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पर्यावरण
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क्या बंदूक़धारी हमारे ग्रह को साँस लेने देंगे
जलवायु संकट से लड़ने के लिए जितनी बड़ी जिम्मेदारी अमेरिका को निभानी है वह उतनी ही छोटी जिम्मेदारी निभाने की जुगत में लगा रहता है। अगर दुनिया के विकसित देशों ने परंपरागत ऊर्जा स्त्रोतों के बजाए जलवायु सम्मत ऊर्जा स्त्रोतों पर अधिक निवेश नहीं किया तो जलवायु संकट से बचना मुश्किल हो जाएगा।
ट्राईकोंटिनेंटल : सामाजिक शोध संस्थान
11 Nov 2021
Will the People with Guns Allow Our Planet to Breathe
क्रिस जॉर्डन (यूएसए), चपटी की हुई कारें #2 टैकोमा, 2004

यह शायद उपयुक्त है कि संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन जलवायु आपदा पर पार्टियों के 26वें सम्मेलन (सीओपी26) के लिए, ख़ुद को 'आई एम अ कार गाय' घोषित करने के दो महीनों के भीतर पिच्चासी कारों के दस्ते के साथ ग्लासगो पहुँचे। (जलवायु आपदा पर अधिक जानकारी के लिए हमारा रेड अलर्ट संख्या 11, 'केवल एक पृथ्वी' पढ़ें)। दुनिया के केवल तीन देशों में अमेरिका की तुलना में प्रति व्यक्ति कारों की संख्या अधिक है, और इन देशों (फ़िनलैंड, अंडोरा और इटली) में संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में बहुत कम आबादी है।

बाइडेन ने जी20 शिखर सम्मेलन, पोप फ़्रांसिस से मुलाक़ात और सीओपी26 बैठक के लिए रवाना होने से ठीक पहले, अपने प्रशासन को तेल उत्पादक देशों (ओपेक तथा अन्य देशों) पर 'आपूर्ति के मामले में आवश्यक काम करने' -अर्थात् तेल उत्पादन बढ़ाने के लिए- दबाव बनाने का आदेश दिया था। जब अमेरिका तेल उत्पादन बढ़ाने के लिए ओपेक तथा अन्य देशों पर दबाव डाल रहा था, तभी संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने वैश्विक उत्सर्जन पर अपनी प्रमुख रिपोर्ट जारी की। यूएनईपी ने बताया है कि जी20 देश वैश्विक ग्रीनहाउस गैसों के लगभग 80% उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं और तीन सबसे अधिक प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन करने वाले देश हैं सऊदी अरब, ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त राज्य अमेरिका। चूँकि सऊदी अरब (3.4 करोड़) और ऑस्ट्रेलिया (2.6 करोड़) की आबादी संयुक्त राज्य अमेरिका (33 करोड़) की आबादी की तुलना में बहुत कम है, यह स्पष्ट है कि अमेरिका इन अन्य दो देशों की तुलना में बहुत अधिक मात्रा में कार्बन डाईऑक्सायड का उत्सर्जन करता है: वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का 1.2% उत्सर्जन ऑस्ट्रेलिया करता है, जबकि सऊदी अरब 1.8% और संयुक्त राज्य अमेरिका 14.8% उत्सर्जन करता है।

फ़्रांसेस्को क्लेमेंटे (इटली), सड़क सोलह तावीज़ (बारहवीं), 2012-2013

ग्लासगो बैठक से पहले, जी20 देशों के नेता जलवायु आपदा पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने के लिए रोम में मिले थे। इस बैठक के बाद 'जी20 रोम लीडर्स डिक्लेरेशन' के नाम से जो विज्ञप्ति निकली वह 'मेक प्राग्रेस', 'स्ट्रेंग्थेन ऐक्शंज़' और 'स्केल अप' जैसे वक्याशों से भरी नीरस विज्ञप्ति थी। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट के अनुसार, जब तक कार्बन उत्सर्जन कम नहीं किया जाता, तब तक पूर्व-औद्योगिक स्तर से ज़्यादा-से-ज़्यादा 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक ग्लोबल वॉर्मिंग का अहम लक्ष्य पूरा कर पाना संभव नहीं है। आईपीसीसी के अनुसार यदि कार्बन उत्सर्जन को अब से नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन प्राप्त कर लेने तक 300 गीगाटन तक घटा दिया जाता है तो इस लक्ष्य तक पहुँचने की 83% संभावना है। (वर्तमान में जीवाश्म ईंधन से हर साल 35 गीगाटन कार्बन डाईऑक्सायड का उत्सर्जन होता है)। यदि हम उत्सर्जन को केवल 900 गीगाटन तक कम करते हैं, तो वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि तक पहुँचने की केवल 17% संभावना है। आईपीसीसी का सुझाव है कि दुनिया जितनी तेज़ी से नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की ओर बढ़ेगी, ग्लोबल वार्मिंग के भयावह स्तरों को रोकने की संभावना उतनी ही बेहतर होगी।

