NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
जब पेरिस कम्यून को खून में डूबो दिया गया
(पेरिस कम्यून के डेढ़ सौवीं वर्षगांठ (1871-2021, भाग-2)
अनीश अंकुर
28 May 2021
जब पेरिस कम्यून को खून में डूबो दिया गया

आज 28 मई है। आज ही, डेढ़ सौ वर्ष पूर्व, उस 'खूनी सप्ताह' का अंत हुआ जिसमें एडॉल्फ थिएरस की प्रतिक्रान्तिकारी सेना ने हजारों मज़दूरों व कम्यूनार्डों का नृशंसतापूर्वक कत्लेआम किया गया था। लगभग 30 हजार मज़दूर सिर्फ एक सप्ताह में मार डाले गए। इस 'खूनी सप्ताह' के दरम्यान मज़दूरों के मारे डालने की तुलना 1939-45 के दौरान नाजियों द्वारा किये गए नरसंहार से ही की जा सकती है। 

पेरिस कम्यून का क़त्लेआम और खूनी सप्ताह

21 मई को थियेरस की सेना ने पेरिस के समृद्धतम उत्तरी इलाके से प्रवेश किया। इस इलाके के लोगों ने थियेरस की सेना के साथ सहयोग किया, रास्ता बताया। लेकिन जैसे-जैसे वे शहर के अंदर गए उन्हें कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। हर सड़क, हर गली में कम्यूनार्डों ने बैरिकेड कर खड़ा दिया था। बैरिकेड खड़ा करने का अनुभव, पेरिस के मज़दूरों को 1848 की रक्तरंजित क्रांति के दौरान हासिल किया था। मज़दूरों से थिएरस की सेना से लड़ने के लिए तकरीबन 600 से 900 की संख्या में बैरिकेड खड़े किए। हर गली, मोड़ व सड़क युद्ध स्थल स्थल में तब्दील हो गया था। 

जो तस्वीर आज पेरिस कम्यून प्रतीक बन चुकी है जिसमें वे बैरिकेड के समक्ष कम्यूनार्डों  का समूह लड़ाई के लिए तैयार है। 

थिएरस की सेना ने युद्ध काल के सभी नियमकानूनों को धता बताते हुए अंत सात दिनों में पेरिस के अंदर कहर बरपा दिया। 

पेरिस कम्यून पर कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित इतिहासकार जाॅन मेरीमेन ने अपनी किताब में वर्साई की सेना द्वारा व्यापक पैमाने पर किए गए कत्लेआम का ब्योरा देते हुए लिखा है ‘‘वर्साई की सेना जब घुसी तब कम्युनार्डों ने उनसे भरसक लड़ने का प्रयास किया। लेकिन अंततः उन सबको पकड़कर, एक साथ लाइन में खड़ाकर, गोली मार दी गयी। उनको या तो दीवार के पीछे खड़ा कर गोली मारी गयी या फिर किसी गहरी खाई के किनारे में खड़ा कर गोली मार दी जाती। गोली लगने के बाद कम्युनार्ड खाई में गिर जाते। महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया। दर्जनों महिला कम्युनार्डों को जंजीरों से बांधकर लाया जाता और गोली मार दी जाती। कम्युनार्डों की संख्या इतनी अधिक थी कि मशीनगनों को तीस मिनट तक लगातार चलाते रहना पड़ता था। बंदी बना गए कैदियों को कभी सौ, कभी दौ सौ तो कभी तीन सौ की संख्या में लाकर प्रकार एक साथ मार डाला जाता।"

वैसे तो ‘सिविल वार’ 28 मई समाप्त हो गया था लेकिन मजदूरों की हत्या बदस्तुर जारी रहा। युद्ध समाप्त होने के बाद 20 हजार लोग और मारे गए। जिस किसी पर भी कम्युनार्डों से संबंध होने का थोड़ा भी शक होता वे सभी कत्ल कर दिए जाते। यदि किसी को चेहरा या वेषभूषा कम्युनार्डों की तरह नजर आता, या उसने किसी पर कम्युनार्डों को शरण देने का आरोप ही हो उन सबको मार डाला जाता।

