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उत्तर प्रदेश में ग्रामीण तनाव और कोविड संकट में सरकार से छूटा मौका, कमज़ोर रही मनरेगा की प्रतिक्रिया
उत्तर प्रदेश में देश की तुलना में ग्रामीण आबादी की हिस्सेदारी थोड़ी ज़्यादा है। सबसे अहम, यहां गरीब़ी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या देश की तुलना में कहीं ज़्यादा है। इस स्थिति में कोविड संकट और ग्रामीण रोजग़ार तनाव के दौरान मनरेगा का दायरा अपर्याप्त रहा।
सुचारिता सेन
30 Dec 2021
MGNREGA

रोज़गार पर बड़े स्तर के तमाम सर्वेक्षणों में यह बात सामने आई है कि बीते दशक में ग्रामीण उत्तर प्रदेश में स्थानीय नौकरियां और काम-धंधे खत्म हुए हैं। बाहर प्रवास होना, फिर परेशान प्रवासियों का वापस आना, ग्रामीण श्रमिक संकट के बीच हुई घटनाएं हैं। 

उत्तर प्रदेश के कामग़ारों के बीच ग्रामीण संकट

2011-12 (NSSO रोज़गार सर्वे का आंकड़ा) और 2018-19 (पीएलएफएस का आंकड़ा) के बीच, ग्रामीण इलाकों में 15 साल की उम्र से ज़्यादा के पुरुष श्रमिकों की संख्या में 39 लाख की कमी आई। जबकि इसी वर्ग समूह में महिला कामगारों की संख्या में 56 लाख 80 हजार की कमी आई। चूंकि महिला वर्ग में बहुत कम अनुपात में महिलाएं काम करती हैं (2011-12 में 80.7% पुरुष और 27.3% महिलाएं कामग़ार थीं), इसलिए महिला वर्ग में आई इस गिरावट के प्रभाव को समझना मुश्किल है। इसी के साथ कृषि क्षेत्र, मतलब कृषक और कृषि मज़दूरों की संख्या में भी गिरावट आई है। इसमें कृषि मज़दूरों की संख्या में ज़्यादा बड़ी गिरावट दर्ज की गई है। 

मार्च, 2020 में लॉकडाउन के बाद की तिमाही में बेरोज़गारी दर (सीएमआईई के मई-अगस्त, 2020 के आंकड़ों के हिसाब से) पुरुषों और महिलाओं के लिए क्रमश: 8% और 25.6% पर थी। एक साल बाद उत्तर प्रदेश में यह दर क्रमश: 4.8% और 24% थी। दरअसल बड़ी संख्या में महिलाएं काम करना चाहती थीं, लेकिन उन्होंने अपने लिए काम नहीं खोजा (क्योंकि उन्हें जिस तरीके का काम चाहिए था, उसकी मिलने की उम्मीद नहीं थी); इसके चलते मई-अगस्त 2021 में महिलाओं की बेरोज़गारी दर 48.2% के और भी ज़्यादा ऊंचे पैमाने पर पहुंच गई। यह आंकड़े "सीएमआईई मई-अगस्त 2021, भारत में बेरोज़गारी: एक सांख्यकीय प्रोफाइल" से लिए गए हैं। 

मनरेगा में काम की मांग में तेज वृद्धि

उत्तर प्रदेश में मनरेगा के तहत ग्रामीण इलाकों में "जॉब-कार्ड" के लिए नामांकन में बहुत वृद्धि हुई है। यह पिछले कुछ सालों में काम की बढ़ती मांग को दिखाता है। 2016 से 2021 के बीच, जॉब कार्ड के लिए लगाए जाने वाले आवेदन की दर, राष्ट्रीय दर से ज़्यादा रही है (चित्र-1)। 2019-20 और 2020-21 के बीच यह अंतर और भी ज़्यादा बढ़ता गया, क्योंकि कोविड-19 के बाद नौकरियों के नुकसान का उत्तर प्रदेश पर ज़्यादा बुरा असर पड़ा, इसकी वज़ह रोज़गार की कमी वाले जिलों में प्रवासियों का वापस गांवों में लौटना रहा।