2015 में पेरिस में हुई सीओपी21 बैठक में, किसी भी शक्तिशाली देश ने 'नेट ज़ीरो उत्सर्जन' के बारे में बात नहीं की थी। अब, आईपीसीसी की रिपोर्ट और जलवायु आपातकाल पर दुनिया भर में व्यापक अभियानों का धन्यवाद करना चाहिए कि यह वाक्यांश उन नेताओं को मजबूरीवश अपने मुँह से बोलना पड़ रहा है जो वैसे 'कार गाइज़' बनना पसंद करते हैं। यद्यपि 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन की ओर बढ़ने की आवश्यकता के बारे में पिछले कुछ वर्षों से बात हो रही है, जी 20 के बयान ने इसे नज़रअंदाज़ करते हुए एक अस्पष्ट सूत्र पेश किया कि कुल उत्सर्जन 'मध्य शताब्दी तक या उसके आसपास' समाप्त हो जाना चाहिए। वैश्विक मीथेन उत्सर्जन के बारे में बात करने की भी इच्छा बहुत कम ही थी, जो कि कार्बन डाईऑक्सायड के बाद दूसरी सबसे ज़्यादा मात्रा में पाई जाने वाली मानवजनित ग्रीनहाउस गैस है।

इवान सुआस्तिका (इंडोनेशिया), पृथ्वी का सौंदर्य और पृथ्वी का कष्ट सहने वाले, 2020

सीओपी26 की बैठक से पहले संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बैकलेट ने कहा था कि 'यह ख़ाली भाषणों, टूटे वादों और अधूरे संकल्पों को हमारे पीछे छोड़ देने का समय है। हमें क़ानून पारित करने, कार्यक्रमों को लागू करने और निवेश को बिना किसी देरी के तेज़ी से और उचित रूप से वित्त पोषित करने की आवश्यकता है'। हालाँकि, 1992 में रियो डी जनेरियो में पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन के बाद से ही देरी हो रही है। स्टॉकहोम (1972) में आयोजित मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन के बाद, दुनिया के देशों ने दो काम करने का संकल्प लिया था: पर्यावरण के क्षरण को वापस मोड़ना और विकसित और विकासशील देशों की 'सामान्य लेकिन अलग-अलग ज़िम्मेदारियों' को पहचानना। यह स्पष्ट था कि विकसित देशों - और मुख्य रूप से पश्चिमी देशों, यानी पुरानी औपनिवेशिक शक्तियों- ने 'कार्बन बजट' के अपने हिस्से से कहीं अधिक का उपयोग किया था, जबकि विकासशील देश जलवायु तबाही के लिए उतने ज़िम्मेदार नहीं थे और अपनी-अपनी जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने का दायित्व निभाने के लिए संघर्ष कर रहे थे।

रियो फ़ॉर्मूला -सामान्य और अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ- क्योटो प्रोटोकॉल (1997) और पेरिस समझौते (2015) में भी दोहरा गया। वादे किए गए, लेकिन उन्हें पूरा नहीं किया गया। विकसित देशों ने वादा किया कि जलवायु आपदा के विनाशकारी परिणामों को कम करने और कार्बन आधारित ऊर्जा पर निर्भरता को ऊर्जा के अन्य स्रोतों में स्थानांतरित करने के लिए 'जलवायु वित्त' देंगे। यह ग्रीन क्लाइमेट फ़ंड 2009 में ली गई प्रतिज्ञा कि हर साल इसमें 100 बिलियन डॉलर इकट्ठे किए जाएँगे की प्रतिबद्धता से बहुत कम रहा है। रोम जी20 बैठक इसे पूरा करने की दिशा में किसी आम सहमति पर नहीं पहुँची; इस बीच, यह स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है कि महामारी के दौरान, मार्च 2020 से मार्च 2021 के बीच, मुख्य रूप से विकसित देशों में, कुल 16 ट्रिलियन डॉलर का राजकोषीय प्रोत्साहन वितरित किया गया था। जलवायु वित्त के बारे में गंभीर चर्चा की असंभाव्यता को देखते हुए यह माना जा सकता है कि सीओपी26 विफल रहेगा।

