NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
संस्कृति
समाज
साहित्य-संस्कृति
भारत
राजनीति
उर्दू पत्रकारिता : 200 सालों का सफ़र और चुनौतियां
उर्दू अपना पहले जैसा मक़ाम हासिल कर सकती है बशर्ते हुकूमत एक खुली ज़ेहनियत से ज़बान को आगे बढ़ाने में साथ दे, लेकिन देखा तो यह जा रहा है कि जिस पैकेट पर उर्दू में कुछ छपा नज़र आ जा रहा है उस प्रोडक्ट से नफ़रत की जा रही है, यह काम बिना सरकार की शय के हो पाना मुमकिन नहीं है।
नाइश हसन
10 Apr 2022
Urdu journalism

भारत में पत्रकारिता का इतिहास बहुत पुराना है, और आज के दौर में तो पत्रकारिता का दायरा सोशल मीडिया ने और ही बढ़ा दिया है जिसके ज़रिए आम अवाम आज अपने सवालों को उठाने में कामयाब है। ख़बरों की पहुंच भी उस तक आसानी से है। जहां तक उर्दू पत्रकारिता का ताल्लुक है उसका एक ख़ास दर्जा रहा है। जंगे-आज़ादी में उर्दू पत्रकारों ने नसिर्फ़ कलम उठाई, बल्कि मुल्क के लिए अपनी जान भी कुरबान की। यह कहा जा सकता है कि उर्दू पत्रकारिता ने एक सुनहरा दौर देखा।
उर्दू का पहला अख़बार वैसे सन् 1794 में टीपू सुल्तान ने निकाला था जिसका नाम था फ़ौजी, यह अख़बार मैसोर की सरकारी प्रेस से छपा, इसके बाद कलकत्ता से हरिहर दत्ता के संपादन में 27 मार्च 1822 को जाम-ए-जहांनुमा वीकली सामने आया। उसके बाद मुंशी नवल किशोर ने सफ़ीर-ए-आगरा निकाला, और फिर दिल्ली से भी कई अख़बार निकलने लगे। इस तरह देखा जाए तो उर्दू पत्रकारिता की तारीख़ दो सौ बरसों से भी ज़्यादा पुरानी है। इन सालों में उर्दू पत्रकारिता ने कई दौर देखे।

काबिले ग़ौर बात यह है कि उस ज़माने में उर्दू अख़बार छापने का सबब यह बिल्कुल नहींं था कि लोगों को उर्दू से इश्क़ था, बल्कि वही आम बोलचाल की जबान थी। वही रस्मुल ख़त था। देवनागरी के बजाए उर्दू में पत्रकारिता आम थी। उसकी लिपि फ़ारसी और जबान हिंदवी। वह जबान जो हिंदुस्तान में पैदा हुई और पली-बढ़ी।

1857 की क्रान्ति में उर्दू अख़बारों ने ऐसा किरदार निभाया कि उसे भुलाया नहींं जा सकता। आम-अवाम में जंगे-आज़ादी का जुनून पैदा करने में उर्दू पत्रकारिता पेश-पेश थी। मौलाना मोहम्मद बाक़र जो देहली उर्दू अख़बार के पत्रकार थे और जंगे-आज़ादी में उनके अख़बार ने बड़ा किरदार अदा किया। यह बात अंग्रेज़ों को नाकाबिल-ए-बर्दाश्त लगी, लिहाज़ा इसी का नतीजा था कि मौलवी मोहम्मद बाक़र को गोलियों से छलनी करवा दिया गया। मौलवी मोहम्मद बाक़र को उर्दू पत्रकारिता का पहला शहीद माना जाता है। इसी तरह पयाम-ए-आज़ादी के एडीटर मिर्जा बेदार बख़्त को भी फांसी पर चढ़ा दिया गया था। इलाहाबाद से छपने वाला अख़बार स्वराज के एक के बाद एक नौ एडिटर जेल भेज दिए गए, लेकिन उन्होंने हक की बात लिखने से कभी गुरेज़ नहींं किया। वह पत्रकार हमेशा अपनी जान हथेली पर लेकर चलते थे, उन्हें मालूम था कि हुकूमत उनके साथ कुछ भी सुलूक कर सकती है। अंग्रेज़ों ने पत्रकारों को काला पानी की सज़ा भी सुनाई। ऐसे अख़बारों में अलजमीयत, दावत, रोज़नामा, कोहिनूर, सादिकुल अख़बार, पयामे आज़ादी, सेहर सामरी का नाम लिया जाना ज़रूरी हो जाता है।
ऐसे शानदार वक़्त से गुज़रते हुए जहां उर्दू पत्रकारिता ने अपने उरूज को देखा वहीं ज़वाल भी देखना पड़ा। अंग्रेज़ों ने अपनी शिकस्त देख उर्दू सहाफ़त को हाशिए पर लाने की तजवीज़ ईजाद कर ही ली थी, इस नतीजे में फ़ोर्ट विलियम काॅलेज से मज़हब की बुनियाद पर हिंदी के पक्ष में आंदोलन चलाया गया। दक्षिणपंथी ताकतों को तैयार किया गया, जिन्हें बाक़ायदा यह समझाया गया कि उर्दू की लिपि फ़ारसी है अर्थात यह हिंदुस्तान की ज़बान नहींं है। यह सिलसिला जो निकला तो फिर इसने कभी रुकने का नाम न लिया।