मारे जाने वाले लोगों की असली संख्या का पता लगाना मुश्किल है क्योंकि बहुतों को आग में जला दिया गया और कितने दफना दिए गए जबकि कितने गायब ही कर दिये गए। सिर्फ पेरिस की म्युनिसिपैलिटी ने सत्रह हजार शवों को दफनाने पर खर्च किया था। 

पेरिस के मज़दूरों तो मानो सफाया जैसा कर दिया गया। एक अनुमान के मुताबिक लगभग एक लाख मजदूरों को मार डाला गया या जेल में डाल दिया गया। 1866 से 1872 के मध्य के एक तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चलता है कि 24 हजार जूता बनाने वाले मजदूरों में से आधे से अधिक, तीस हजार दर्जी, बीस हजार में से छह हजार संदूक व आलमीरा बनाने वाले, साढ़े हजार तांबा मजदूरों में से डे़ढ़ हजार मजदूर पेरिस में नहीं थे। यानी इतने लोगों की हत्या कर दी गई। पेरिस कम्यून की समाप्ति के बाद उद्योग जगत और कारीगरी को नौकरी पर रखने वाले लोगों ने कुशल मजदूरों की कमी की शिकायत पायी गयी।

लेकिन इन तमाम मज़दूरों व कम्युनार्डों ने मारे जाते वक्त भी मारने वालों की तुलना में अधिक गरिमा का परिचय दिया। जबकि फ्रांसी का बुर्जआ समाज हत्या होते को देख खुशियां प्रकट करते। प्रोस्पेर ओलिवर लिसागरे जिन्होंने पेरिस कम्यून को अपनी आंखों से देखा था अपनी मशहूर पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ पेरिस कम्यून : 1871' में लिखा है “नरम व नाजुक मिजाज पेरिसवासी कैदियों के पीछे चलते हुए काफिले का संचालन करने वाले फ्रांसीसी सैनिकों की तारीफों के पुल बांधते। वे जब खून से लथपथ वैन देखा करते तो तालियां बजाते। सम्पन्न नागरिकों ने नीचता में तो मारने वाले सैनिकों को भी पीछे छोड़ दिया। पेरिस की सजीली व हँसमुख महिलाएं, मारे गए मज़दूरों के लाशों के बीच जातीं और वीर मृतकों को देख खुशी प्रकट करतीं मानो किसी आनन्ददायक यात्रा पर आई हों।" 

पेरिस के उस बर्जुआ समाज का चेहरा है जो पूरे यूरोप में फैशन, ज्ञान, विद्वता और कला का केंद्र था।

पेरिस कम्यून पर सोवियत संघ में 1929 में बनी महान फिल्म ‘द न्यू बेबीलोन’ में बुर्जआ समाज के अंदर मज़दूरों के प्रति हिकारत को बखूबी दर्शाया गया है। 

पेरिस में इतना अधिक रक्त बहाया गया कि एक जर्मन पत्रिका ने पेरिस कम्यून की दसवीं वर्षगांठ (1881) पर बिल्कुल सही लिखा था "लहू का समुद्र दो दुनियाओं को विभाजित करता था। एक ओर वे लोग थे जिन्होंने एक भिन्न व बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष किया जबकि दूसरी ओर वे थे जो पुरानी दुनिया को बरकार रखना चाहते थे।" 

