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विचार: बिना नतीजे आए ही बहुत कुछ बता गया है उत्तर प्रदेश का चुनाव
उत्तर प्रदेश चुनाव का संकेत स्पष्ट है। उत्तर प्रदेश और देश पर शासन करने वाली सबसे ताकतवर पार्टी भाजपा के लिए मुस्लिम समुदाय न केवल अस्पृश्य है बल्कि उसे वह देश के लिए एक समस्या के रूप में प्रस्तुत कर रही है।
डॉ. राजू पाण्डेय
22 Feb 2022
up elections

उत्तर प्रदेश चुनाव का नतीजा कुछ भी हो लेकिन इतना तय है कि साम्प्रदायिक ताकतों का हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का एजेंडा सामाजिक समरसता को एक ऐसी क्षति पहुंचाने की ओर अग्रसर है जिसकी भरपाई बहुत कठिन है। उत्तर प्रदेश में चुनाव की प्रक्रिया जारी है किंतु कुछ निष्कर्ष अभी से निकाले जा सकते हैं।

देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी तथा केंद्र एवं उत्तर प्रदेश में सत्तासीन भाजपा की राजनीति में अल्पसंख्यकों और खास तौर पर मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है। यूपी में मुस्लिम वोटर लगभग 19 फीसदी हैं और  403 विधानसभा सीटों में करीबन 120 पर इनकी निर्णायक भूमिका है, इसके बावजूद भाजपा न केवल इन्हें नजरअंदाज कर रही है बल्कि वह इनका राजनीतिक बहिष्कार कर  गौरवान्वित भी है और उसके चुनाव प्रचार की आक्रामकता यह दर्शाती है कि वह इन्हें महत्वहीन और गौण बनाने के लिए कितनी व्यग्र है।

भाजपा उत्तर प्रदेश चुनाव को मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष की भांति प्रस्तुत कर रही है। हाल ही में तेलंगाना के विधायक टी राजा सिंह के बयान का सीधा अर्थ यही है कि मुसलमानों का ध्रुवीकरण हो चुका है और यह हिंदुओं के लिए यह एक चेतावनी है। हिंदुओं को भी योगी के लिए शत प्रतिशत मतदान करना होगा। हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति भय एवं संशय उत्पन्न करना भाजपा की रणनीति का केंद्रीय भाव है। भाजपा जानती है कि बहुसंख्यक वर्ग  असुरक्षा एवं डर की भावना के वशीभूत होकर ही हिंसक हिंदुत्व की विचारधारा को स्वीकार कर सकता है।

भाजपा और उसके समर्थक हिंदुत्ववादी संगठनों ने मुसलमानों को शत्रु के रूप प्रस्तुत किया है। यह स्वाभाविक है कि मुसलमान उस भाजपा के साथ तो जा नहीं सकता जिसकी राजनीति का मूलाधार ही मुसलमानों के प्रति कटुता है। इस बात में भी कोई आश्चर्य नहीं है कि मुस्लिम मतदाता भाजपा को परास्त करने के लिए संकल्पबद्ध हो रहे हैं; आखिर इस चुनाव के नतीजे  देश में उनके भविष्य की रूपरेखा तय करेंगे।

भाजपा की उग्र हिंदुत्ववादी सोच ने मुसलमानों को संगठित होने के लिए मजबूर किया है किंतु इसका प्रस्तुतिकरण इस प्रकार से किया जा रहा है कि संगठित मुसलमान भारी मतदान द्वारा सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं और हिन्दू यदि उनके षड्यंत्र को न समझे तो बहुसंख्यक होने के बावजूद मुसलमानों की अधीनता उन्हें स्वीकार करनी होगी। 

टी राजा सिंह ने यह भी कहा कि जो लोग बीजेपी को वोट नहीं करते, उनसे कहना चाहूंगा कि योगी जी ने हजारों की संख्या में जेसीबी और बुलडोजर मंगवा लिए हैं। यह सभी यूपी के लिए निकल चुके हैं। चुनाव के बाद ऐसे क्षेत्रों को चिह्नित किया जाएगा, जिन लोगों ने योगी जी को सपोर्ट नहीं किया है। पता है न जेसीबी और बुलडोजर का क्या इस्तेमाल होता है। 