हे नेंग (चीन), तट, 1986

दुर्भाग्य से, चीन की वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति को रोकने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की तमाम कोशिशों के चलते सीओपी26 प्रक्रिया ख़तरनाक भू-राजनीतिक तनावों के जाल में फँस गई है। बहस के केंद्र में कोयला है, इस तर्क के साथ कि जब तक चीन और भारत अपने कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों में कटौती नहीं करेंगे, तब तक कार्बन उत्सर्जन में कमी करना संभव नहीं होगा। सितंबर में संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा था कि, 'चीन 2030 से पहले कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को चरम पर ले जाने और 2060 से पहले कार्बन न्यूट्रैलिटी हासिल करने का प्रयास करेगा'; उन्होंने यह भी कहा कि चीन 'विदेशों में कोयले से चलने वाले नये संयंत्र नहीं बनाएगा'। यह एक महत्वपूर्ण बयान था, जो अन्य प्रमुख वैश्विक शक्तियों द्वारा किए गए किसी भी वादे से बहुत बड़ा था। चीन की इस प्रतिबद्धता पर विश्वास और उसके बल पर कुछ पुख़्ता निर्माण करने के बजाय, पश्चिम द्वारा संचालित बहस में मुख्य रूप से चीन और अन्य विकासशील देशों को बदनाम करने और जलवायु तबाही के लिए उन्हें दोषी ठहराने की कोशिश की जा रही है।

आईपीसीसी के सबूतों को देखते हुए, अर्थशास्त्री जॉन रॉस ने हाल ही में दिखाया कि 2005 के स्तर से वर्तमान उत्सर्जन को 50-52% तक कम करने के संयुक्त राज्य के प्रस्ताव के बावजूद, अमेरिका का प्रति व्यक्ति कार्बन डाईऑक्सायड उत्सर्जन 2030 में औसत वैश्विक स्तर का 220% होगा। यदि अमेरिका अपने इस लक्ष्य तक पहुँच भी जाता है, तो 2030 में उसका प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन चीन के वर्तमान उत्सर्जन से 42% अधिक होगा। अमेरिका ने सुझाव दिया है कि वह 2030 तक उत्सर्जन में 50% की कमी देखना चाहता है; पर चूँकि यह उत्सर्जन के मौजूदा असमान स्तरों पर आधारीत होगा, इसलिए अमेरिका को 8 टन, चीन को 3.7 टन, ब्राज़ील को 1.2 टन, भारत को 1.0 टन और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगो को 0.02 टन कार्बन डाईऑक्सायड का उत्सर्जन करने की अनुमति होगी। रॉस ने दिखाया है कि मौजूदा स्तर पर चीन का प्रति व्यक्ति कार्बन डाईऑक्सायड उत्सर्जन अमेरिका के उत्सर्जन का केवल 46% है, जबकि अन्य विकासशील देश इससे भी बहुत कम उत्सर्जन करते हैं (इंडोनेशिया 15%; ब्राज़ील 14% और भारत 12%)। इस पर अधिक जानकारी के लिए, कृपया एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फ़ाउंडेशन और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस स्टडीज़ (बेंगलुरु, भारत) द्वारा विकसित क्लाइमेट इक्विटी मॉनिटर को देखें।

ऊर्जा के स्रोतों को बदलने की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, विकसित देशों ने चीन और भारत जैसे मुट्ठी भर विकासशील देशों के ख़िलाफ़ प्रचार शुरू कर दिया है। एनर्जी ट्रैंज़िशन कमिशन की 'मेकिंग मिशन पॉसिबल: डिलिव्रिंग अ नेट-ज़ीरो इकोनॉमी' रिपोर्ट का अनुमान है कि ऊर्जा के स्रोतों को बदलने में 2050 तक वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के केवल 0.5% की खपत होगी, जो कि अनिश्चित मौसमों की बेतहाशा वृद्धि और कई छोटे द्वीप देशों के ग़ायब हो जाने जैसे विनाशकारी विकल्पों की तुलना में एक बेहद छोटी-सी रक़म है।

