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मोदी सरकार के नए श्रम कानून कामगारों के इतने ख़िलाफ़ क्यों हैं?
सरकार के नए श्रम कोड, श्रम कानूनों को लचीला बनाने के औजार हैं। सरकार को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इसका कामगारों के हितों पर कितना नकारात्मक असर होगा।
डॉ के आर श्याम सुंदर
23 Sep 2020
मोदी सरकार के नए श्रम कानून कामगारों के इतने ख़िलाफ़ क्यों हैं?
Image Courtesy: The Hindu

19 सितंबर को संसद में संशोधित औद्योगिक संबंध संहिता बिल, 2020 पेश किया गया। संसद की स्थायी कमेटी की ओर से औद्योगिक संबंध संहिता बिल, 2019 में संशोधन सुझाए गए थे। उसके बाद ही संशोधित बिल संसद में पेश किया गया (मंगलवार, 22 सितंबर को इसे पास कर दिया गया)। इस बिल का मकसद तीन श्रम कोड को एक साथ मिलाकर एक तार्किक स्वरूप देना है। जिन तीन लेबर कोड को इसमें समाहित करना है वे हैं- ट्रेड यूनियन कानून,1926, औद्योगिक रोजगार (स्टैंडिंग ऑर्डर) कानून, 1946 और औद्योगिक विवाद कानून (स्टैंडिंग ऑर्डर) कानून, 1947. सरकार का मकसद देश में कारोबार करना और सुगम बनाना है और इसके लिए ये श्रमिकों के कल्याण और लाभ से ‘समझौता किए बगैर’ इन तीनों कानून में संशोधन करना चाहती है। लेकिन जिस नए कानून में इन तीनों को कानून को समाहित करना चाहती है, वह मजदूरों के कल्याण और हितों के खिलाफ हैं। आखिर कैसे यह बिल श्रमिक हितों के खिलाफ है?

दरअसल यह बिल “sole negotiating agent’’ के मानदंडों को नीचे गिरा रहा है। पहले इसके लिए कड़ी शर्तें थीं। लेकिन अब यह घटा कर 75 से 51 फीसदी ले आया गया है। केरल और पश्चिम बंगाल में यही मानदंड लागू है। लेकिन बिल में निगोशिएटिंग काउंसिल (नियोजकों से तमाम मुद्दों पर बातचीत के लिए) का सदस्य बनने के मानदंड ऊंचे कर दिए हैं। यह 10 फीसदी से बढ़ा कर 20 फीसदी कर दिया गया। सैद्धांतिक तौर पर देखें तो तो अब पांच से ज्यादा ट्रेड यूनियन निगोशिएटिंग काउंसिल के सदस्य नहीं हो सकते। यानी यह कड़ा प्रावधान है। हालांकि यह ऐतिहासिक विधायी कदम है क्योंकि 1947 से लेकर अब तक की तमाम सरकारों में संशोधन के ये कदम नहीं उठे थे। लेकिन अब ऐसा हो रहा है। लेकिन दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अच्छी चीज की शुरुआत भी यहीं से हो रही है यहीं पर इसका खात्मा भी हो रहा है।

कामगारों की सौदेबाजी की ताकत घटा देगा नया कानून

बहरहाल, इस बिल ने एक झटके में स्टैंडिंग ऑर्डर लागू करने की सीमा बढ़ा दी है। 2019 में यह संख्या 100 कामगारों (मौजूदा औद्योगिक रोजगार कानून के मुताबिक) की थी। लेकिन अब इसकी संख्या बढ़ा कर 300 कामगारों तक कर दी गई है। 2017-18 के वार्षिक औद्योगिक सर्वे के मुताबिक इस कदम से फैक्टरियों में काम करने वाले 90 फीसदी कामगार और समग्र तौर पर 44 फीसदी कामगार नए स्टैंडिग ऑर्डर्स के दायरे से बिल्कुल बाहर हो जाएंगे।

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यह प्रावधान कामगारों और नियोजकों को जो संभावित नुकसान पहुंचा सकता है उसे समझने के लिए हमें औद्योगिक रोजगार कानून यानी Industrial Employment Act  (स्टैंडिंग ऑर्डर) को लागू किए जाने के उद्देश्य की थोड़ी प्रशंसा करनी होगी।