यहाँ टी राजा सिंह कोई नई बात नहीं कह रहे हैं, उनका कथन योगी आदित्यनाथ द्वारा दिए जा रहे बयानों की अगली कड़ी भर है। स्वयं योगी आदित्यनाथ कहते हैं- कैराना और मुजफ्फरनगर में फिर लोग गर्मी दिखा रहे हैं। ये गर्मी जो अभी कैराना और मुजफ्फरनगर में कुछ जगहों पर दिख रही है, शांत हो जाएगी। ये तो मैं मई और जून में भी शिमला बना देता हूं।

भाजपा का लोक कल्याण संकल्प पत्र 2022 भी यह दर्शाता है कि मुसलमानों के प्रति उसकी सोच अधिक संकीर्ण ही हुई है। इसमें कथित लव जिहाद तथा धर्मांतरण रोकने संबंधी कानून को और अधिक कठोर बनाने का जिक्र है। संकल्प पत्र के अनुसार - हम लव जिहाद करने पर कम से कम दस वर्षों की सजा और एक लाख के जुर्माने का प्रबंध सुनिश्चित करेंगे। जब संकल्प पत्र यह कहता है कि हम गुंडे,अपराधी और माफिया के खिलाफ कार्यवाही इसी दृढ़ता से आगे भी जारी रखेंगे तब अल्पसंख्यक समुदाय में यह संदेश जाता है कि योगी आदित्यनाथ की 'ठोक दो' कार्यशैली में बदलाव नहीं आने वाला भले ही इसके माध्यम से समुदाय विशेष को निशाना बनाने के कितने ही आरोप क्यों न लगें और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता इन एनकाउंटरों पर कितनी ही आपत्तियां क्यों न दर्ज करायें।

संकल्प पत्र की भूमिका में योगी आदित्यनाथ लिखते हैं- "यह चुनाव आस्थाओं के सम्मान का चुनाव है, इस प्रदेश की गौरवशाली सनातन संस्कृति के सम्मान का चुनाव है।" शायद यही कारण है कि "सांस्कृतिक धरोहर एवं विकसित पर्यटन" उप शीर्षक के तहत किए गए 16 वादे केवल हिन्दू धार्मिक स्थलों को पर्यटन केंद्रों के रूप में विकसित करने से संबंधित हैं। इनमें उन ऐतिहासिक धरोहरों का कोई जिक्र नहीं है जिनका संबंध मुस्लिम समुदाय से है। भाजपा के इस संकल्प पत्र में "सबका साथ सबका विकास" उपशीर्षक भी है जिसके अंतर्गत किए गए 17 वादों में मुस्लिम समुदाय को छोड़कर लगभग हर समुदाय के लिए कुछ न कुछ है। 

योगी आदित्यनाथ का वह बयान भी विवादित हुआ जिसमें उन्होंने कहा था- ये चुनाव 80 बनाम 20 का होगा। 80 फ़ीसदी समर्थन एक तरफ़ होगा, 20 फ़ीसदी दूसरी तरफ होगा। यद्यपि विवाद बढ़ने पर उन्होंने स्पष्टीकरण देते हुए कहा-ये क्रिया की प्रतिक्रिया है। मैंने कहा कि 80 प्रतिशत बीजेपी के साथ होगा, 20 प्रतिशत हमेशा विरोध करता है और वो करेगा भी। लेकिन इस 20 प्रतिशत की ओर भाजपा के एक ट्वीट में भी संकेत किया गया था- "जो तुष्टीकरण और वोटबैंक की राजनीति करते हैं वो बस 20% की बात कर रहे हैं।"

अनेक राजनीतिक विश्लेषकों ने आदित्यनाथ के बयान की व्याख्या करते हुए कहा कि वे इस चुनाव को 80 प्रतिशत हिंदुओं बनाम 20 प्रतिशत मुसलमानों का संघर्ष मान रहे हैं। इन विश्लेषकों की यह आशंका आधारहीन नहीं है।

देश के गृह मंत्री और पूर्व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश में अपने चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत कैराना से की। इस तरह उन्होंने पिछले चुनाव की भांति ही कैराना से हिंदुओं के कथित पलायन को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की। कैराना की चर्चा हिंदुत्ववादियों को प्रिय है। इससे उनके दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं- पहला तो यह संदेश देना कि जिन स्थानों पर मुसलमान बहुसंख्यक हैं वहाँ वे हिंदुओं का जीना दूभर कर देते हैं और उनके अत्याचारों से तंग आकर हिन्दू पलायन को मजबूर होते हैं; दूसरा यह नैरेटिव बनाना कि षड्यंत्रपूर्वक अपनी आबादी बढ़ा रहे मुसलमान बहुत जल्द इस देश में बहुसंख्यक हो जाएंगे और हिंदुओं को यह देश छोड़ना होगा।