हिंदुस्तान की तक्सीम के दौरान भी यह स्थापित करने की कोशिशें जारी रहीं कि उर्दू मुसलमानों की ज़बान है, और सरकार ने उर्दू पत्रकारिता की ओर से अपना हाथ धीरे-धीरे खींच लिया। वह वर्ग जो पत्रकारिता में क़यादत करता था वह भी पाकिस्तान चला गया। लिहाज़ा उर्दू पत्रकारिता में गिरावट आने लगी। उर्दू की तरफ़ से रुझानात कम होने लगे।

इमरजेंसी के बाद के दौर में भी इंदिरा गांधी की हुकूमत ने पत्रकारों के लिए तमाम तरह की स्कीम बनाई। सीधे तौर पर उन्हें ख़रीदा नहींं जा सकता था लिहाज़ा अख़बारों को इश्तेहार की सूरत में ख़रीदना शुरू किया। उसके बाद पत्रकारों को मकान, ज़मीन, गाड़ियों के पास और वेलफ़ेयर के नाम पर तमाम कुछ दिया जाने लगा। इसका नतीजा यह रहा कि पत्रकारिता अपने मिशन से भटक गई, उसकी सेहत गिरना शुरू हो गई। उर्दू की सेहत ज़्यादा तेज़ी से गिरी क्योंकि उसकी पाठक संख्या भी कम हो चुकी थी। हिंदी का बोलबाला था, हूकूमत हिंदी पर पैसे ख़र्च कर रही थी। उर्दू को प्रमोशन नहींं मिल रहा था तो जो तेज़ तर्रार ज़ेंहन थे, वह भी वहां चले गए जहां उन्हें अच्छी रकम मिल रही थी।

यहीं तक मामला संभल जाता तो बेहतर होता लेकिन उर्दू पत्रकारिता में गिरावट थोड़ा और बढ़ी जब इस बिगड़े हालात में पत्रकारिता में मज़हबी लोगों का दख़ल बढ़ गया, अख़बार के नाम पर मज़हब को प्रमोट किया जाने लगा। शायर, अदीब अख़बारों में बड़ी पोज़ीशंस पर आने लगे। वह पत्रकारिता की रूह को बिल्कुल नहीं जानते थे, उन्होंने पत्रकारिता को फ़िक्शन बना डाला। अब अख़बार में न तो नज़रिया बचा न विश्लेषण।

यूं देखा जाए तो उर्दू पत्रकारिता एक लंबे वक़्त से तरह-तरह की चुनौतियों का सामना करती आ रही है। आज भी मुल्क में उर्दू के हज़ारों अख़बार हैं लेकिन उसके सामने जो एक बड़ी दुश्वारी है वह यह कि उसकी आर्थिक स्थिति काफ़ी ख़राब है। साल में गिने चुने दिन ही इश्तेहार मिलते हैं, सरकारी इश्तेहारात तो लगभग न के बराबर रह गए हैं।

दूसरी बात यह भी है कि उर्दू के बारे में मौजूदा हुकूमत का रवैया तंगनज़री का है, इस पराएपन और बेजा नफ़रत ने भी ज़बान का काफ़ी नुकसान किया। जिस जबान के बारे में हुकूमत का नज़रिया ही नफ़रत भरा हो तो वह ज़बान फ़रोग़ कैसे पा सकती है, इतने बडे़ सूबे उत्तर प्रदेश में एक भी उर्दू मीडियम स्कूल नहीं है, जब ज़बान सिमट जाएगी तो उसकी सहाफ़त का सिमटना भी लाज़मी है।

ज़रूरत इस बात की है कि ज़बान को महज़ ज़बान की तरह देखा जाए, उसे मज़हबी ऐतबार से न देखा जाए। उर्दू अपना पहले जैसा मक़ाम हासिल कर सकती है बशर्ते हुकूमत एक खुली ज़ेहनियत से ज़बान को आगे बढ़ाने में साथ दे, लेकिन देखा तो यह जा रहा है कि जिस पैकेट पर उर्दू में कुछ छपा नज़र आ जा रहा है उस प्रोडक्ट से नफ़रत की जा रही है, यह काम बिना सरकार की शय के हो पाना मुमकिन नहीं है। 