पेरिस कम्यून के वे ऐतिहासिक 72 दिन 

आखिर बुर्जआ वर्ग द्वारा मजदूरों के साथ इतनी दरिंदगी से व्यवहार करने की वजह क्या थी? कार्ल मार्क्स ने इस जनसंहार को एक पेरिपेक्ष्य में देखने की जरूरत पर बल देते हुए कहा ‘‘बुर्जआ की सभ्यता व न्याय के झंडाबरदारों द्वारा खिलाफ जब कभी भी गुलाम लोगों द्वारा अपने मालिकों द्वारा स्थापित व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह होता है तब यह सभ्यता व न्याय अपना मुखैाटा उतारकर अपने नंगे स्वरूप में चली आती है। जब कभी उत्पादन करने वाले तथा उसके फलों को हड़पने वालों के मध्य संघर्ष छिड़ता है यह बात और स्पष्ट होकर सामने आ जाती है।’’ पेरिस कम्यून ने मज़दूरों ने दरअसल इसी की हिमाकत की थी एक बेहतर दुनिया बनाने का प्रयास किया था।

18 मार्च को पेरिस कम्यून की स्थापना के साथ सत्ता पहली बार उन मजदूरों के हाथो में थी जो इतिहास में अब तक हमेशा हारते ही आए हैं। 

जिस दिन होटल डि विला यानी पेरिस की म्युनिसिपलिटी के दफ्तर पर लाल झंडा फहराया गया उसी दिन यानी 18 मार्च को सेंट्रल कमिटि बैठी। सेंट्रल कमिटि में कई भिन्न-भिन्न किस्म के विचार लोग शामिल थे। सेंट्रल कमिटि बहुत व्यवस्थित राजनीतिशक्ति न थी फिर भी यह बुर्जआ सरकार के बरक्स उनको संतुलित करने वाली एक समानान्तर ताकत था। इस प्रकार सीमित स्तर पर सत्ता के दो केंद्र हो गए थे भले ही वह पेरिस तक सीमित था। लेकिन फ्रांसीसी बुर्जआ सत्ता के दूसरे केंद्र को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं था।

जब थिएरस और उसका प्रशासनिक अमला पेरिस छोड़कर भाग खड़े हुए क्रांति के कुछ प्रतिनिधियों ने यह तर्क रखा कि हमें सिर्फ पेरिस तक महदुद नहीं रहना चाहिए और थियेरस का पीछा करना चाहिए। क्योंकि अभी सैनिकों का मिजाज क्रांतिकारी भावना से लबरेज है। ताकि थियेरस पुनः अपनी सेना को दुबारा गठित नहीं कर सके। लेकिन इन बातों को यह कह कर दरकिनार कर दिया गया कि यदि हम थियेरस का पीछा करते हैं तो हम आक्रमणकारी कहलायेंगे। पेरिस कम्यून को आक्रांता की तरह नहीं दिखना चाहिए बल्कि हम तो विक्टिम हैं। पेरिस कम्यून को अपने उदाहरण से खुद को उनसे बेहतर साबित करना चाहिए तब लोगों को लगेगा ये हम हैं जिनके साथ धोखा किया गया है। 

सेंट्रल कमिटि ने सोचा इस सत्ता को किसी वैध एजेंसी के हाथों में सौपना चाहिए। तब इन लोगों ने म्युनिसिपल चुनावों की तैयारी की। 26 मार्च को म्युनिसिपल चुनाव संपन्न हुए। 

चुनाव में ऐसे लोक चुनकर आये, जो पेशेवर राजनीतिज्ञ नहीं थे अपितु ऐसे लोग थे जिन्हें उन मज़दूरों की दुनिया बाहर कोई नहीं जानता था। राजमिस्त्री, लोहार, धोबी, जूता सरीखे लोग चुनकर कर आये थे। ऐसे लोगों के प्रति समाज का बर्जुआ स्वाभाविक घृणा रखा करता है। इन्ही वजहों से जब थिएरस की प्रतिक्रान्तिकारी सेना इन मज़दूरों को गोली मारने के पहले कटाक्ष करते "ये देखो मिस्त्री ! ये चला था हम पर राज करने!" 