बहरहाल देश के गृह मंत्री केवल हिन्दू परिवारों से मिले, उन्होंने पलायन और कानून व्यवस्था की चर्चा तो की लेकिन चंद कदमों की दूरी पर स्थित मुस्लिम घरों को उन्होंने अनदेखा कर दिया। श्री अमित शाह के चुनाव प्रचार का यह आगाज़ भी संकेत देता है कि उनकी चिंता केवल हिंदुओं को लेकर है और उनकी अपेक्षा भी केवल हिंदुओं से है।

मुसलमानों की तीव्र जनसंख्या वृद्धि का झूठ कई बार उजागर किया जा चुका है। कैराना से हिंदुओं के पलायन का मुद्दा 2016 में पहली बार तत्कालीन बीजेपी सांसद हुकुम सिंह ने उठाया था लेकिन तथ्य उनके साथ नहीं थे और लगभग तत्काल ही उन्हें बैकफुट पर जाना पड़ा था। उनके द्वारा जारी की गई पलायन करने वाले 346 हिंदुओं की सूची में से कुछ नामों की स्वतंत्र समाचार समूहों द्वारा पड़ताल की गई और सूची की विसंगतियों को उजागर किया गया। शामली जिला प्रशासन ने अपनी जांच में बताया कि सूची में 16 मृत व्यक्तियों के नाम थे,7 नाम दो बार आए थे, 179 लोगों ने 4-5 वर्ष पूर्व जबकि 67 लोगों ने दस वर्ष पूर्व कैराना छोड़ा था, 27 अब भी कैराना में ही रह रहे थे, केवल 3 लोग ऐसे थे जिन्होंने धमकी मिलने के बाद पलायन किया था। बाद में नकुल सिंह की डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म "कैराना: सुर्खियों के बाद" से भी यह उजागर हुआ कि बेरोजगारी और बुनियादी सुविधाओं के अभाव ने स्थानीय युवकों को अपराध की ओर मोड़ा और उनकी गतिविधियों के शिकार हिन्दू एवं मुसलमान दोनों बने।

भाजपा के इस हिंदुत्ववादी एजेंडे ने अन्य राजनीतिक दलों को असमंजस में डाल दिया है। वे इसका खुलकर प्रतिकार करने की स्थिति में भी नहीं लगते। उन्हें भय है कि हिन्दू मतदाता उनसे नाराज हो जाएगा। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से ठीक पहले हिंसक हिंदुत्व की हिमायत करने वाले कथित संतों द्वारा देश के विभिन्न भागों में (अ)धर्म संसद का आयोजन किया गया किंतु विपक्षी दल आक्रामक होने के स्थान पर दबे स्वर में इसकी आलोचना करते देखे गए। 

हिन्दू कट्टरवाद और साम्प्रदायिकता ने मुस्लिम कट्टरपंथियों में नई जान फूंक दी है। मौलाना तौकीर रजा ने बरेली में 7 जनवरी को मुस्लिम धर्म संसद का आयोजन किया। तौकीर रज़ा ने अपनी विवादित और विषाक्त तकरीर में कहा, "मैं गांव-गांव जाता हूं, बस्ती-बस्ती देखता हूं कि मेरे नौजवानों के दिलों में जितना गुस्सा पनप रहा है....मैं डरता हूं उस वक्त से जिस दिन मेरे नौजवान का गुस्सा फूट पड़ा..जिस दिन मेरा नौजवान मेरे कंट्रोल से बाहर आ गया। मुझसे बहुत लोग कहते हैं- मियां, तुम तो बुजदिल हो गए हो..तुम कुछ करना नहीं चाहते, लेकिन मैं कहता हूं कि पहले मैं मरूंगा बाद में तुम्हारा नंबर आएगा। इसलिए अपने हिंदू भाइयों से खास तौर पर कह रहा हूं-जिस दिन मेरा ये नौजवान कानून अपने हाथ में ले लेगा तो तुम्हें  हिंदुस्तान में कहीं पनाह नहीं मिलेगी।" मौलाना तौकीर रजा सारे मुसलमानों के निर्विवाद प्रतिनिधि नहीं हैं, न ही उनके विचारों से सारे मुसलमान सहमत हो सकते हैं। किंतु उनका कथन सारे मुसलमानों की राय के रूप में वायरल हो रहा है।

