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भारत
राजनीति
बिहार में कुपोषण-बदहाली झेलते गांवों से कह दिया कि अब तुम शहर हो
सिर्फ़ मान्यता बदल देने से गांव शहर नहीं हो जाते। राज्य में कई जगह इस फैसले का विरोध हो रहा है। लोग कह रहे हैं कि उन्हें कोई सुविधा तो मिलेगी नहीं, इसके उलट ग्रामीण क्षेत्र के लिए संचालित होने वाली कई योजनाओं से हाथ धोना पड़ेगा।
पुष्यमित्र
03 Jan 2021
बिहार
प्रतीकात्मक तस्वीर l

2020 के आखिरी दिनों में बिहार सरकार ने सैकड़ों गांवों को शहर का रुतबा दे दिया और अचानक राज्य में 125 नये शहर हो गये। लेकिन इस घोषणा से वे लोग बिल्कुल खुश नजर नहीं आ रहे जो पहले ग्रामीण क्षेत्र के वासी थे, अब शहरी हो गये हैं। वे कह रहे हैं, सिर्फ मान्यता बदल देने से गांव शहर नहीं हो जाते। राज्य में कई जगह इस फैसले का विरोध हो रहा है। लोग कह रहे हैं कि उनके इलाके की 60 से 90 फीसदी तक आबादी अभी भी खेती पर निर्भर है, जो शहरी वर्गीकरण के नियमों के खिलाफ है। गांव से शहर बन जाने पर उन्हें कोई सुविधा तो मिलेगी नहीं, इसके उलट ग्रामीण क्षेत्र के लिए संचालित होने वाली कई योजनाओं से हाथ धोना पड़ेगा। जानकार बताते हैं कि यह फैसला सिर्फ इस मकसद से लिया गया है, ताकि राज्य की शहरी आबादी का आकार बढ़ाया जा सके।

26 दिसंबर, 2020 की बिहार सरकार की कैबिनेट की बैठक में पहले 103 नगर पंचायत और आठ नये नगर परिषद की घोषणा की गयी। बाद में 14 अन्य नगर पंचायतों की घोषणा की गयी। ये सभी इलाके पहले ग्राम पंचायत थे। कई ग्राम पंचायतों को जोड़ कर नगर पंचायत और नगर परिषद बनाये गये हैं। जिससे एक झटके में राज्य के सैकड़ों गांव शहर बन गये। इस फैसले को बिहार सरकार शहरीकरण को बढ़ावा देने वाला फैसला बता रही है। आंकड़े भी इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि इस फैसले से पहले जहां राज्य की सिर्फ 11.27 फीसदी आबादी शहरों में रहती थी, जो देश में सबसे कम थी। अब यह आबादी बढ़कर तकरीबन 20 फीसदी हो जायेगी। हालांकि अभी भी यह देश के औसत से काफी पीछे है। देश में इस वक्त 31.16 फीसदी आबादी शहरों में रहती है।

राज्य सरकार जहां इस फैसले पर अपनी ही पीठ थपथपा रही है और कह रही है कि गांव से शहर बनने पर इन इलाकों का तेजी से विकास होगा। मगर लोग अमूमन इस फैसले से खुश नहीं हैं। उन्हें ग्रामीण से शहरी बन जाने पर कोई खुशी नहीं है, बल्कि वे नाराज ही हैं और जगह-जगह इस फैसले का विरोध हो रहा है। राजधानी पटना से सटे बिहटा इलाके में जहां पिछले कुछ वर्षों में शहरीकरण शुरू हुआ है, उसे ग्राम पंचायत से सीधे नगर परिषद बना दिया गया है। उसके साथ आसपास के कई ग्राम पंचायतों को भी जोड़ दिया गया है, जहां अभी भी लोग खेतिहर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वहां के मुखिया और अन्य जनप्रतिनिधियों ने बैठक कर इस फैसले का विरोध किया है। ऐसा ही विरोध मोतिहारी में रतनपुर, सिंघिया और अजगरी के लोग कर रहे हैं। ग्रामीणों ने टायर जला कर इस फैसले का विरोध किया है। वे कह रहे हैं कि उनके गांव की 90 फीसदी आबादी खेती पर निर्भर है। मधुबनी के बेनीपट्टी में भी जनप्रतिनिधियों ने बैठक कर इस फैसले का विरोध किया। दरभंगा के बिरौल में भी विरोध हो रहा है। शेखपुरा में भी छह पंचायत के लोग इस फैसले का विरोध कर रहे हैं, जिन्हें दो अलग-अलग नगर परिषदों में शामिल किया गया है।  