दरअसल स्टैंडिंग ऑर्डर एक खास तरह का सामूहिक अनुबंध (collective contract) होता है, जो अलग-अलग रोजगार अनुबंध और उनकी प्रकृति से जुड़ी सेवा शर्तों और नियमों का मानकीकरण करता है। (मिसाल के तौर पर किसी कर्मचारी की प्रोबेशन अवधि और उसे पक्का करने की शर्तों से जुड़े प्रावधान)। इसके साथ ही किसी के रोजगार खत्म करने की शर्तों ( या तो नियोजक या कामगारों की ओर से), दुर्व्यवहार निर्धारित करने, अनुशासनात्मक कार्रवाइयों समेत दंड की किस्मों और शर्तों से जुड़े नियम भी स्टैंडिंग ऑर्डर के दायरे में आते हैं।

इस कानून से पहले नियोजकों और कर्मचारियों की सौदेबाजी की ताकत बराबर नहीं थी। ज्यादातर कंपनियों के पास स्टैंडिंग ऑर्डर नहीं होते थे। इससे नियोजकों को एकतरफा, मनमाना और कर्मचारियों के खिलाफ भेदभाव भरे फैसले लेने का मौका मिल जाता था। इससे औद्योगिक विवाद की स्थिति आ जाती थी। इन विवादों का गलत या इकतरफा हल से नियोजकों और कर्मचरियों को दोनों को नुकसान उठाना पड़ता था। लिहाजा श्रम बाजार की इस मौकापरस्ती को खत्म करने के लिए औद्योगिक रोजगार कानून लाया गया था। औद्योगिक संबंध सौहार्दपूर्ण बनाना भी इसका मकसद था।

अब यह पक्का हो चुका है कि जैसे-जैसे किसी कंपनी में रोजगार का आकार बढ़ता है यूनियन की मौजूदगी की संभावना बढ़ती जाती है। लेकिन 300 से कम कर्मचारी वाली यूनिटों मे से 90 फीसदी फर्मों में यूनियन की मौजूदगी की संभावना कम हो जाती है।

मौजूदा बिल एक औपचारिक व्यवसाय और उसमें काम करने वाले को अनौपचारिक दायरे में ले आता है। दूसरे शब्दों में कहें तो छोटे फर्मों में अब ट्रेड यूनियन और कानून की सुरक्षा मिलने की संभावना खत्म हो गई है। इस तरह इन फर्मों में काम करने वाले कर्मचारी अनौपचारिक और अस्थायी कामगार बन कर रह जाएंगे। कामकाज से जुड़ी सुरक्षा और हेल्थ कोड के तहत इससे जुड़े प्रावधानों पर नियोजक जो लिखित अनुबंध पेश करते हैं वे अब कारगर नहीं रह जाएंगे, क्योंकि नए कानून में इसके उल्लंघन के लिए किसी दंड की व्यवस्था नहीं होगी। चीन में इस मामले में ऐसा ही कानून लागू है।

बहुत उदार आकलन करें तो भी भारत में गैर सरकारी सेक्टर में यूनियन का कवरेज दस फीसदी भी ज्यादा नहीं होगा। 1997 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यानी ILO का आकलन था कि भारत में सामूहिक सौदेबाजी की कवरेज (collective bargaining coverage ) तीन फीसदी से कम थी। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारियों की संख्या बढ़ी है और मानव संसाधन के खिलाफ नीतियां अपनाई गई हैं, उसमें इस कवरेज में और इजाफा तो नहीं ही हुआ होगा।

औद्योगिक विवाद कानून में कम कठोर शर्तें सिर्फ पब्लिक यूटिलिटीज सर्विसेज सेक्टर में लागू की गई हैं, जिसमें सरकार को एक छोटी अवधि के लिए अधिसूचना जारी करने का अधिकार है। अब 2020 के बिल ने कानूनी तौर पर मान्य हड़ताल करने से जुड़ी शर्तें और कड़ी कर दी हैं और अब ये हर तरह के प्रतिष्ठान पर लागू भी कर दी गई हैं।

अब कामगार 14 दिन का नोटिस दिए बगैर हड़ताल नहीं कर सकते। वे समझौता प्रक्रियाओं के चलते रहने और इसके निष्कर्षों के सात दिन बाद और विवाद के मामलों में फैसले की प्रक्रियाओं और निष्कर्ष के बाद तीन महीनों के बाद हड़ताल नहीं कर सकते। अगर औद्योगिक संबंध प्रणाली में शामिल सभी एजेंसियां पूरी तरह सक्षम हों तो भी कामगार कानूनी रूप से 150 दिनों से ज्यादा हड़ताल नहीं कर पाएंगे (14 दिनों का नोटिस, समझौते के 45 दिन और विवाद के मामले में 90 दिन मिलाकर 150 दिन हो जाते हैं)।