मौलाना तौकीर रजा की इस तकरीर ने हिन्दू नफरतजीवियों को जहर उगलने का मानो लाइसेंस दे दिया है। कांग्रेस मौलाना तौकीर रजा से समर्थन ले रही है। इसलिए कांग्रेस भी हिन्दू कट्टरपंथियों के खास निशाने पर है। विपक्षी दलों के अनेक प्रत्याशी भी यदि घोषित रूप से साम्प्रदायिक नहीं हैं तब भी उन्हें सेकुलर कहना उनको बड़ी रियायत देने जैसा होगा।

राजनीति, सत्ता और शक्ति से निकटता धर्मगुरुओं को भी प्रिय है। यही कारण है कि भाजपा ने हिन्दू धर्मगुरुओं को हिंसक  हिंदुत्व का उपासक बनाने में कामयाबी हासिल की है। जब तक विपक्षी दल भी धर्मगुरुओं के सम्मुख शरणागत होते रहेंगे तब तक सेकुलर राजनीतिक विकल्प की आशा करना व्यर्थ है। देश के मतदाता ने अनेक बार धर्म को उसकी सीमाएं बताई हैं किंतु अब उसके पास विकल्पों का अभाव होता जा रहा है- लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल की संरचना में धर्म के जीन मौजूद हैं- कुछ में ये विशुद्ध हैं, कुछ में संकर तो अन्य में ये किंचित उत्परिवर्तन के साथ उपस्थित हैं। साम्प्रदायिक विद्वेष हमारे देश की एक कड़वी सच्चाई है। किंतु यह देश की राजनीति के संचालन का केंद्रीय भाव बन जाएगा, इसकी कल्पना नहीं थी। साम्प्रदायिकता से जुड़ी विद्वतापूर्ण बहसों से परे सच्चाई यह है कि इससे मरने और तबाह होने वाला आम आदमी ही होता है तथा इसका लाभ केवल राजनेताओं को मिलता है। धर्म को लेकर होने वाली गूढ़ तात्विक चर्चाओं से दूरी बनाते हुए इसके आकलन के लिए एक सहज सूत्र अपनाया जा सकता है- धर्म के नाम से पुकारी जाने वाली कोई भी जीवन पद्धति यदि मनुष्य को मनुष्य से लड़ने का संदेश देती है तो वह त्याज्य है।

बहरहाल उत्तर प्रदेश चुनाव का संकेत स्पष्ट है। उत्तर प्रदेश और देश पर शासन करने वाली सबसे ताकतवर पार्टी भाजपा के लिए मुस्लिम समुदाय न केवल अस्पृश्य है बल्कि उसे वह देश के लिए एक समस्या के रूप में प्रस्तुत कर रही है। अन्य राजनीतिक दल भाजपा के हिंदुत्व को नकारने के बजाए उसका मृदु संस्करण गढ़ने में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निरंतर उकसाया जा रहा है कि हिन्दू साम्प्रदायिकता का उत्तर मुस्लिम साम्प्रदायिकता से दें। लोकतंत्र बहुसंख्यक वर्चस्व का उद्घोष नहीं है, न ही इसे बहुमत की तानाशाही बनने दिया जा सकता है। राजनीति विज्ञान  का एक अतिसामान्य अध्येता भी यह जानता है कि जिस देश में अल्पसंख्यक सुरक्षित और खुशहाल रहते हैं वह देश प्रगति और विकास के मानकों पर अच्छा प्रदर्शन करता है और उस देश का लोकतंत्र सुदृढता एवं स्थायित्व प्राप्त करता है। इसके विपरीत अल्पसंख्यकों का दमन करने वाले और धर्म को सत्ता संचालन का आधार बनाने वाले देश विकास की दृष्टि से तो पिछड़ते हैं ही इनमें लोकतंत्र भी जीवित नहीं रह पाता। जब तक राजनीति के विमर्श में धर्मांधता और कट्टरता को महत्व मिलता रहेगा तब तक हमारे लोकतंत्र पर संकट बना रहेगा।

(लेखक स्वतंत्र विचारकर और टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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