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क्यों कृषि क्षेत्र का मतलब केवल अनाज उपजाना नहीं होता?
नए कृषि कानूनों पर ढेर सारी बातचीत हुई है लेकिन पूरा कृषि परितंत्र क्या है? यह विषय अछूता रह गया है, तो चलिए भारतीय कृषि क्षेत्र के सभी हिस्सों को समझते हैं ताकि यह समझा जा सके कि क्यों कृषि क्षेत्र की चुनौतियां बहुत अधिक जटिल है?
अजय कुमार
21 Dec 2020
कृषि क्षेत्र
फोटो साभार : सोशल मीडिया

अपने खाने की प्लेट में रखे हुए अनाज को कभी ध्यान से देखिए। और सोचते चले जाइए। किसान अनाज पैदा करता है। अनाज एक ऐसी चीज है जिसकी जरूरत इस दुनिया को तब तक है जब तक यहां इंसान हैं। इसलिए अगर कोई यह समझे कि कृषि क्षेत्र का मतलब केवल किसान है तो वह कृषि क्षेत्र को बिल्कुल नहीं समझ रहा है। कृषि क्षेत्र बहुत ही जटिल मसला है। इसकी वजह यह है कि इससे सभी  जुड़ते हैं। अब किसान को ही देख लीजिए। हम सब उसे केवल उत्पादक के तौर पर देखते हैं जबकि हकीकत यह है कि वह उत्पादक के साथ-साथ उपभोक्ता भी है। प्रोड्यूसर के साथ-साथ कंज्यूमर भी है।

नए कृषि कानूनों पर ढेर सारी बातचीत हुई है लेकिन पूरा कृषि परितंत्र क्या है? यह विषय अछूता रह गया है, तो चलिए भारतीय कृषि क्षेत्र के सभी हिस्सों को समझते हैं ताकि यह समझा जा सके कि क्यों कृषि क्षेत्र की चुनौतियां बहुत अधिक जटिल है?

क्यों कुछ नियम और कानून बना देने से इसका  हल नहीं निकलने वाला। बल्कि इनमें सजग सरकारी हस्तक्षेप और प्रबंधन की हमेशा जरूरत है।

सबसे पहले एक उदाहरण देखिए। बलराम के पास 2 एकड़ जमीन है। बलराम की तरह हिंदुस्तान के तकरीबन 86% किसान हैं। क्योंकि फसल जमीन पर होती है। इसलिए हिंदुस्तान की सारी जमीन को दिमाग में रख कर देखिए। कहीं की जमीन उबड़ खाबड़ हैं। कहीं की जमीन समतल है। कहीं दोमट मिट्टी है तो कहीं पथरीली मिट्टी है तो कहीं रेतीली मिट्टी है तो कहीं चिकनी और काली मिट्टी है। किसी जमीन की उर्वरा शक्ति कमजोर है तो किसी जमीन की उर्वरा शक्ति ठीक-ठाक है। कहीं पानी की अधिक जरूरत है तो कहीं पानी की कम जरूरत है। इसके साथ मौसम को जोड़िए। जैसे जैसे मौसम बदलता है वैसे वैसे फसल का मिजाज बदलता है। फसल लगाने की प्रकृति बदलती है। मौसम के मिजाज पर बहुत कुछ निर्भर करता है। यह पूरी तरह से किसान के बूते से बाहर की बात है। इस पर किसान का नियंत्रण नहीं। इसलिए बहुत अधिक बारिश सूखा ठंडा और गर्म फसल को बिगाड़ देता है। और ठीक इसका उल्टा भी होता है।

इस तरह की बहुत सारी चीजें हैं जो किसान की व्यक्तिगत नियंत्रण से बाहर होती हैं। अब सोचिए 2 एकड़ जमीन पर फसल उगाने के बाद फसल के भंडारण की जरूरत होती है। बहुत सारे घरों में भंडारण की क्षमता ही नहीं होती है। अगर सब्जी की फसल हुई और भंडारण का तंत्र नहीं होता है तो वह कुछ दिन बाद बेकार हो जाती है। उसे या तो किसान औने-पौने दाम में बेच देते हैं। अगर नहीं बिकती है तो गुस्से में आकर खुद ही बर्बाद कर देते हैं। उपज की परेशानी की शुरुआत यहीं से होती है।