कॉन्ट्रैक्ट पर कर्मचारियों को रखने का चलन बेहिसाब बढ़ेगा

2001 की शुरुआत से ही जारी औद्योगिक विवादों से हमें यूनियनों को खत्म करने और कॉन्ट्रेक्ट लेबर कानून में लचीलेपन के दुरुपयोग से जुड़े स्याह पक्ष दिखने शुरू हो गए थे। अब ये औद्योगिक विवाद और ज्यादा बढ़ सकते हैं। कॉन्ट्रैक्ट पर कामगारों को रखने का चलन और बढ़ा है (ASI के अनुमानों के मुताबिक 35 फीसदी, देखें नीचे)। कार्यस्थल पर जुड़ी सुरक्षा और कामकाज के लिए जरूरी स्वास्थ्य संबंधी माहौल के प्रावधानों को मौजूदा बिल में उदार कर दिए जाने से कॉन्ट्रैक्ट पर कर्मचारियों को रखे जाने का चलन में अब बेतहाशा इजाफा होगा। अब 50 से कम (पहले यह नियम 20 से कम कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारियों को रखे जाने पर लागू था) कर्मचारियों को रखने वाले मुख्य नियोजक और कॉन्ट्रैक्टर को कॉन्ट्रैक्ट लेबर रेगुलेशन से लगभग मुक्त कर दिया गया है। इससे अब निर्माण या मैन्यूफैक्चरिंग की कोर गतिविधियों में भी कॉन्ट्रैक्ट पर कामगारों को रखने की लगभग छूट मिल गई है। ( बिल के सेक्शन 57 (a) (b) और (c) को पढ़ने से यही लगता है। कोर गतिविधयों से इतर कभी भी लोगों को रखा जा सकता है और हटाया जा सकता है। मौजूदा बिल नियोजकों को एक निश्चित अवधि के कॉन्ट्रैक्ट पर बगैर किसी नियम के कामगारों का काम पर रखने की इजाजत देता है। (जैसे बिजनेस में उतार-चढ़ाव, मैटरनिटी लीव पर गई कर्मचारी के बदले में रखे जाने वाले कामगारों के मामले में) । इसमें सब कुछ नियोजकों की मर्जी से होगा। जैसे वे कॉन्ट्रैक्ट की न्यूनतम और अधिकतम अवधि तय करेंगे। एक्सटेंशन की संख्या वगैरह भी नियोजक ही तय करेंगे। इससे अस्थायी कर्मचारियों की संख्या खासी बढ़ जाएगी। इसके अलावा सरकार ने छंटनी के नियमों को उदार कर दिया है। पहले 100 कामगारों वाली यूनिट में हायर एंड फायर की नीति लागू थी लेकिन अब इसे 300 या इससे ऊपर के कामगारों वाली यूनिटों में भी लागू कर दिया गया है। इसे कानूनी बना दिया गया। 2014 में राजस्थान में यह नियम लागू होने के बाद से 14 राज्यों ने इसे लागू कर दिया है। मौजूदा बिल ने छंटनी और बंदी की स्थिति में मिलने वाली बरखास्तगी की रकम को भी बरकरार रखा है। इसके तहत काम के प्रत्येक साल पर पंद्रह दिन के वेतन के हिसाब से बरखास्तगी रकम (Severance Pay) दी जाती है। केंद्र सरकार की ओर से कामगारों पर किया जाना वाला यह सबसे घातक वार है क्योंकि राज्य सरकारें भी बरखास्तगी की रकम को 45 दिन के वेतन के बराबर कर चुकी है। इसके अलावा सोशल सिक्योरिटी कोड उन्हें बेरोजगारी बीमा भी नहीं मुहैया कराता, जबकि यह ‘’सोशल सिक्योरिटी” की परिभाषा में शामिल है। कानून बनाने वाला हमारे सांसदों ने मौजूदा श्रम कानूनों को इस चालाकी से लिखा है कि जबरदस्त दूर दृष्टि से लैस संसदीय निकाय भी छटपटाने लगेंगे।

