NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल
कश्मीरियत को राष्ट्र विरोधी भावना समझकर तथा आम कश्मीरी के राष्ट्रप्रेम पर संदेह करके कश्मीर की समस्या का हल कभी नहीं निकाला जा सकता। सरकार को अपनी कश्मीर नीति की समीक्षा करनी चाहिए।
डॉ. राजू पाण्डेय
06 Jun 2022
jammu and kashmir
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

जब मोदी सरकार की आठ साल की उपलब्धियों के गौरव गान में सरकार के मंत्री और मीडिया व्यस्त हैं तब कश्मीर घाटी आतंकवादी हिंसा की आग में झुलस रही है और हम मोदी सरकार के धारा 370 के कतिपय प्रावधानों को अप्रभावी बनाने के उस फैसले के दुष्परिणामों का सामना कर रहे हैं जिसे ऐतिहासिक और क्रांतिकारी कदम बताया गया था।

सरकार और सरकार के समर्थक इन हिंसक घटनाओं की -जिनमें चुन चुन कर कश्मीरी पंडितों, अन्य राज्यों से आए श्रमिकों, स्थानीय पुलिस कर्मियों एवं सरकारी कर्मचारियों को निशाना बनाया जा रहा है- बड़ी असंभव सी लगने वाली व्याख्याएं कर रहे हैं जिनमें उनकी असंवेदनशीलता स्पष्ट झलकती है।

इन व्याख्याओं के अनुसार कश्मीर की जनता अब निर्भीक हो चुकी है, वह आतंकवादियों के हुक्म को नजरअंदाज कर रही है, इसलिए उसमें डर फैलाने के लिए यह हत्याएं की गई हैं। कश्मीर घाटी में पाकिस्तान से होने वाली घुसपैठ पर पूरी तरह रोक लग गई है इसलिए आतंकी घबराए हुए हैं और हताशा में इन कार्रवाइयों को अंजाम दे रहे हैं। कश्मीर में शासकीय नौकरियों में भर्ती के लिए जो सिंडिकेट काम करता था उसे नेस्तनाबूद कर दिया गया है, इससे जुड़े लोग सरकारी कर्मचारियों में डर और भ्रम फैला रहे हैं। कश्मीर में देश के अन्य भागों से निवेश आ रहा है, यहां की बसाहट बदल रही है इसलिए पृथकतावादी तत्व भयभीत होकर हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं।

कश्मीर पर सरकार की इस सफाई में मूल प्रश्नों के उत्तर नदारद हैं। आतंकवादी हिंसा पर अंकुश लगाने में सरकार क्यों नाकामयाब हुई है? कैसे खुलेआम हथियार लहराते आतंकी बेखौफ होकर अपनी नापाक हरकतों को अंजाम दे रहे हैं? सरकार का कहना है कि उसने निर्दोष लोगों की हत्या के जिम्मेदार आतंकवादियों को चुन चुन कर उनके अंजाम तक पहुंचाया है। यदि सरकार और उसका सुरक्षा तंत्र इतना ही कार्यकुशल है तो फिर वारदात करने से पहले ही इन आतंकवादियों को क्यों नहीं धर दबोचा गया? क्यों आम लोगों और सरकारी कर्मचारियों तथा अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के चाक चौबंद इंतजाम नहीं किए गए?

आतंकवादी घटनाओं की इन सरकारी व्याख्याओं में नया कुछ भी नहीं है। हमारे देश के जिन प्रान्तों में आतंकवाद, उग्रवाद और नक्सलवाद ने अपनी जड़ें जमाई हैं उन प्रान्तों की सरकारें भी अनेक वर्षों से भयानक और नृशंस आतंकी हिंसा के बाद ऐसे कल्पनाशील स्पष्टीकरण बड़ी निर्लज्जता से देती रही हैं जिनका सार संक्षेप यही होता है कि सरकार की सख्ती से आतंकवादी घबराए हुए हैं और हिंसक कार्रवाइयों को अंजाम दे रहे हैं। आतंकी हिंसा के बाद सरकारों की घिसीपिटी सफाई के हम सभी अभ्यस्त हैं।

किंतु कश्मीर का घटनाक्रम इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस मुद्दे का उपयोग कर भाजपा ने केंद्र और राज्यों के चुनावों में आशातीत सफलता हासिल की है और वह कश्मीर विषयक अपने फैसलों को नए भारत के नए तेवर को दर्शाने वाले कदमों के रूप में प्रचारित करती रही है- ऐसे कदम जो कठोर निर्णय लेने वाली मजबूत सरकार ही उठा सकती थी।