कहने का मतलब यह कि खेत में अनाज हो तो गया लेकिन इसका भंडारण कैसे हो? अब अगर भंडारण हो गया तो बेचने की परेशानी खड़ी हो जाती है। ठीक घर के बाहर तो बाजार होता नहीं है। बाजार में भी कृषि बाजार नहीं होता है। बाजार के नाम पर जो स्थानीय व्यापारी खरीदते हैं वह बहुत कम कीमत देते हैं। आंकड़े बताते हैं कि कृषि  मंडियों तक तकरीबन 92 फ़ीसदी उपज नहीं पहुंच पाती। यहीं पर सारा खेल है।

बहुतेरे किसानों के पास ठीक-ठाक कमाने लायक जमीन नहीं है। अगर जमीन है भी तो पैदावार बहुत कम है। पैदावार हो गया तो वह बाजार नहीं है जहां उनको सही कीमत मिल पाए। किसान की बहुत बड़ी आबादी जैसे तैसे उपज को किसी स्थानीय क्रेता को बेचती है। बहुत कम दाम मिलता है। इतना कम कि बिहार के एक किसान की वार्षिक आय तकरीबन पचास हजार भी नहीं पूरी हो पाती। इस पैसे से किसान अपना घर चलाता है। अगली पैदावार के लिए फिर से फसल और जमीन पर लगने वाली लागत को बचाता है। इस लागत का भार बहुत सारे किसान खुद नहीं उठा पाते। इसलिए किसी बैंक या साहूकार से लोन लेते हैं।

यानी किसानों के साथ अनाज के बाजार के साथ-साथ कर्जे का व्यापार भी चलता है। इसके बाद किसान चूंकी खुद इंसान है कोई मशीन नहीं। और वह सबकुछ अपने खेत में नहीं उगा सकता। इसलिए वह भी बाजार से अनाज खरीदता है। बाजार से सब्जी खरीदता है। एक आम उपभोक्ता होने के नाते उसे भी सस्ती सब्जी और सस्ता अनाज चाहिए।

इन सब के बाद जो किसी को नहीं दिखता वह प्रकृति होती है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं का बहुत अधिक आग्रह है कि किसान ऐसी खेती करें जो पर्यावरण के मुफीद हो। जो सस्टेनेबल हो। हरित क्रांति की वजह से पंजाब और हरियाणा में इतनी अधिक सिंचाई की गई है कि पंजाब और हरियाणा का जल स्तर बहुत अधिक नीचे चला गया है। रासायनिक खादों के बेजा इस्तेमाल की वजह से जमीन की उर्वरा शक्ति कमजोर हो गई है। सभी का कहना है कि पंजाब और हरियाणा के किसान धान और गेहूं के अलावा दूसरी तरह की खेती करें। क्योंकि खेत किसानों की है इसलिए किसी भी दूसरे व्यक्ति के उपदेश की बजाय किसानों को सबसे अधिक पता है कि धान और गेहूं की बहुत अधिक खेती की वजह से उनके जमीन की उर्वरा शक्ति कमजोर हो रही है। लेकिन दिक्कत यह है कि सरकारी मंडियों में धान और गेहूं की एमएसपी मिल जाती है तो दूसरे फसलों की नहीं मिलती। इसलिए किसान करे भी तो क्या करे? सरकार को चाहिए कि वह एक ऐसा बाजार बनाए जिसमें सभी फसलों को सही कीमत मिले, तब जाकर यह संभावना बनती है कि पंजाब और हरियाणा के किसान दूसरे फसलों की तरफ देखें।