कार्यस्थल में कामकाज के माहौल और वहां कामगारों के स्वास्थ्य (OSHWC)  से जुड़े बिल के प्रावधानों ने कॉन्ट्रैक्ट पर कामगारों को रखने का दायरा बढ़ा दिया है। अब गैर कोर गतिविधियों और कुछ स्थितियों में कोर गतिविधियों में कॉन्ट्रैक्ट पर कामगारों को रखने की इजाजत दे दी गई। इन प्रावधानों का सीधा मतलब यह है कि कोई भी मुख्य नियोजक अब कानूनन सामान्य मैन्यूफैक्चरिंग या निर्माण गतिविधियों के लिए कॉन्ट्रैक्ट पर कामगारों को रख सकता है। नए लेबर कोड में तो यहां तक प्रावधान है कि अगर कॉन्ट्रैक्टर सामान्य प्रक्रिया के तहत इसके लिए लाइसेंस हासिल करने की पात्रता हासिल नहीं कर पा रहा है तो वह ‘ किसी खास काम को कराने के लिए भी लाइसेंस’’ ले सकता है। अधिकारियों के मुताबिक इसके लिए एक निश्चित अवधि के लिए कान्ट्रैक्ट पर कामगारों को रखा जा सकता है। ( देखें सेक्शन 47 (2)).

कामगारों के पास बहुत कम कानूनी विकल्प

श्रम कानूनों को लचीला बनाने के चक्कर में कानून बनाने के बुनियादी सिद्धांतों की भी बखिया उधेड़ दी गई है। नए कानून से फैक्टरियों और तमाम दूसरे कार्यस्थलों पर कॉन्ट्रैक्ट पर कामगारों को रखने के मामले काफी बढ़ जाएंगे। भले ही यह अनुमान से कम लग रहा है लेकिन वार्षिक औद्योगिक सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि 1993-94 में संगठित क्षेत्र की फैक्टरियों के कुल श्रम बल में कॉन्ट्रैक्ट पर रखे जाने वाले कामगारों की हिस्सेदारी 13 फीसदी थी, जो 2016-17 में बढ़ कर 36 फीसदी हो गई। ( देखिए आंकड़ा 1)

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बहरहाल, लचीली श्रेणियों के रोजगार के आयामों का भी जिक्र जरूरी है। नियोजकों के पास तमाम विकल्प आ गए हैं। जैसे- वे कैजुअल और अस्थायी कामगार रख सकते हैं। उनके पास एक निश्चित अवधि ( Fix term)  के कामगार और ट्रेनी रखने का विकल्प ( सभी मुख्य नियोजकों की ओर से रखे जाने हैं) है। वे earn-while-you-learn स्कीम के तहत कामगार रख सकते हैं और कॉन्ट्रैक्ट पर भी। earn-while-you-learn स्कीम के तहत काम करने वाले भी आखिकार कामगार में ही तब्दील हो जाते हैं। जब कॉन्ट्रैक्ट पर अपेक्षाकृत सस्ता और कभी भी हटा दिया जाने वाला कामगार उपलब्ध हो तो कोई भी मुख्य नियोजक अपनी ओर से सीधी बहाली कर कामगारों को क्यों रखना चाहेगा। नियोजकों के लिए थर्ड-पार्टी एंप्लॉयमेंट का सबसे बड़ा फायदा यह है कि निगरानी की लागत के अलावा सोशल सिक्योरिटी मेंटेन करने, कानूनी प्रक्रियाओं के पालन करने और विवाद सुलझाने की सारी लागत कॉन्ट्रैक्टर के जिम्मे आ जाती है।

इस हिसाब से एक निश्चित अवधि के तहत भी कामगारों को रखना ज्यादा महंगा पड़ेगा क्योंकि नए कानून में उन्हें pro-rata वेतन, सुविधाएं, सोशल सिक्योरिटी और ग्रैच्युटी देनी होगी। इसके अलावा कामगारों कीभर्तियों, बहाली या उन्हें हटाने की प्रक्रिया में ट्रांजेक्शन लागत भी आती है। कोई भी नियोजक इन लागतों को बचाने के लिए या तो आउटसोर्सिंग का सहारा लेगा या फिर कॉन्ट्रैक्ट लेबर सिस्टम को अपनाएगा। तो इस तरह रोजगार की सुरक्षा पर एक के बाद एक चोट की गई है। इससे श्रमिकों के अधिकार काफी कमजोर हो गए है। कार्यस्थल में कामकाज के माहौल और वहां कामगारों के स्वास्थ्य कोड या यानी OSHWC और औद्योगिक संबंध कोड की वजह से गैर कृषि सेक्टर में अनौपचारिकता काफी बढ़ जाएगी। (देखिए सारिणी -2)  .