सत्ता में रहने 72 के अपने छोटे से कार्यकाल पेरिस कम्यून ने में दूरगामी महत्व के कदम उठाए। सबसे पहले जनता से भिन्न और अलग सेना (स्टैंडिंग आर्मी) के अस्तित्व को अवैध घोषित कर समाप्त कर दिया गया । उसकी जगह जनता को ही हथियारबद्ध करना तय किया गया। पुलिस को उसके राजनीतिक हस्तक्षेप से अलग कर जनता द्वारा चुनी जाने वाली संस्था में तब्दील कर दिया गया। चर्च को राज्य से अलग कर दिया। धर्म अब नागरिकों का व्यक्तिगत मामला था। शिक्षा को चर्च से अलग कर सबों के लिए शिक्षा को सुलभ करने संबंधी घोषणा की गयी।

चर्च अब महिलाओं के क्लब में तब्दील कर दिया गया जहां वे अपनी समस्याओं पर विचार-विमर्श की बात किया करते थे। महिलाओं ने हर कदम पर पेरिस कम्यून में महत्वपूर्ण व निर्णायक भूमिका अदा की थी। बाल श्रम को और रात्रि पाली में बेकरियों में कार्य प्रतिबंधित कर दिया गया। रोटी की कीमत तय कर दी गई। 

बंद पड़े वैसे फैक्ट्रियों को या जिसके मालिक पेरिस छोड़ कर भाग गए हों, मजदूरों के नियंत्रण में लाया लगा। नेशनल गार्ड को हर सक्षम व्यक्ति के लिए खोल दिया गया। राज्य के सबसे ऊंचे कर्मचारी और मजूदरों के तनख्वाह छह हजार फ्रैंक से अधिक नहीं होना तय किया गया। अफसरों के सभी विशेषाधिकारों को खत्म कर दिया गया। अफसर, मजिस्ट्रेट, जज ये सभी जनता द्वारा चुने जाते। मृत्युदंड को समाप्त कर दिया गया। 

अमीरों के खाली घरों व सार्वजनिक भवनों में बेघरों के लिए व्यवस्था की गयी। नौकरशाही और विधायिका के फर्क को मिटा दिया गया। अब जो कानून बनाएगा उसी पर उसे लागू करने की भी जिम्मेदारी थी। पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए मजदूरों के मध्य घातक प्रतियोगिता पर रोक लगा दी गयी। आर्ट गैलिरियां आम लोगों के लिए खोल दी गयी। 

पेरिस कम्यून : फ्रांस के इतिहास की सबसे ईमानदार सरकार

पेरिस में राहजनी और चोरी-डकैती बंद हो गयी थी,पेरिस की वेश्याएं गायब हो गयी थी। 1848 के बाद पहली बार पेरिस की सड़कें निरापद थी। 

इसके अलावा पेरिस कम्यून सही मायनों में एक अंर्तराष्ट्रीयतावादी सरकार थी जहां राष्ट्रीयता के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता था। पेरिस कम्यून में कई देशों के प्रतिनिधि सरकार के उॅंचे पदों पर थे। दुनिया भर के क्रांतिकारी इटली, जर्मनी, पालैंड के क्रांतिकारी पेरिस कम्यून के संचालन में शामिल थे। विदेशी मजदूरों व क्रांतिकारियों को जिसे पेरिस कम्यून ‘यूनिवर्सल रिपब्लिक’ कहा करते, उसकी स्थापना के संघर्ष का सहयोगी के रूप में मानते थे। 

मार्क्स ने कम्यून के दो सबसे महत्वपूर्ण कदमों की सराहना करते हुए कहा लिखा "पुरानी सरकार के भौतिक ताकत के तत्वों, सेना तथा पुलिस को खत्म करने के बाद पेरिस कम्यून ने उनकी आध्यामिक ताकत यानी चर्च और पादरियों की ताकत का विघटन कर दिया। पादरियों को उनकी निजी जिंदगी जीने के लिए ठीक उसी तरह कहा गया जैसे पूर्व के समय मे करते थे यानी भिक्षाटन द्वारा जीविका चलाते थे।" 