इस पूरे उदाहरण से यह बात साफ है कि कृषि क्षेत्र किसी फैक्ट्री की तरह नहीं होता है। कच्चा माल लाया। लेबर लगाई। मशीन का इस्तेमाल किया। और पक्का माल बाजार में बेचकर कीमत वसूल ली। कृषि क्षेत्र किसी उद्योग की बजाए बहुत अधिक जटिल क्षेत्र है। कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि  अगर कृषि क्षेत्र को बड़े ही कायदे से बांटा जाए तो इसके 5 हिस्से बनते हैं। प्रोडक्शन का हिस्सा, बाजार का हिस्सा, कंजूमर का हिस्सा, फार्मर का हिस्सा, और सस्टेनेबल डेवलपमेंट का हिस्सा। इन पांचों के बीच जब बेहतर तालमेल होगा तब जाकर किसान को फायदा होगा। बेहतर तालमेल और प्रबंधन की स्थिति अभी तक नहीं आई है। इसकी वजह से सबसे अधिक किसी को घाटा सहना पड़ रहा है तो वह केवल किसान है। कहने का मतलब यह कि अगर इन पांचों क्षेत्र में बेहतर तालमेल नहीं, बेहतर प्रबंधन नहीं तो यह हो रहा है कि किसान को सबसे अधिक मार झेलनी पड़ रही है।

इसे ऐसे समझें कि एक किसान ने गोभी की पैदावार की। ढंग के बाजार के अभाव में उसे मजबूरन एक रुपए किलो में अपनी पूरी गोभी बेचनी पड़ी। जब वो खुद उपभोक्ता बनकर बाजार में गया तो उसे 50 रुपये किलो में गोभी मिली। उसकी तरह जो दूसरे मजदूर वर्ग से थे। कम कमाई करते थे। जिनके लिए महंगाई कमर तोड़ने के बराबर होती है। उनके लिए भी जब गोभी प्याज का दाम ऊपर नीचे हुआ तो उन पर असर पड़ा। यानी किसान को उचित दाम दिलाना भी जरूरी है और उपभोक्ता को सस्ते में अनाज दिलवाना भी जरूरी है। इसकी वजह यह है कि भारत की तकरीबन 90 फ़ीसदी आबादी की महीने की आमदनी 10 हजार रुपये है। यानी कृषि का बाजार बहुत जटिल है। इसे प्रबंधित करना आसान काम नहीं।   भारत की सारी आईआईएम की विद्वता कंपनियों में लगी होती है जबकि इसे कृषि क्षेत्रों में लगना चाहिए। इन सवालों का जवाब ढूंढना चाहिए कि कैसे किसानों की उपज की लागत कम हो? किसानों की आमदनी बेहतर हो? उपभोक्ताओं को सस्ते में अनाज मिल जाए? अगर अधिक अनाज हो तो वह एफसीआई के गोदामों में सड़ने की बजाय भारत सहित दुनिया के किसी भी कोने में जरूरतमंद लोगों तक पहुंच जाए। और ऐसा करते हुए पर्यावरण को भी बहुत अधिक नुकसान ना पहुंचे।

कृषि विशेषज्ञ और मानव शास्त्री मेखला कृष्णमूर्ति रूरल डेवलपमेंट एंड फूड सिक्योरिटी फोरम के प्लेटफार्म पर कहती हैं कि खेती किसानी बहुत ही जटिल धंधा है। इसमें एक किसान हर दिन रिस्क उठाते हुए आगे बढ़ता है। जमीन चाहे कितनी भी हो लेकिन सब किसान सामान्य तौर पर कुछ जोखिम उठाते ही उठाते हैं। जैसे मौसम और बाजार का रिस्क। एक दिन का खराब मौसम पूरी फसल बर्बाद कर सकता है। सब कुछ करने के बाद अच्छे कृषि बाजार का ना होना एक किसान को बहुत पीछे धकेल देता है। 

अब जमीन को ही देखा जाए। बहुत सारे किसानों के पास अपनी जमीन के मालिकाना हक का दस्तावेज नहीं है। दस्तावेज की कमी की वजह से जमीन का ट्रांसफर करने में मुश्किल आती है। बहुत सारे लोग दूसरे की जमीन पर खेती कर रहे हैं। कई सारे लोग बटाईदार हैं। इन्हें जमीन के मालिकाना हक के अभाव में सरकार की तरफ से उपज की लागत से जुड़े हुए कई खर्चे पर मिलने वाली सब्सिडी नहीं मिलती हैं। जैसे-जैसे पीढ़ियां बदलती हैं 10 एकड़ की जमीन बंटते बंटते तीन पीढ़ी बाद आधे एकड़ में बदल जाती है। इसके अलावा भूमि अधिग्रहण होता है गांव शहरों में तब्दील होते हैं। इन प्रक्रियाओं में जमीन कम होती चली जाती है। भारत के कई सारे इलाकों की जमीन की उर्वरा शक्ति कम हो रही है। हर इलाके में अपनी जमीन पर उगी हुई फसल को बचाने के लिए किसान रात रात भर रखवाली करता है। कभी उत्तर भारत में केले के सीजन में घूम कर आइए। आपको पता चलेगा कि खेती किसानी कितना जोखिम भरा काम है।

