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यूपी: कई मायनों में अलग है यह विधानसभा चुनाव, नतीजे तय करेंगे हमारे लोकतंत्र का भविष्य
माना जा रहा है कि इन चुनावों के नतीजे राष्ट्रीय स्तर पर नए political alignments को trigger करेंगे। यह चुनाव इस मायने में भी ऐतिहासिक है कि यह देश-दुनिया का पहला चुनाव है जो महामारी के साये में डिजिटल प्रचार माध्यमों से लड़ा जाएगा।
लाल बहादुर सिंह
10 Jan 2022
up vidhan sabha
उत्तर प्रदेश विधान भवन

2024 का सेमी-फाइनल माने जा रहे UP विधानसभा चुनाव के साथ ही अन्य राज्यों के चुनाव की घोषणा हो गयी है। माना जा रहा है कि इन चुनावों के नतीजे राष्ट्रीय स्तर पर नए political alignments को trigger करेंगे और 2 साल बाद होने जा रहे लोकसभा चुनाव का tone सेट कर देंगे जो 2024 में दिल्ली की तकदीर का फैसला करेगा।

यह चुनाव इस दृष्टि से ऐतिहासिक महत्व का है कि इसके नतीजे हमारे लोकतंत्र का भविष्य तय करेंगे- अघोषित आपातकाल के साये में जी रहा देश गणतंत्र के पुनर्जीवन की ओर बढ़ेगा अथवा फासीवादी निज़ाम के काले बादल और गहरे हो जाएंगे ?

यह चुनाव इस मायने में भी ऐतिहासिक है कि यह देश-दुनिया का पहला चुनाव है जो महामारी के साये में डिजिटल प्रचार माध्यमों से लड़ा जाएगा- जिसमें जनता सड़क पर नहीं होगी, जो बिना रैली, रोड शो, जुलूस चुनाव-सभाओं के लड़ा जाएगा।

इसका चुनाव-प्रक्रिया और नतीजों पर ठीक ठीक क्या impact होगा, यह भविष्य के गर्भ में है। आज तो बस इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है।

समग्रता में चुनाव जो लोकतन्त्र का महोत्सव है, उसमें जनता की सक्रिय, सामूहिक, प्रत्यक्ष भागेदारी और हस्तक्षेप का घटना (कम होना) लोकतन्त्र के लिए अशुभ है। यदि इसे आपातकालीन temporary abberation माना जाय, तो इस चुनाव में इसके प्रभाव का अलग तरह से आकलन किया जा सकता है।

चुनावों में भाजपा मोदी जी के नेतृत्व में पूरे देश के अपने नेताओं-केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों- की पूरी फौज उतार कर जो carpet bombing करती थी, रैलियाँ बंद होने से वह अब नहीं कर पायेगी। चुनाव के दिन तक प्रधानमंत्री की आक्रामक रैलियों के माध्यम से पैदा किये जाने वाले मोदी-mania और magic का लाभ अब भाजपा को नहीं मिल पायेगा। 

जहां तक कार्यकर्ताओं के माध्यम से door- to- door प्रचार की बात है, उसमें विपक्ष भाजपा से कमजोर नहीं पड़ेगा।

रैली, सभाएं बन्द होने से नैरेटिव कंट्रोल करने में मीडिया की भूमिका बढ़ जाएगी। मुख्यधारा मीडिया, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों, साथ होने से इसका लाभ भाजपा को मिलेगा। 

जहां तक हाल के दिनों में बेहद ताकतवर बन कर उभरे सोशल मीडिया की बात है, उसमें भाजपा विरोधी खेमा अब कमजोर  नहीं है, लेकिन सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर जहरीली अफवाहबाजी और विषाक्त दुष्प्रचार की संघ-भाजपा की क्षमता का कोई सानी नहीं है।

