्ध विपक्षी गठबंधन से टिकट पाकर चुनाव लड़ने के इच्छुक थे! UP में भाजपा की सरकार पुनः बन जाने के बाद उनके अब पलटी मारने के पीछे राकेश टिकैत के अनुसार कुछ "दबाव" और "मजबूरियां" हो सकती हैं। 

इसी बीच किसान-आंदोलन के अनन्य योद्धा गुलाम मोहम्मद जौला का 81 वर्ष की आयु में निधन हो गया।

पहले चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के सहयोद्धा के रूप में और फिर पिछले साल चले ऐतिहासिक किसान-आंदोलन के एक बेहद नाजुक मोड़ पर राकेश टिकैत के साथ मजबूती से खड़े होकर किसान-आंदोलन की रक्षा तथा साम्प्रदायिक सौहार्द को मजबूत करने में अपनी महती भूमिका के लिए वे हमेशा याद रखे जाएंगे! बताते हैं "हर हर महादेव-अल्ला हू अकबर" का बहुचर्चित नारा जो किसानों की एकता और उनके संघर्ष का प्रतीक बन गया था, वह जौला साहब ने शामली के बिजलीघर के पहले आंदोलन से उठाया था जहाँ शहीद हुए हिन्दू और मुस्लिम  किसानों के सम्मान में सारे किसानों ने एक साथ यह उद्घोष किया था।

आज के नाजुक दौर में, जब किसानों को और पूरे समाज को साम्प्रदायिक आधार पर बांटने वाली ताकतें युद्धस्तर पर सक्रिय हैं, उम्मीद है कि किसान उस भाईचारे की, जिसके लिए जौला साहब जिये और मरे, हर हाल में रक्षा करेंगे तथा सत्ता की हर चाल और दमन को नाकाम कर पुनः संगठित होता हुआ किसान आंदोलन एक बार फिर नई ऊंचाई पर पहुंचेगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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