इस तरह से खेती किसानी के सारे  सिरे कई तरह के कामों से जुड़ते हैं। या आप यह कह लीजिए कि खेती किसानी से अनाज पैदा होता है। अनाज सब की जरूरत है। इसलिए कृषि क्षेत्र दुनिया की मौलिक अर्थव्यवस्था है। जिसके ऊपर दूसरे ढांचे खड़े है।

हाल फिलहाल की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि कृषि क्षेत्र का बाजार विकसित नहीं हुआ है। सरकार इन तीनों कानूनों के जरिए कृषि क्षेत्र के बाजार को विकसित करने की बात कर रही है। सरकार का कहना है कि जब पूरी तरह से प्राइवेट लोग कृषि बाजार संभालेंगे तो कृषि बाजार खुद पर खुद विकसित हो जाएगा। वह कह रही है की प्राइवेट लोग किसान की फसल खरीदेंगे। उस फसल के भंडारण की व्यवस्था करेंगे। फसल को वहां तक पहुंचाएंगे जिससे वह कृषि औद्योगिक माल में तब्दील हो सके। यह सारा काम जब बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के केवल प्राइवेट लोग करेंगे तो अपने आप कृषि बाजार विकसित हो जाएगा। और इस बाजार में किसानों को बढ़िया दाम मिलेगा। सरकार कि यह बात सुनने में  भले अच्छी लगे लेकिन यह हक़ीक़त नहीं है। जिस तरह से कृषि क्षेत्र को संक्षिप्त में पूरी तरह से मैंने दर्शाया है उससे साफ है कि सरकार कृषि क्षेत्र को केवल किताबी ढंग से समझ रही है। हकीकत यह है कि तकरीबन 92% अनाजों की खरीद बिक्री प्राइवेट लोगों के जरिए होती है। सरकार की इसमें कोई दखल अंदाजी नहीं है। लेकिन अभी तक एक बढ़िया कृषि बाजार खड़ा नहीं हो पाया है। किसानों को अपनी उपज का सही कीमत नहीं मिल पाती है। 

इसकी वजह यही है कि कृषि क्षेत्र कई क्षेत्रों से जुड़ता है। कई तरह की जोखिमों के साथ चलता है। सबसे पिछड़े हुए लोग यहां काम करते हैं। इन सब को लेते हुए उत्पादक और उपभोक्ता दोनों के बीच सही तरह का संतुलन और समन्वय बनाना पड़ता है। यह सब काम तभी हो पाएगा जब सभी मिलकर कृषि क्षेत्र को संभालने की कोशिश करेंगे। जहां पर सभी मिलकर संभालने की बात आती है वहां पर सरकार की भूमिका आती है। ना कि प्राइवेट लोगों की। इसीलिए कई सारे कृषि विशेषज्ञों का तर्क है कि किसानों को अपने जोखिम की भरपाई करने के लिए मिनिमम सपोर्ट प्राइस तो मिलना ही चाहिए। बिना इसके कृषि क्षेत्र की दूसरी परेशानियों को नहीं साधा जा सकता है।  इन सभी परेशानियों को साधने का काम केवल सरकार के बस की बात है। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह ऐसा कानून ना बनाएं जिससे सरकार ही कृषि क्षेत्र से भाग जाए। बल्कि वह ऐसा रेगुलेशन बनाएं जिससे कृषि क्षेत्र का मुकम्मल विकास हो पाए। एक लाइन में कहा जाए तो एक किसान की किस्मत तभी चमक सकती है जब सरकार हाथ खड़े करने की बजाय उसका सहारा बने।

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