ये तो उन विरोधों की सूची है, जहां गांव के लोग प्रदर्शन कर रहे हैं। इसके अलावा अमूमन हर जगह लोग इस फैसले से नाराजगी जता रहे हैं। लोगों की यह प्रतिक्रिया बता रही है कि उन्हें इस बात पर बिल्कुल भरोसा नहीं है कि गांव से शहर बन जाने के बाद उनके इलाके का विकास हो जायेगा, उन्हें लगता है कि इससे सिर्फ उन पर करों का बोझ बढ़ेगा और उन्हें मनरेगा जैसी कई कल्याणकारी योजनाओं से हाथ धोना पड़ेगा।

लोगों की इस नाराजगी की वजह को समझने के लिए हमने जब पटना स्थित टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के प्राध्यापक पुष्पेंद्र जी से बात की तो उन्होंने कहा कि अमूमन शहरी क्षेत्र की परिभाषा यह मानी जाती है कि वहां पांच हजार से अधिक की आबादी हो, आबादी का घनत्व 400 व्यक्ति प्रति किमी हो और वहां की 75 फीसदी से अधिक आबादी गैर कृषि कार्यों से आजीविका हासिल करती हो। हालांकि यह परिभाषा काफी पुरानी है और इसमें बदलाव की जरूरत है। क्योंकि अब तो पांच हजार की आबादी लगभग हर ग्राम पंचायत की हो गयी है। और बिहार में आबादी का घनत्व इतना है कि कई जगह 400 व्यक्ति प्रति किमी के हिसाब से लोग बसे दिख जायेंगे। इसके बावजूद जब हम इन मानकों को भी देखते हैं तो पाते हैं कि अभी जिन गांवों को शहर बना दिया गया है वहां की गैर कृषि आबादी 30-40 फीसदी भी नहीं है, ऐसे में लोगों का विरोध स्वाभाविक है।

राज्य में सहभागी शोध से जुड़ी संख्या प्रैक्सिस के प्रमुख अनिंदो बनर्जी लोगों की नाराजगी की वजह बताते हुए कहते हैं कि उन्हें मनरेगा और ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से जुड़ी कई योजनाओं से वंचित होना पड़ेगा। शहरी निकायों के पास अमूमन उतने अधिकार नहीं होते हैं, जिससे वे अपनी गरीब और वंचित आबादी का भला कर सके। शहर बनने से बहुत ही सतही किस्म की सुविधाएं बढ़ेंगी। जिनको लेकर लोगों में बहुत उत्साह नहीं है। मगर जो योजनाएं उन्हें ऊंचा उठने में मददगार हो सकती थीं, उनसे उन्हें हाथ धोना पड़ेगा।

एएन सिंहा इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, जितने टैक्स शहर में लगते हैं वह उन्हें अब चुकाना होगा। उन्हें पानी का पैसा देना पड़ेगा, जो होल्डिंग टैक्स गांव में लगभग नगण्य था वह अब शहरी तर्ज पर भुगतान करना पड़ेगा। तमाम तरह की सब्सिडी खत्म हो जायेगी। वे कहते हैं, अगर उनका विकास हो गया होता और वे समृद्ध होते तो कोई बात नहीं थी। मगर हमें ध्यान रखना होगा कि यह वही इलाका है जहां आज भी ज्यादातर लोग खेती पर निर्भर हैं। इनमें 91 फीसदी लोग सीमांत किसान हैं, उनका खेती से भी गुजारा नहीं होता। हालात ऐसे हैं कि राज्य में पिछले चार साल में एनीमिया और कुपोषण बढ़ गया है। एनएचएफएस-5 की रिपोर्ट बता रही है। यह कैसा विकास है कि लोगों में खून की कमी होने लगी है और जिन लोगों में खून की इतनी कमी है, उन्हें एक झटके में कह देना कि वे ग्रामीण से शहरी हो गये हैं, कैसा न्याय है?

इस बीच इन फैसले पर सामाजिक कार्यकर्ता इश्तेयाक अहमद अलग ही सवाल उठाते हैं, जो पहले से शहर हैं उनकी हालत तो नारकीय ही है। न साफ पानी, न साफ हवा। भीड़-भाड़ और अफरा-तफरी। पहले सरकार उन्हें तो रहने लायक बनाये, नये शहर बना देने से क्या होगा।

(पटना स्थित पुष्यमित्र स्वतंत्र लेखक-पत्रकार हैं।)

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