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नए कानून के जरिये कामगारों को कमजोर कर देने से ग्रॉस वैल्यू एडेड यानी GVA  में उनकी मजदूरी की हिस्सेदारी घट जाएगी लेकिन नियोजकों का मुनाफा हिस्सा बढ़ जाएगा ( देखिए आंकड़ा- 2) ।

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इस तरह, कामगारों के पास रोजगार भी होगा तो भी वह निचले श्रम मानकों के जाल में फंसे रहेंगे। उनके पास कानूनी या संस्थागत मैकेनिज्म के जरिये राहत पाने के विकल्प बहुत कम रह जाएंगे। सरकार जिन लेबर कोड में सुधार करने के रास्ते पर है उससे इन कानूनों में लचीलापन तो आएगा लेकिन ये इकतरफा होंगे। यानी श्रम कानूनों का पलड़ा अब काफी हद तक नियोजकों के पक्ष में झुकता दिख रहा है। ये श्रम कानून नियोजकों को इतना फायदा दिला रहे हैं, जितना उन्होंने मांगा भी नहीं था।

यह बिल कामगारों के लिए विनाशकारी साबित होगा। ‘ईज ऑफ डुइंग बिजनेस’ यानी कारोबारी सुगमता के लिए जिस बिल को पारित कराया जा रहा है वह औद्योगिक संबंधों को एकपक्षीय बना देगा। इससे जब चाहे कामगारों को निकाला जा सकता है। यह औद्योगिक संबंधों को औपनिवेशिक काल के काले दिनों में ले जाएगा। इससे सौहार्दपूर्ण माहौल खत्म होगा। श्रम अधिकारों पर चोट पड़ेगी और ये कमजोर हो जाएंगे। इस वजह से देश में औद्योगिक अशांति के मामले होते रहे हैं।

‘ईज ऑफ डुइंग बिजनेस’ के नाम पर कामगारों से नाइंसाफी

ईज ऑफ डुइंग बिजनेस रैकिंग और कामगारों के अधिकार में साफ टकराव दिखता है। रैंकिंग की प्रक्रिया में कमी है और इसका पूर्व नियोजित एजेंडा भी है। ( वर्ल्ड बैंक ने इसे स्वीकार किया है और हाल में इज ऑफ डुइंग बिजनेस रैंकिंग की प्रक्रिया रोक दी है)। इंटरनेशनल ट्रेड यूनियन कॉन्फेडरेशन ने भी इसकी तसदीक की है। इससे न तो कामगारों का हित सधेगा और न पूंजी का हित होगा।

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आखिर में हमें एक सवाल जरूर पूछना चाहिए- क्या सरकार इस बिल में नए प्रावधान डाल सकती है। मसलन,क्या यह स्टैडिंग ऑर्डर्स से संबंधित नियमनों के इस्तेमाल के लिए कर्मचारियों की संख्या सीमा बढ़ा कर 100 से 300 करेगी। यानी क्या अब उन यूनिटों में भी स्टैंडिंग ऑर्डर्स से जुड़े नियमन लागू होने लगेंगे, जिनमें 300 कर्मचारी होंगे। जबकि हकीकत यह है कि 2019 के बिल में इसका जिक्र नहीं है। या फिर कॉन्ट्रैक्टर लेबर से जुड़े नियमनों का इस्तेमाल करने के लिए ‘कोर बनाम गैर कोर गतिविधियों’ से जुड़ी अवधारणा और प्रक्रियाओं को सामने लाया जाएगा। पहले के बिल में यह भी शामिल नहीं था, लिहाजा श्रम मामलों की स्थायी समिति के सामने इस मुद्दे पर विचार-विमर्श भी नहीं हो पाया था।

यह समझ में आता है कि सरकार सामाजिक कल्याण के मोर्चे पर गलती कर सकती है। लेकिन यह समझ नहीं आता क्या सरकार सामाजिक कल्याण के मामले में इतनी उल्टी दिशा में चल सकती है। औद्योगिक संबंध कोड और कामगारों के स्वास्थ्य कोड यानी OSHWC को देख कर तो यही लगता है।

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(लेखक एक्सएलआरआई,जमशेदपुर में ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट पढ़ाते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

What is Wrong With the Centre’s New Labour Codes

unemployment
Labour Laws
Informal Workers
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CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License