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जिसके पास ज़मीन के दस्तावेज़ नहीं, उसके फ़सल की MSP पर ख़रीददारी नहीं!
एक तरफ किसान MSP की लीगल गारंटी के लिए अपनी जान गंवा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार ऐसी नियम बना रही है कि MSP के वैसे फायदे भी खत्म हो जाए जिनका लाभ कुछ किसान और जोरदार उठा पाते हैं। 
अजय कुमार
25 Mar 2021
जिसके पास ज़मीन के दस्तावेज़ नहीं, उसके फ़सल की MSP पर ख़रीददारी नहीं!
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: फेसबुक

हिंदुस्तान के करोड़ों किसानों की मांग है कि एमएसपी की लीगल गारंटी दे दी जाए। इस तरह का नियम बना दिया जाएं कि सरकार अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य का एलान करे तो किसान अपनी उपज को कहीं भी बेचे, किसी के भी जरिए बेचे तो उसे अपनी उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाए। जो व्यवस्था जारी है, जिसमें भारत के 90 फ़ीसदी से अधिक किसानों को अपनी उपज का वाजिब कीमत सरकार के ऐलान के बाद भी नहीं मिल रही है, उस व्यवस्था पर लगाम लगे। इस मांग को लेकर किसान तकरीबन सौ से अधिक दिनों से आंदोलित हैं। सौ से अधिक किसानों ने अपनी जान गंवा दी है। लेकिन सरकार इस मांग पर ध्यान नहीं दे रही। बल्कि ऐसा कदम उठा रही है, जिससे पहले से मिलने वाले किसानों को भी न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना बंद हो जाए।

फूड कॉरपोरशन ऑफ इंडिया ने खाद्य, नागरिक आपूर्ति और उपभोक्ता मामलों के निदेशक को चिट्ठी लिखकर किसानों के लैंड रिकॉर्ड की मांग की है। इसके साथ यह भी कहा है कि उन्हें वह तरीके बताए जाएं, जिससे वह खुद किसानों के लैंड रिकॉर्ड को सत्यापित कर पाए। एफसीआई इन दस्तावेजों की मांग के लिए यह मकसद बता रही है कि वह साल 2021-22 में रबी फसल की पैदावार पर किसानों को एमएसपी सीधे उनके खातों में भुगतान की योजना बना रही है। इसके लिए उसे किसानों के जमीन के दस्तावेज की जरूरत है। 

इस योजना के नफा-नुकसान का अंदाजा खुद लगा सकते हैं। अगर आप किसी गांव में रहते हैं तो अपने आसपास के लोगों से उनके जमीन से जुड़े दस्तावेज के बारे में पता कीजिए। आप देखेंगे कि अधिकतर लोग ऐसे हैं जिनके पास अपने जमीन के दस्तावेज नहीं हैं। दस्तावेज क्यों नहीं है? इसके पीछे बहुत सारे कारण हैं। सबसे प्रचलित कारण तो यह है कि आज किसी के पास 2 बीघा जमीन है और उसके चार लड़के हैं। तो आज से तकरीबन 30-40 साल बाद उस जमीन का चार टुकड़ों में बंटवारा हो जाएगा। यह सब मौखिक तौर पर होगा। कोई कागजात नहीं बनेंगे। क्योंकि यह सब पहले से होता आ रहा है। ठीक इसी तरह से अतीत के बारे में सोच लीजिए। आपको बहुतेरे उदाहरण मिल जाएंगे। यह तो महज एक उदाहरण है। पंचायत के मुखिया और जमीन के पटवारी से आप अनेकों ऐसे उदाहरण से गुजरेंगे तो आपको चलेगा की जमीन को दस्तावेज बनाकर भारत में कोई भी सरकारी योजना गरीबों तक नहीं पहुंच सकती। वह योजना तो बिल्कुल भी नहीं जिस योजना का जुड़ाव जमीन पर मेहनत करने वाले किसानों की उपज और उपज की वाजिब कीमत से है। 

पंजाब का ही उदाहरण देख लीजिए। साल 2015 - 16 के कृषि सर्वेक्षण के मुताबिक पंजाब में 10.93 लाख जमीन के टुकड़े पर खेती हो रही है। लेकिन इसका कहीं से भी मतलब यह नहीं है कि इन जमीनों के किसानों के मालिक की संख्या भी इतनी ही होगी। रिकॉर्ड की माने तो इन जमीनों का मालिकाना हक तकरीबन 16 लाख लोगों के बीच बांटा हुआ है। इसके अलावा तकरीबन 9.50 लाख लोग ऐसे हैं जिनके पास जमीन नहीं है लेकिन वह फसल उपजाने के काम से जुड़े हुए हैं। जिन्हें अंग्रेजी में कल्टीवेटर हिंदी में जोरदार कहा जाता है।

यहां समझने वाली बात यह है कि जमीन का मालिकाना हक 16 लाख लोगों के बीच बंटा हुआ है लेकिन इनमें से तकरीबन 40 से 50 फ़ीसदी लोग खेती किसानी का कोई काम नहीं करते हैं। वह महज जमीन के मालिक हैं। उनकी जमीन पर दूसरे लोग काम करते हैं। वे अपनी जमीन का किराया वसूलते हैं या उसे बटाई पर दे देते हैं या उसे रेहन पर रख देते हैं। कई तरह के तरीकों से वह अपनी जमीन से छुटकारा भी पा लेते हैं, जमीन का मालिकाना हक अपने पास रखते हैं और दूसरे उनकी जमीन पर खेती किसानी करते हैं।

