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लॉकडाउन से उपजे पेट के संकट ने महामारी के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया
ग्राउंड रिपोर्ट: उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में कूड़ा बीनने का काम करने वाले लोगों के सामने खाने का संकट तो है ही साथ में ये बीमारी के सबसे आसान शिकार भी हैं। अफसोसजनक यह है कि इसमें बड़ी संख्या में बच्चे शामिल हैं।
गौरव गुलमोहर
27 Jun 2020
Garbage pickers

इलाहाबाद: ‘मोर बस्ती कोरोना से ज्यादा खतरनाक है। वहां बहुत कचड़ा और गंध है, आप बस्ती जाएंगे तो आपको भी कोरोना हो जाएगा।’ ये कहना है नंदू का। नंदू जिसने शहर इलाहाबाद में यमुना नदी के तट पर अपने जिंदगी की पहली सांस ली थी। वह आज भी यमुना नदी के किनारे बसे कीडगंज इलाके की एक बस्ती में रहता है, नंदू की उम्र कुल जमा आठ साल है लेकिन नंदू शहर भर की ख़ाक छानने का अनुभव रखता है।

रोज सुबह बड़ी सी झाल लिए नंदू बिना मास्क, दस्ताने और चप्पल के शहर की ओर निकल पड़ता है। आठ साल की उम्र में उसके कदम कभी स्कूल में नहीं पड़े, लेकिन उसने शहर के कई स्कूलों के सामने से कूड़ा उठाया है। नंदू के परिवार में कुल आठ सदस्य हैं। घर में चार सूअर है, लेकिन उससे कोई आर्थिक लाभ नहीं है। परिवार में सभी कबाड़ बीनने का काम करते हैं। नंदू बताता है कि पहले सब मिलकर ठीक-ठाक पैसा कमा लेते थे, लेकिन अब बहुत कम पैसा मिलता है।

कोरोना वायरस का संक्रमण जब पूरी दुनिया में फैल चुका है उसी समय समाज के कुछ हिस्से ऐसे हैं जो अभी भी कोरोना वायरस और उसके संक्रमण से अनभिज्ञ हैं। कोरोना वायरस के संबंध में हुए शोध से यह पता चलता है कि यह एक संक्रामक बीमारी है। इस वायरस का संक्रमण संक्रमित व्यक्तियों या उनके द्वारा प्रयोग की गई वस्तुओं के सम्पर्क में आने से अन्य इंसानों में फैलता है। इसके बावजूद कबाड़ या कचड़ा उठाने के काम में लगे बच्चे और कर्मचारी बिना किसी सावधानी और सुरक्षा के इस काम में लगे हैं।

गौरतलब है कि देश में एक बड़ी आबादी कबाड़ उठाने के काम से जुड़ी है जिसमें 5 से 18 साल के बच्चों की संख्या अधिक मानी जाती है। कोरोना माहामारी में भी बड़ी संख्या में लोग शहर की गलियों, मोहल्लों, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों से प्लास्टिक और कांच की बोतलें इकट्ठा कर रहे हैं। इलाहाबाद शहर में कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां वर्षों से पड़ोसी जिलों और अन्य राज्यों से आकर धरकार समुदाय झुग्गी-झोपड़ियों की सघन बस्तियों में बसा है।

इन बस्तियों में बिजली, पानी और शौचालय की व्यवस्था न के बराबर है। मुसहर समुदाय भी बांस का सामान बनाने, सुअर पालने और कबाड़ बीनने के काम से जुड़ा है। हमने कोरोना के इस संकटकाल में कबाड़ उठाने वाले लोगों के सम्मुख आने वाली समस्याओं और चुनौतियों को जानने की कोशिश की।

बिना मास्क और दस्ताने के योद्धा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन के दौरान सुरक्षा बल, डॉक्टर और सफाई कर्मचारियों को कोरोना योद्धा की उपाधि दी। लेकिन देश भर में अचानक हुए लॉकडाउन से हैंड टू माउथ जैसे रोजगार से जुड़े लोगों का जन-जीवन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया। कबाड़ उठाने वाले लोगों के समक्ष पेट का संकट साफ तौर से देखा जा सकता है। कबाड़ बीनने वाले परिवारों में बचत जैसा कुछ नहीं होता। स्थाई तौर पर निवासी न होने के कारण सरकारी सुविधाओं का लाभ इन परिवारों को नहीं मिल पाता है। इन परिवारों के भरण पोषण का एक मात्र जरिया कबाड़ होता है। इन्हीं में से एक हैं सुनीता। सुनीता सुबह-सुबह बच्चों के साथ अपनी बस्ती से कबाड़ बीनने शहर की ओर निकल पड़ती हैं। लॉकडाउन में कबाड़ बीनने वालों को पुलिस शहर में आने से रोकती थी। लॉकडाउन खुलते ही कबाड़ उठाने का काम दुबारा शुरू हो चुका है। सुनीता बताती हैं "घर में पति बीमार हैं। दवा के पैसे नहीं हैं। सोडा खा लेते हैं तो पेट का दर्द खत्म हो जाता है"।