विपक्षी नेताओं ने उचित ही यह मांग की है कि चुनाव में level-playing फील्ड के लिए जरूरी है कि आयोग विपक्ष को भी डिजिटल प्रचार का इंफ्रास्ट्रक्चर और आवश्यक धन उपलब्ध कराए।

समाज के जो तबके राजनैतिक तौर पर जागरूक हैं और digitally connected हैं, उनके ऊपर रैलियाँ-सभाएं न होने से अधिक फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन समाज के सबसे कमजोर तबके  जो संसाधन-विहीन हैं,  वे अब सार्वजनिक प्रचार के दायरे से बाहर हो जाएंगे। ताकतवर दलों व प्रत्याशियों के लिए समाज के इन vulnerable तबकों के मतों का manipulation आसान हो जाएगा।

नये दौर में शासन-प्रशासन-पुलिस की भूमिका भी बहुत बढ़ जाएगी। आयोग को यह सुनिश्चित करना होगा कि रैली, सभा, जुलूस आदि पर रोक में विपक्ष के खिलाफ भेदभाव न हो और सत्तारूढ़ दल को अवाँछित छूट न मिले।

सड़क पर जनता की उपस्थिति को नियंत्रित करके, जनता को घरों में कैद करके कहीं इलेक्शन को rig तो नहीं किया जाएगा? क्या चुनाव-आयोग हर स्तर पर सभी दलों-पक्ष या विपक्ष,छोटे या बड़े-तथा सभी उम्मीदवारों को लेवल प्लेइंग फील्ड सुनिश्चित करा पायेगा? इसे लेकर गहरी आशंकाएं लोगों के मन में हैं। 

महामारी का नया दौर एक बार फिर लोगों के मन में पहली और दूसरी लहर के खौफनाक मंजर और भाजपा की डबल-इंजन सरकार की विराट विफलता, प्रदेश में हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के ध्वंस की याद ताजा कर सकता है। इसका नुकसान तो भाजपा को होगा ही, महामारी का प्रकोप बना रहता है तो भाजपा के सामाजिक आधार एवं उसके समर्थक मध्य वर्ग के मतदान प्रतिशत में भी गिरावट हो सकती है।

यह साफ है कि यह चुनाव महामारी के साये में गहरी आशंका, अनिश्चितता और तनाव भरे माहौल के बीच होने जा रहा है। 

आज भाजपा की डबल इंजन सरकार के कुशासन और चौतरफा तबाही के ख़िलाफ़, विशेषकर महंगाई और बेरोजगारी, हाशिये के तबकों के उत्पीड़न को लेकर जनमानस में भारी आक्रोश है और जनता बदलाव के मूड में है।

भाजपा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और तकरीबन सबको कुछ न कुछ चुनावी सौगात बांटने के populist gimmick के सहारे इससे पार पाने की जीतोड़ कोशिश में लगी है, लेकिन वह नाकाफी साबित हो रहा है।

अब राष्ट्रीय सुरक्षा (प्रधानमंत्री की सुरक्षा समेत) के लिए खतरे को एजेंडा बनाया जाएगा और विपक्ष को इसमें लपेटा जायेगा। 5 जनवरी के प्रधानमंत्री के पंजाब दौरे के बाद के नाटकीय घटनाक्रम से यह साफ है कि " जान बच जाने " का सारा खेल दरअसल पंजाब से अधिक UP के चुनाव को प्रभावित करने के लिए था और आने वाले दिनों में यहां भावनाओं की लहर पर सवार होकर वैतरणी पार होने की कोशिश होगी।

भावनाएं भड़काने के नित नए अवसर और तरीके ईजाद किये जा रहे हैं।

अयोध्या में अमित शाह ने खुले आम अखिलेश को ललकारा कि हिम्मत हो तो आओ मन्दिर निर्माण रोक लो! योगी ने हाल ही में खुले-आम विभाजनकारी वक्तव्य दिया  " 80 फीसदी हमारे समर्थक एकतरफ होगें, 20 फीसदी विरोधी दूसरी तरफ। मुझे लगता है कि 80 फीसदी सकारात्मक ऊर्जा के साथ आगे बढ़ेंगे, 20 फीसदी ने हमेशा हमारा विरोध किया है, आगे भी करेंगे। लेकिन सत्ता भाजपा की आएगी."  