प्रमुख प्रौद्योगिकियों (जैसे तटीय पवन खेतों, सौर फ़ोटोवोल्टिक कोशिकाओं, बैटरी, आदि) की लागत में गिरावट के कारण ऊर्जा के स्रोतों को बदलने की लागत में भी कमी आई है। हालाँकि, यह जानना महत्वपूर्ण है कि इन प्रौद्योगिकियों को संचालित करने वाले प्रमुख खनिजों और धातुओं के खनिकों को बहुत कम मज़दूरी देकर (जैसे कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में कोबाल्ट खनिक) और इन कच्चे माल के लिए दक्षिण के देशों द्वारा एकत्रित रॉयल्टी भुगतान से ही इन लागतों को कृत्रिम रूप से कम रखा जाता है।  यदि वास्तविक लागत का भुगतान किया जाए, तो ऊर्जा के स्रोत में परिवर्तन करना अधिक महंगा होगा, और दक्षिण के देशों के पास जलवायु निधि पर निर्भरता के बिना ही बदलाव के लिए भुगतान करने के लिए पर्याप्त संसाधन होंगे।

विक्टर एहिखामेनोर (नाइजीरिया), आसमाँ की बच्ची VII, 2015

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान और इंटरनेशनल पीपुल्स असेंबली के प्रतिनिधि ग्लासगो में उपस्थित होंगे। हम जन आंदोलनों की भावनाओं को जानने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों में शामिल होंगे। सम्मेलन से पहले, हेल्थ ऑफ़ द मदर अर्थ फ़ाउंडेशन (बेनिन सिटी, नाइजीरिया) के निम्मो बस्सी और मैंने एक साथ जलवायु आपदा के बारे में बात रखी थी। बस्सी ने एक महत्वपूर्ण कविता लिखी है, 'रिटर्न टू बीइंग', जिसका छोटा हिस्सा यहाँ पेश कर रहा हूँ:

लड़ाई छिड़ी है

कार्बन बजट का बड़ा हिस्सा कौन पाएगा,

धरती माँ को धुएँ की अंतहीन गाँठों में कौन लपेटेगा?

जलवायु ऋण भरने का काम किसका होगा

और कार्बन ग़ुलाम कौन बनेगा?

जीवमंडल पर क़ब्ज़ा कर लो

जन-संस्कृति को तबाह कर दो

मृत्यु के औपनिवेशिक भौगोलिक क्षेत्रों में अंकित आशाएँ

खेलने से डरी हुईं, फँसी हुईं हैं, और ख़ून पर तैर रही हैं

…

सपना ख़त्म हो गया, मुर्ग़ा बाँग दे चुका है,

विश्वासघाती एक लटकन जैसा कुछ बनाने के लिए डाल तलाश रहा है

और एक-दो लोग प्रेस के सामने आँसू बहा रहे हैं

बाज एक असहाय शिकार की तलाश में ग़मगीन हवाओं पर धीरे-धीरे उड़ रहा है

दर्द से फड़कती मांसपेशियाँ अंतिम संस्कार के ढोल बजा रही हैं

बाँसुरियों ने बरसों से भूले हुए ग़मगीन सुर को विस्मृत इतिहास के वर्षों की गहराई से अचानक उभार दिया है

मिट्टी के बेटे-बेटियाँ पवित्र पहाड़ियों, नदियों, जंगलों के टुकड़े उठा रहे हैं

ठीक तभी धरती माँ जाग जाती है, अपने दृश्य और अदृश्य बच्चों को गले लगाती है

और अंत में मनुष्य अपने 'होने' की ओर लौट जाते हैं।

Climate crisis
climate justice
COP 26
CO
कार्बन डाइऑक्साइड
rich country versus poor country on climate change
अमेरिका
कार्बन एमिशन
carbon emissions
per capita carbon emission
carbon emission of Africa
historical responsibility on climate change
Paris climate agreement
America
अमेरिका रिस्पांसिबिलिटी ऑन क्लाइमेट क्राइसिस
climate finance and climate crisis

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