मार्क्स ने कम्यून के संबन्ध में यह भी टिप्पणी भी द्रष्टव्य है" कम्यून ने बर्जुआ क्रांतिकारियों के दो नारों - सस्ती सरकार- को यथार्थ में तब्दील कर दिया। यह कार्य उन्होंने दो सबके खर्चीले स्रोत सेना और कर्मचारियों को नष्ट कर पूरा कर दिया।"

पेरिस कम्यून मजदूरों की शोषण, उत्पीड़न से रहित समाज बनाने के अनूठे प्रयास की सबसे खास बात यह थी कि सब चीजों के संचालन में आम लोगों की बड़े पैमाने पर भागीदारी होती। लेनिन ने जब अपनी मशहूर अप्रैल थीसिस लिखी उसमें समाजवादी समाज का खाका स्पष्ट करते हुए उसके फुटनोट में लिखा कि ‘‘ठीक वैसा ही राज्य जैसा कि अपने भ्रूण रूप में पेरिस कम्यून में था।’’ 

पेरिस कम्यून ने ये सारी उपलब्धियां बेहद मुश्किल हालात में उस वक्त हासिल की जब पेरिस को बिस्मार्क की सेनाओं ने घेरा हुआ था, आर्थिक व्यवस्था खराब थी। लेकिन इसके बावजूद जैसा कि कहा जाता है फ्रांस के समूचे इतिहास में पेरिस कम्यून से ईमानदार सरकार अब तक कोई दूसरी नहीं हुई है।

पेरिस कम्यून के संबंध में फ्रांस के मशहूर यथार्थवादी चित्रकार गुस्ताव कोरबेट (दो महीनों के दौरान जिम्मेदार पद पर भी रहे और जिनकी पहलकदमी पर साम्राज्यवादी प्रतीक मानी जाने वाली नेपोलियन की मूर्ति को ढाह दिया गया था) की यह टिप्पणी द्रष्टव्य है ‘‘पेरिस सही मायनों में स्वर्ग में तब्दील हो गया है। कोई पुलिस नहीं, कोई बेहूदगी नहीं, किसी भी प्रकार का कोई शुल्क नहीं। चाहे कुछ भी हो जाए पेरिस में सबकुछ घड़ी के अनुसार कार्य चलता रहता है। काश यह सब कुछ हमेशा ऐसे ही चलता रहता। पेरिस एक स्वप्न की तरह लगता है।’’ 

परन्तु दुर्भाग्य से यह स्वप्न समाप्त हो गया

अपने 72 दिनों के अंदर पेरिस कम्यून ने जो असाधारण कदम उठाए उसकी अनुगूंज आज डेढ़ सौ साल बाद भी सुनाई पड़ रही है। पेरिस कम्यून ने एक नये युग का सूत्रपात किया।

पेरिस के कम्यूनार्डों को इस बात का अहसास था कि वे एक भविष्य लिए लड़ रहे हैं और उसी के लिए मारे भी जा रहे थे । जब सितंबर 1871 को अंतिम कम्युनार्ड को पकड़ लिया गया। गोली मारे जाने के ठीक पहले पूर्व जो उसने लिख छोड़ा वह स्वर्णाक्षरो में आज भी अंकित है।

‘‘मैं पेरिस कम्यून से संबंधित हूॅं। लेकिन अब मैं इसके शत्रुओं के हाथों में हूॅं। मैं स्वाधीनता के आदर्शों के साथ जीवित रहा और अब उसी के लिए मरने जा रहा हूँ। प्रतिक्रियावादी लोग मेरा सर कलम करना चाहते हैं। ये काम वे शौक से कर लें। मैं आगे आने वाली पीढि़यों के लिए जीवित रहा हूँ। हमारे संघर्षों की स्मृति उन्हें प्रेरणा देगी।’’ 