हिंदुस्तान में पैदा हुई पली बढ़ी ज़बान से उसके अपने घर वाले ही नफ़रत पालने लगे, उसे परदेसी और मुसलमान की ज़बान कह कर हिकारत से देखने लगे ऐसे मे उर्दू पत्रकारिता के हालात को सुधार पाना गंभीर चुनौती भरा काम है। सरकार के तमाम लीडर उर्दू भाषा के बारे में नफ़रत भरे बयान दे रहे हैं, इससे उर्दू को बढ़ावा देना काफी मुश्किल भरा रास्ता लग रहा है। ऐसे मुश्कि दौर में भाषा को बचाना और उसकी सहाफ़त को बचाना दोनों ही चुनौती है क्योंकि हुकूमत अधिनायकवादी मानसिकता के ख़िलाफ़ जाकर अपनी सनक के हिसाब से हिंदुत्व की जो नई परिभाषा गढ़ चुकी है उसके दायरे में हर वह चीज़ क़ाबिले ऐतराज है जिसका ताल्लुक मुसलमानों से है। ज़रा सोचिए आज हिंदुस्तानी से उर्दू को अलग कर दिया जाए तो हमारे पास बोलने को क्या बचेगा? उर्दू भारतीय संघ की 18 भाषाओं में से एक है लेकिन वह आज सरकार के निशाने पर है, एक तरफ़ लोग उर्दू पत्रकारिता के दो सौ सालों का जश्न मना रहे हैं तो दूसरी तरफ़ उसी भाषा से नफ़रत की ख़बरें रोज आ रही है। ऐसे में आने वाले वक़्त में उर्दू का मुस्तक़बिल क्या होगा यह कह पाना काफ़ी मुश्किल है।

(नाइश हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

Urdu journalism
200 years of urdu journalism
urdu newspapers
hate against urdu
urdu language controversey
sudarshan tv urdu
BJP
hate against muslims

Related Stories

सांप्रदायिक घटनाओं में हालिया उछाल के पीछे कौन?

बनारस: ‘अच्छे दिन’ के इंतज़ार में बंद हुए पावरलूम, बुनकरों की अनिश्चितकालीन हड़ताल

हल्ला बोल! सफ़दर ज़िन्दा है।

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताएं थोपी जा रही हैं

49 हस्तियों पर एफआईआर का विरोध : अरुंधति समेत 1389 ने किए हस्ताक्षर

कश्मीर के लोग अपने ही घरों में क़ैद हैं : येचुरी

"न्यू इंडिया" गाँधी का होगा या गोडसे का?

वाराणसी: कारमाइकल लाइब्रेरी ढहाए जाने पर सुप्रीम कोर्ट की रोक, योगी सरकार से मांगा जवाब

आतिशी के ख़िलाफ़ पर्चा अदब ही नहीं इंसानियत के ख़िलाफ़ है

हिन्दुस्तान के न्यूज़ चैनलों ने डेमोक्रेसी को कुचला है : रवीश कुमार


बाकी खबरें

  • victory
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    बैडमिंटन टूर्नामेंट: 73 साल में पहली बार भारत ने जीता ‘’थॉमस कप’’
    15 May 2022
    बैंकॉक में खेले गए बैडमिंटन के सबसे बड़े टूर्मानेंट थॉमस कप को भारत ने जीत लिया है। भारत ने 73 साल में पहली बार ये कप जीतकर इतिहास रच दिया।
  • President
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: राष्ट्रपति के नाम पर चर्चा से लेकर ख़ाली होते विदेशी मुद्रा भंडार तक
    15 May 2022
    हर हफ़्ते की तरह एक बार फिर प्रमुख ख़बरों को लेकर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता: वक़्त है फ़ैसलाकुन होने का 
    15 May 2022
    “वक़्त कम है/  फ़ैसलाकुन समय की दस्तक / अनसुनी न रह जाए...”  वरिष्ठ कवि शोभा सिंह अपनी कविताओं के जरिये हमें हमारे समय का सच बता रही हैं, चेता रही हैं। वाकई वक़्त कम है... “हिंदुत्व के बुलडोजर की/…
  • डॉ. द्रोण कुमार शर्मा
    तिरछी नज़र: ...ओह माई गॉड!
    15 May 2022
    सरकार जी जब भी विदेश जाते हैं तो वहां रहने वाले भारतीयों से अवश्य ही मिलते हैं। इससे सरकार जी की खुशहाल भारतीयों से मिलने की इच्छा भी पूरी हो जाती है। 
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    ज्ञानवापी अपडेट : कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच दूसरे दिन भी सर्वे,  जांच पूरी होने की उम्मीद
    15 May 2022
    सभी की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे का सच क्या है? दोनों पक्षों के अपने-अपने दावे हैं। हालांकि अदालत में अधिकृत जांच रिपोर्ट 17 मई को पेश की जाएगी।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License