यह ऐसे लोग है जिनकी जिंदगी का मुख्य उद्यम खेती किसानी नहीं बल्कि कोई दूसरा धंधा होता है। कोई प्राइवेट नौकरी कर रहा है, कोई सरकारी नौकरी कर रहा है, कोई दूसरे मुल्क में जाकर नौकरी कर रहा है। केवल अपनी जमीन पर खेती किसानी नहीं कर रहा है। ऐसे में क्या होगा? एमएसपी का पैसा उन्हीं के खातों में पहुंचेगा जिनके नाम से जमीन के दस्तावेज हैं। यह कोई नई बात नहीं है। सरकार की कृषि से जुड़े कई योजनाओं का लाभ यही लोग उठाते आ रहे हैं जिनके पास जमीन तो है लेकिन जो जमीन पर खेती किसानी नहीं करते।

कृषि मामलों के जानकार और पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सुखपाल सिंह इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि जिनके पास जमीन नहीं है वह तो दूसरे की जमीन पर खेती करते ही हैं साथ में जिनके पास जमीन की बहुत छोटी जोत है यानी छोटे किसान वह भी दूसरे की जमीन लेकर खेती करते हैं। मालिक और जोरदार के अधिकतर पट्टे मौखिक होते हैं। एक दूसरे के साथ सद्भावना के भरोसे की बुनियाद पर तय होते हैं। यह लोग दस्तावेज कहां से लाएंगे? इनकी पहचान कैसे हो पाएगी? पहले के सिस्टम में आढ़तिए के जरिए पैसा किसान की जेब में पहुंचता था और इस सिस्टम में सारा पैसा जमीन के उस मालिक के पास जाएगा जो महज कागजों पर मालिक है।

जमीन के मालिक और जोतदारों के बीच अंतर होने की वजह से सरकार की सारी कृषि योजनाओं से जुड़ी सरकारी मदद डायरेक्ट ट्रांसफर के तौर पर जमीन के मालिक के खाते में आती हैं। अधिकतर मामलों में ना जमीन का मालिक पैसा देता है और ना ही जोतदार जमीन के मालिक से पैसा मांगता है। जोरदार को लगता है की मांगना उसका अधिकार नहीं है और मालिक को लगता है कि देना उसका अधिकार नहीं है। इसके अलावा कुछ मामले ऐसे भी होते हैं जहां पर जोरदार सोचता है कि कौन चंद पैसों के लिए मालिक से संबंध खराब करने जाए।

अगर लेन-देन वाली स्थिति पनपती भी है तो मालिक यह कहता है कि जमीन का किराया इसमें ही काट लेगा। यानी किसी भी तरह से जोरदार के पास पैसा नहीं आता। जमीन के मालिक के पास ही रहता है। उस मालिक के पास जिसके पास जमीन के दस्तावेज होते हैं। 

जमीन के दस्तावेज के आधार पर सीधे खाते में पैसा पहुंचाने वाले सरकार के इस नियम के बाद फिर से यही होने वाला है। एक बहुत बड़ी आबादी जिसमें से अधिकतर हिस्सा पिछड़ी और निचली जातियों का है, जो जमीन पर दिन -रात मेहनत कर फसल उपजाती है। जिसके कुछ हिस्से को पंजाब जैसे राज्यों में सरकारी मंडी होने की वजह से एमएसपी मिल जाया करता था, वह अब एमएसपी से दूर होने वाली है। उसे अब एमएसपी नहीं मिलने वाली है। 

किसान इस बात के लिए संघर्ष कर रहे हैं कि वह कहीं भी अपनी उपज को बेचें तो उन्हें बहुत ज्यादा नहीं लेकिन कम से कम सरकार द्वारा ऐलान किए गए न्यूनतम समर्थन मूल्य की कीमत तो मिल ही जाए ताकि उनकी मेहनत का शोषण न हो। इसे कानूनी गारंटी में तब्दील करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन सरकार है कि वह यह बताने में लगी हुई है कि उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता। वह वही करेगी जो उसका चिंतन कहता है। भले ही किसान मर क्यों न जाए। जो एमएसपी किसानों के महज 15 फ़ीसदी के हिस्से को भी नहीं मिलती, जिसे सबको देने की जरूरत है। यह करने की बजाय सरकार उल्टा कर रही है। 15 फ़ीसदी के आसपास मिलने वाले एमएसपी के दायरे को भी कम कर रही है।

प्रोफेसर सुखपाल सिंह कहते हैं कि इस तरह के कदम उठाने का मतलब है कि सरकार धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद को कम करने की तरफ बढ़ रही है। जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद हर किसान और जोतदार का अधिकार है।

इस नियम का असर यह हुआ है कि पंजाब में 1 अप्रैल से सरकार के जरिए खरीदी जाने वाली गेहूं की प्रक्रिया अधर में फंस गई है। पंजाब के किसान दस्तावेज के इंतजाम में लगे हुए हैं। जो किसान अपने दस्तावेज का इंतजाम नहीं कर सकते, उनकी निराशा बढ़ रही है। राज्य सरकार केंद्र सरकार से नियम वापस लेने के लिए गुहार लगा रही है, लेकिन केंद्र सरकार इसे वापस न लेने पर तुली हुई है।

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