भाग 1 - जब पहली बार पेरिस के मज़दूरों ने बोला स्वर्ग पर धावा

(आखिर क्यों पराजित हुआ पेरिस कम्युन, भाग-3 )

Paris
Paris commune
working class
capitalism
lenin
Napoleon Bonaparte
France
germany

Related Stories

क्यों USA द्वारा क्यूबा पर लगाए हुए प्रतिबंधों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं अमेरिकी नौजवान

वित्त मंत्री जी आप बिल्कुल गलत हैं! महंगाई की मार ग़रीबों पर पड़ती है, अमीरों पर नहीं

समाजवाद और पूंजीवाद के बीच का अंतर

यूक्रेन की स्थिति पर भारत, जर्मनी ने बनाया तालमेल

मज़दूर दिवस : हम ऊंघते, क़लम घिसते हुए, उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे

ज़रूरी है दलित आदिवासी मज़दूरों के हालात पर भी ग़ौर करना

मई दिवस ज़िंदाबाद : कविताएं मेहनतकशों के नाम

मई दिवस: मज़दूर—किसान एकता का संदेश

मैक्रों की जीत ‘जोशीली’ नहीं रही, क्योंकि धुर-दक्षिणपंथियों ने की थी मज़बूत मोर्चाबंदी

फ्रांस में मैक्राँ की जीत से दुनियाभर में राहत की सांस


बाकी खबरें

  • Ramjas
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    दिल्ली: रामजस कॉलेज में हुई हिंसा, SFI ने ABVP पर लगाया मारपीट का आरोप, पुलिसिया कार्रवाई पर भी उठ रहे सवाल
    01 Jun 2022
    वामपंथी छात्र संगठन स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ़ इण्डिया(SFI) ने दक्षिणपंथी छात्र संगठन पर हमले का आरोप लगाया है। इस मामले में पुलिस ने भी क़ानूनी कार्रवाई शुरू कर दी है। परन्तु छात्र संगठनों का आरोप है कि…
  • monsoon
    मोहम्मद इमरान खान
    बिहारः नदी के कटाव के डर से मानसून से पहले ही घर तोड़कर भागने लगे गांव के लोग
    01 Jun 2022
    पटना: मानसून अभी आया नहीं है लेकिन इस दौरान होने वाले नदी के कटाव की दहशत गांवों के लोगों में इस कदर है कि वे कड़ी मशक्कत से बनाए अपने घरों को तोड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। गरीबी स
  • Gyanvapi Masjid
    भाषा
    ज्ञानवापी मामले में अधिवक्ताओं हरिशंकर जैन एवं विष्णु जैन को पैरवी करने से हटाया गया
    01 Jun 2022
    उल्लेखनीय है कि अधिवक्ता हरिशंकर जैन और उनके पुत्र विष्णु जैन ज्ञानवापी श्रृंगार गौरी मामले की पैरवी कर रहे थे। इसके साथ ही पिता और पुत्र की जोड़ी हिंदुओं से जुड़े कई मुकदमों की पैरवी कर रही है।
  • sonia gandhi
    भाषा
    ईडी ने कांग्रेस नेता सोनिया गांधी, राहुल गांधी को धन शोधन के मामले में तलब किया
    01 Jun 2022
    ईडी ने कांग्रेस अध्यक्ष को आठ जून को पेश होने को कहा है। यह मामला पार्टी समर्थित ‘यंग इंडियन’ में कथित वित्तीय अनियमितता की जांच के सिलसिले में हाल में दर्ज किया गया था।
  • neoliberalism
    प्रभात पटनायक
    नवउदारवाद और मुद्रास्फीति-विरोधी नीति
    01 Jun 2022
    आम तौर पर नवउदारवादी व्यवस्था को प्रदत्त मानकर चला जाता है और इसी आधार पर खड़े होकर तर्क-वितर्क किए जाते हैं कि बेरोजगारी और मुद्रास्फीति में से किस पर अंकुश लगाने पर ध्यान केंद्रित किया जाना बेहतर…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License