कश्मीर की यह परिस्थितियां इसलिए भी ध्यान खींचती हैं कि अभी चंद दिनों पहले कश्मीरी पंडितों के साथ हुई त्रासदी पर केंद्रित एक फ़िल्म के प्रचार-प्रसार में (जिसका उद्देश्य अर्द्धसत्यों और कल्पना का एक ऐसा कॉकटेल तैयार करना था जिससे अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफ़रत फैले) हमने पूरी सरकार को उतरते देखा। स्थिति ऐसी बन गई कि अनेक भाजपा शासित राज्यों में इसे कर मुक्त किया गया और इसे देखना मानो एक अनिवार्य राष्ट्रीय कर्त्तव्य बना दिया गया।

धारा 370 के दो उपखंडों को हटाने के निर्णय के बाद केंद्र सरकार द्वारा कश्मीर घाटी के राजनीतिक नेताओं की नजरबंदी, इंटरनेट सहित अन्य संचार सेवाओं पर संभवतः विश्व में सर्वाधिक अवधि की रोक, प्रेस पर अघोषित सेंसरशिप एवं पूरे राज्य में धारा 144 लागू करने जैसे कदम उठाए गए। सुरक्षा बलों की भारी तैनाती घाटी में की गई। सामान्य जनजीवन लंबे समय तक ठप रखा गया। सुरक्षा बलों के पहरे के बीच कश्मीर के डरावने सन्नाटे को केंद्र सरकार ने आतंकी गतिविधियों पर नियंत्रण की उपलब्धि के रूप में चित्रित किया। किंतु जैसे ही जनजीवन सामान्य होता गया, आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक गतिविधियां प्रारंभ होने लगीं, आतंकी हिंसा पुनः प्रारंभ हो गई।

कश्मीर में 19 जून 2018 से राज्यपाल का शासन है। सत्ता समर्थक मीडिया द्वारा प्रायः नए भारत के सरदार पटेल के रूप में चित्रित किए जाने वाले श्री अमित शाह गृह मंत्री के तौर पर कश्मीर के हालात की रोज निगरानी कर रहे हैं। श्री अजीत डोभाल जिन्हें भारतीय मीडिया अनेक दंत कथाओं के यथार्थ नायक के रूप में चित्रित करता रहा है, स्वयं कश्मीर की सुरक्षा व्यवस्था पर नजर रख रहे हैं। सरकार के अनुसार केंद्र की उन विकास योजनाओं का लाभ अब जम्मू कश्मीर के लोगों को मिल रहा है, धारा 370 के कारण जिनसे वे वंचित थे।

फिर भी कश्मीर के हालात बिगड़ते क्यों जा रहे हैं?

कहीं सरकार अपने कर्त्तव्य पथ से विचलित तो नहीं हो रही है? कहीं कश्मीर समस्या को न केवल जीवित रखना बल्कि उसे उलझाना सरकार की चुनावी मजबूरी तो नहीं है? आखिर जनता से वोट बटोरने का यह एक प्रमुख भावनात्मक मुद्दा रहा है।

रोते-बिलखते-आक्रोशित-दुःखित कश्मीरी पंडित की छवि कट्टर हिंदुत्व समर्थकों के उस झूठे नैरेटिव के साथ बड़ी आसानी से सजाई जा सकती है जिसके अनुसार बहुसंख्यक बनने के बाद मुसलमान हिंदुओं से कैसा बर्ताव करेंगे यह देखने के लिए हमें कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा पर नजर डालनी चाहिए। क्या यही कारण है कि कश्मीरी पंडितों की समस्याओं के समाधान के लिए कोई गंभीर प्रयास होता नहीं दिखता? क्या उनके साथ हुई भयानक त्रासदी और उनके दारुण दुःख को भावनाओं के बाजार में सजाकर उससे अपना राजनीतिक हित नहीं साधा जा रहा है? क्यों सोशल मीडिया में सक्रिय कट्टर हिंदुत्व के पैरोकार बार बार यह भड़काने वाला संदेश दे रहे हैं कि कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार करने वाले सिरफिरे आतंकवादियों का बदला हिन्दू समाज देश की निर्दोष मुस्लिम आबादी से ले?

धारा 370 के दो उपखंडों को हटाने के बाद केंद्र सरकार को इंटरनेट बंदी, मीडिया पर नियंत्रण, स्थानीय राजनीतिक नेताओं की नजरबंदी जैसे कदम क्यों उठाने पड़े? अघोषित कर्फ्यू जैसी स्थिति में लंबे समय तक कश्मीर वासियों को क्यों रखा गया? क्या सरकार जानती थी कि उसका यह फैसला एक अलोकप्रिय निर्णय है? क्या इन कदमों से यह संदेश नहीं जाता कि सरकार कश्मीर के आम लोगों की देशभक्ति के प्रति भी संदिग्ध है? क्या सरकार के कश्मीर में लोकतंत्र बहाली, राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत और समावेशी विकास के दावों के बीच कश्मीरियत को खत्म किया जा रहा है? क्या कश्मीरियत और देशभक्ति का सह अस्तित्व नहीं हो सकता?