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सुनीता अपने बच्चों के साथ कबाड़ बीनती हैं। लेकिन सुनीता के पास मास्क और दस्ताने नहीं है। न ही बच्चों के पैर में चप्पल, मास्क और दस्ताने है। सुनीता कहती हैं कि कोरोना से डर लगता है लेकिन दाल-रोटी के लिए कबाड़ बीनने निकलना पड़ता है। मास्क क्यों नहीं लगाई हैं?, यह पूछने पर सुनीता बताती हैं कि "कबाड़ बीनते समय हमें फेंका हुआ मास्क मिलता है, लेकिन हमारे लोग उसे लगाने से मना करते हैं। अब 20-25 रुपये में एक नया मास्क मिलता है, हम कहां से खरीदें?"

कबाड़ के बीच दम तोड़ता बचपन

इलाहाबाद शहर में कबाड़ के काम में कितने परिवार और बच्चे लगे हैं इसका ठीक-ठीक आंकड़ा मौजूद नहीं है। लेकिन यदि देश में बाल श्रम से जुड़े आंकड़ों पर नज़र डालें तो हमारे सामने एक चौंकाने वाला आंकड़ा आता है। भारत में लगभग एक करोड़ बाल श्रमिक हैं, जो पूरी दुनिया का 7.2 फीसदी हैं। यकीनन पंद्रह लाख की आबादी वाले इलाहाबाद शहर में कबाड़ के काम में लगे बच्चों की एक बड़ी संख्या होगी।

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बैरहना में इलाहाबाद नगर-निगम की छोटी-छोटी गाड़ियां शहर का कचड़ा लाकर एक बड़ी ट्रक में भरती हैं वहां बच्चे छोटी गाड़ियों के आने का इंतजार करते रहते हैं। छोटी गाड़ियों के आते ही सभी कचड़े से प्लास्टिक, कांच की बोतलें, लोहा और एल्युमीनियम के सामान निकालने में जुट जाते हैं। इन बच्चों के मुंह पर न तो मास्क है, न ही हाथ में दस्ताने और न ही पैरों में चप्पल या जूते।

13 साल का अविनाश इलाहाबाद के बैरहना क्षेत्र में कबाड़ बीनता है। उसके परिवार में कुल नौ लोग हैं। सभी कबाड़ बीनने का काम करते हैं। अविनाश को कोरोना के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। इतना पता है कोरोना एक बीमारी है इसलिए शहर बंद था। कोरोना से डर नहीं लगता? पूछने पर अविनाश कहता है कि "काहे का डर? धंधा है पैसा नहीं कमाएंगे तो खाएंगे क्या?"

जबकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 24 के अंतर्गत यह बात दर्ज है कि चौदह वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को किसी कारखाने या खदान में काम करने या किसी अन्य खतरनाक रोजगार में लगाने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा। वहीं संविधान के एक अन्य अनुच्छेद 45 में यह प्रावधान है कि सरकार पहले दस साल में 14 साल तक के सभी बच्चों को मुफ़्त जरूरी शिक्षा देगी। लेकिन आज लाखों बच्चे बाल श्रम करने के लिए अभिशप्त हैं।

लॉकडाउन ने तोड़ा धंधा

लॉकडाउन के दौरान शहर पूरी तरह बंद था। शहर में ट्रेनें, बसें न आने और आम आवागमन स्थगित होने से कबाड़ की निकासी लगभग बंद हो चुकी थी। पुलिस के सख़्ती से लॉकडाउन का पालन कराने के कारण कबाड़ के काम से जुड़े लोगों को शहर के अंदर आने से रोका गया। महीनों कबाड़ के काम से दूर रहने के कारण कबाड़ के काम से जुड़े लोगों को पेट का संकट सताने लगा।