धर्मसंसद और बुल्ली बाई ऐप की आँच अभी धीमी भी  नहीं पड़ी थी कि अब विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल की ओर से बनारस के 84 घाटों पर “ गैर हिन्दू प्रवेश प्रतिबंधित " होने की चेतावनी वाले पोस्टर लगाए गए हैं, “मां गंगा, काशी घाट व मंदिर सनातन धर्म -भारतीय संस्कृति के प्रति श्रद्धा व आस्था के प्रतीक हैं, जिनकी आस्था सनातन धर्म में हो उनका स्वागत है. अन्यथा यह क्षेत्र पिकनिक स्पॉट नहीं है.” 

इसे पढ़ें : बनारस में विहिप और बजरंग दल बेलगाम, गंगा घाटों के किनारे लगाए 'ग़ैर-हिंदुओं के प्रवेश प्रतिबंध' के पोस्टर

जिस बनारस में  उस्ताद बिस्मिल्लाह खान भोर में शहनाई बजाकर बाबा भोले नाथ को जगाया करते थे, वहां नफरत का यह खेल ही मोदी-योगी राज की देन है।

उनके पास जनता को देने के लिए उपलब्धि के नाम पर चौतरफा नाकामी और तबाही के अलावा कुछ नहीं है। प्रदेश आज विकास के पैमाने पर फिसड्डी  है। उनके पिछले घोषणापत्र के सारे वायदे आज उन्हें मुंह चिढ़ा रहे हैं। बानगी देखिए, 29 जनवरी 2017 को भाजपा का घोषणापत्र जारी होने के बाद अमर उजाला में छपी खबर-"  लैपटॉप संग फ्री data,  5 साल में देंगे 70 लाख रोजगार "। हालत यह है कि आज 5 साल बाद बेरोजगार नौजवान सड़क पर हैं। यही हाल किसानों की आय दोगुनी करने जैसे वायदों का हुआ है।

युवाओं में आज रोजगार के सवाल पर जबरदस्त बेचैनी और सरकार के खिलाफ गुस्सा है, सरकारी नौकरियों को time-bound कार्यक्रम के अनुसार भरने, नए पदों व रोजगार के सृजन का ठोस वायदा सरकार विरोधी युवा आक्रोश को लहर में बदल सकता है जिसके आगे संघ-भाजपा की ध्रुवीकरण, सोशल इंजीनियरिंग और कृपा बांटने की सारी gimmick धरी रह जायगी।

जनता बदलाव चाहती है, इसका इससे बड़े सबूत क्या हो सकता है कि विपक्ष में एकता न होने के बावजूद जनता एक pole पर ध्रुवीकृत होती जा रही है। चुनाव आमने-सामने की लड़ाई में तब्दील होता जा रहा है। 

आज लाख टके का सवाल यही है कि क्या विपक्ष सटीक चुनावी रणनीति और ठोस वायदे, मुद्दों और कार्यक्रम द्वारा जनता के आक्रोश और बदलाव की आकांक्षा को वोटों में तब्दील कर पायेगा?

क्या भाजपा  के खिलाफ मुख्य challenger बन कर उभरी समाजवादी पार्टी अपने अन्य allies के साथ ही प्रदेश के वामपंथी-लोकतान्त्रिक दलों, किसान-युवा आंदोलन समेत जनान्दोलन की ताकतों से तालमेल कायम करते हुए तथा जनकल्याण का ठोस, लोकतान्त्रिक कार्यक्रम पेश कर भाजपा-विरोधी विश्वसनीय विकल्प निर्मित कर सकती है ?

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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