कश्मीर के कितने ही मूल निवासी -हिन्दू और मुसलमान- पुलिस कर्मी, शासकीय कर्मचारी, पत्रकार, नेता, व्यापारी जैसी भूमिकाएं निभाते हुए आतंकवादी हिंसा का शिकार हुए हैं। क्या इनकी देशभक्ति पर संदेह करना दुःखद और निंदनीय नहीं है?

क्या सरकार यह नहीं समझ पा रही है कि विश्वास और अस्मिता के प्रश्न उस विकास से हल नहीं हो सकते जो स्थानीय लोगों को भरोसे में लिए बिना किया जाए और जिसके परिणामस्वरूप उनकी पहचान ही गुम जाए? क्या सरकार यह मानती है कि आतंकवाद की समाप्ति केवल सुरक्षा बलों की सक्रियता द्वारा ही संभव है? क्या विश्व इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण उपलब्ध है जिसमें केवल सैन्य कार्रवाई द्वारा आतंकवाद को जड़मूल से समाप्त करने में कामयाबी हासिल की गई हो? क्या यह सच नहीं है कि पूरी दुनिया में और हमारे देश में भी पारस्परिक चर्चा,विमर्श और समझौता वार्ताओं के माध्यम से उग्रवाद और आतंकवाद का अधिक कारगर एवं टिकाऊ समाधान निकाला गया है और असाध्य रोग सी लगती आतंकवाद की समस्या का सुखद पटाक्षेप हुआ है?

संभव है कि सरकार कश्मीर को उस रूप में ढालने में कामयाब हो जाए जो उसकी विचारधारा के अनुरूप है- वहां की बसाहट और आबादी के वितरण में बदलाव ले आया जाए, चुनावी सफलता भी किसी तरह अर्जित कर ली जाए लेकिन कश्मीरियत का सम्मान न करने वाली कोई भी सरकार वहां के निवासियों की वास्तविक प्रतिनिधि नहीं होगी।

कश्मीरियत को राष्ट्र विरोधी भावना समझकर तथा आम कश्मीरी के राष्ट्रप्रेम पर संदेह करके कश्मीर की समस्या का हल कभी नहीं निकाला जा सकता। सरकार को अपनी कश्मीर नीति की समीक्षा करनी चाहिए और तमाम अमनपसंद, जम्हूरियत पर भरोसा करने वाली तथा हिंसा का खात्मा चाहने वाली ताकतों से संवाद प्रारम्भ करना चाहिए।

Jammu and Kashmir
violence in kashmir
Kashmiri Pandits
BJP

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

कश्मीर में हिंसा का नया दौर, शासकीय नीति की विफलता

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल

कश्मीर: एक और लक्षित हत्या से बढ़ा पलायन, बदतर हुई स्थिति


बाकी खबरें

  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    डिजीपब पत्रकार और फ़ैक्ट चेकर ज़ुबैर के साथ आया, यूपी पुलिस की FIR की निंदा
    04 Jun 2022
    ऑल्ट न्यूज के सह-संस्थापक मोहम्मद ज़ुबैर पर एक ट्वीट के लिए मामला दर्ज किया गया है जिसमें उन्होंने तीन हिंदुत्व नेताओं को नफ़रत फैलाने वाले के रूप में बताया था।
  • india ki baat
    न्यूज़क्लिक टीम
    मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट
    03 Jun 2022
    India की बात के इस एपिसोड में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश, अभिसार शर्मा और भाषा सिंह बात कर रहे हैं मोहन भागवत के बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को मिली क्लीनचिट के बारे में।
  • GDP
    न्यूज़क्लिक टीम
    GDP से आम आदमी के जीवन में क्या नफ़ा-नुक़सान?
    03 Jun 2022
    हर साल GDP के आंकड़े आते हैं लेकिन GDP से आम आदमी के जीवन में क्या नफा-नुकसान हुआ, इसका पता नहीं चलता.
  • Aadhaar Fraud
    न्यूज़क्लिक टीम
    आधार की धोखाधड़ी से नागरिकों को कैसे बचाया जाए?
    03 Jun 2022
    भुगतान धोखाधड़ी में वृद्धि और हाल के सरकारी के पल पल बदलते बयान भारत में आधार प्रणाली के काम करने या न करने की खामियों को उजागर कर रहे हैं। न्यूज़क्लिक केके इस विशेष कार्यक्रम के दूसरे भाग में,…
  • कैथरिन डेविसन
    गर्म लहर से भारत में जच्चा-बच्चा की सेहत पर खतरा
    03 Jun 2022
    बढ़ते तापमान के चलते समय से पहले किसी बेबी का जन्म हो सकता है या वह मरा हुआ पैदा हो सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि गर्भावस्था के दौरान कड़ी गर्मी से होने वाले जोखिम के बारे में लोगों की जागरूकता…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License