12 साल का साहिल बताता है "कोरोना के समय पुलिस शहर के अंदर जाने से रोकती थी, मारती भी थी। हम लोगों के पास कार, मोबाइल होती तो हम भी ऐश से घूमते, क्यों बाहर निकलते?" साहिल के साथ कबाड़ बीन रहा सूर्या (13) भी बताता है कि लॉकडाउन के बाद कबाड़ के रेट में कमी आई है। जहां ये बच्चे सामान्य दिनों में 300 से 400 रुपये का कबाड़ बेच लेते थे वहीं लॉकडाउन के बाद 150 से 200 रुपये कमाना मुश्किल हो रहा है। सूर्या बताता है कि "बंदी में रेट कम है सौ रुपये का माल 40-50 में उतरता है”।

कबाड़ के काम से जुड़ा एक दूसरा समूह भी होता है जो घर-घर जाकर अख़बार, गत्ता, जूता, चप्पल, लोहा और एल्युमिनियम का कबाड़ खरीदता है। यह समूह उस कबाड़ को लाकर स्थानीय होलसेलर के हाथों थोड़े लाभ के साथ बेचता है। गली, मोहल्लों में फेरी लगाकर कबाड़ इकट्ठा करने वाले लोगों पर भी लॉकडाउन का असर देखने को मिला। लाला (45) घर-घर जाकर कबाड़ इकट्ठा करते हैं। लाला के पास चप्पल तो है लेकिन मास्क और दस्ताना नहीं है। लाला बताते हैं कबाड़ का रेट कम हो गया है, बहुत नुकसान उठाना पड़ रहा है। जहां पहले एक किलो प्लास्टिक 12-13 रुपया किलो बिकता था अब 10 रुपया किलो बिक रहा है। गत्ता पहले 8 रुपया किलो बिकता था अब 5 से 6 रुपया किलो बिक रहा है। अख़बार 12 की जगह 9-10 रुपया किलो बिक रहा है।

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 लाला बताते हैं कि "लॉकडाउन में कोई माल भी नहीं दे रहा है। जो माल मिला है यह सब गरीब का माल है अमीर लोग घर के बाहर झांक भी नहीं रहे हैं" लाला बताते हैं कि "एक कोठी में माल है लेकिन नीचे का किराएदार कोरोना के डर से ऊपर जाने नहीं दे रहा है। कह रहा है तुम यहाँ से नहीं जा सकते कोरोना फैल जाएगा"।

क्या कहते हैं सामाजिक कार्यकर्ता  

इलाहाबाद शहर की धरकार समुदाय की झुग्गी-झोपड़ियों में वर्षों से शिक्षा को लेकर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता और कवि अंशु मालवीय इस समुदाय के पेशे से जुड़े संकट को लेकर कहते हैं कि "इनकी कोई एक समस्या नहीं बल्कि अपार समस्याएं हैं। किसी के घर का कूड़ा, डिस्पोजल, बॉटल अब तो मास्क और दस्ताने भी फेंक दिए जा रहे हैं। कुछ दिन बाद मास्क और दस्ताने का एक पहाड़ बन जायेगा। उसका रिसाइक्लिंग का कुछ प्रॉसेस होगा तो उसमें ये सभी शामिल होंगे। उससे बहुत ज्यादा संक्रमण फैलने की आशंका है।"

वे आगे कहते हैं कि “इस तरह के पेशे में लगे हुए हजारों लोग बीमारी के ठीक सामने होते हैं। इन पर हुए सर्वेक्षण बताते हैं कि इनकी कमाई का चालीस फीसदी दवाओं में खर्च हो जाता है”।

शहरी गरीब संघर्ष मोर्चा और विज्ञान फाउंडेशन से जुड़ी अनुराधा कहती हैं कि “कूड़ा उठाने वाला समुदाय यदि बाहर मास्क और दस्ताने लगाएगा भी तो इनकी बस्ती का जो माहौल है उससे ये नहीं बच सकेंगे। बस्ती के भीतर बहुत गंदगी है, आजकल बारिश में तो जगह-जगह पानी इकठ्ठा रहता है, मच्छर और तरह-तरह के कीड़े बजबजाते रहते हैं, यहाँ लोग खुले में शौच करते हैं, नहाते धोते हैं, कोरोना से ये लोग खुद को कब तक बचा पाएंगे यह कहना मुश्किल है, हाँ लेकिन ये दूसरी कई बीमारियों के घर बनते जा रहे हैं।”     

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