जॉब कार्ड रखने वालों में से जो परिवार काम की मांग करते हैं, उनकी संख्या में लॉकडाउन के चलते इज़ाफा हुआ (चित्र-1 और चित्र-2)। सिर्फ़ एनसीआर के क्षेत्र में ही यह मांग कम बनी रही। 

काम की मांग पर आधी-अधूरी प्रतिक्रिया

उत्तर प्रदेश में मनरेगा का दायरा मांग से कम है। जबकि भारत में कुल ग्रामीण गरीब़ी और ग्रामीण आबादी में राज्य का बहुत बड़ा हिस्सा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़, जून 2020 में उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त मुख्य सचिव ने दावा किया कि महामारी के बाद पैदा हुए संकट के दौरान, देश भर में मनरेगा के तहत जिन लोगों को काम दिया गया, उनमें से 18 फ़ीसदी लोगों को उत्तर प्रदेश में काम दिया गया। लेकिन उत्तर प्रदेश में ग्रामीण आबादी का प्रतिशत भारत से ज़्यादा है। ठीक इसी तरह भारत की तुलना में उत्तर प्रदेश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली ग्रामीण आबादी का प्रतिशत भी ज़्यादा है (भारत में 33.8 फ़ीसदी, जबकि उत्तर प्रदेश में 39.4 फ़ीसदी)। इसे देखते हुए उत्तर प्रदेश में मनरेगा का दायरा छोटा है।  

ऊपर से मनरेगा के तहत किए गए काम के भुगतान में देरी भी मामले को बदतर बनाती है। उत्तर प्रदेश में भुगतान में हुई देरी पर बहुत रिपोर्टिंग की गई है (जाफरी 2021, देवी 2021, नंदी 2020 पढ़ें)। कोविड-19 संकट में यह बेहद आपत्तिजनक था। क्योंकि बेहद तनाव में चल रहे कामग़ारों के काम के बाद तुरंत पैसे की जरूरत थी। इसलिए भुगतान के मामलों में लोगों का उत्तर प्रदेश सरकार पर विश्वास नहीं बन पाया। इसलिए संकट के दौरान मनरेगा में काम के आकांक्षी कामगारों में से सिर्फ़ 20 फ़ीसदी ही अब उसमें काम चाहते हैं। 

2020-21 में कोविड संकट के दौरान "अधिशेष और बेरोज़गार" ग्रामीण श्रमशक्ति का स्तर अपने चरम पर पहुंच गया। जबकि इसी वर्ग को मनरेगा द्वारा लाभ पहुंचाने का लक्ष्य था। 2020-21 में भारत में कुल जॉब कार्ड धारकों में 49 फ़ीसदी ने काम किया, जबकि उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 44 फ़ीसदी रहा (सूची-1)। योजना द्वारा 100 दिन का काम दिया जाता है, लेकिन जिन लोगों ने इसके तहत काम किया, उनमें से बहुत ही थोड़ी संख्या ही 100 दिन तक इसमें काम करती है। 2020-21 में जब काम की मांग में बहुत तेजी आई, तब भी यह आंकड़ा बहुत कम रहा। देशभर में 8.3% और उत्तर प्रदेश में 9.5% लोगों ने ही मनरेगा के तहत 100 दिन तक काम किया। इस तस्वीर को ज़्यादा बेहतर ढंग से समझने के लिए "प्रति व्यक्ति द्वारा औसत काम के दिनों" का आंकड़ा देखा जा सकता है। 2020-21 में राज्य के आंकड़े देश की तुलना में 10 फ़ीसदी कम हैं (सूची-1)। 

उत्तर प्रदेश में मनरेगा द्वारा गलत लक्ष्य बनाया जाना

चित्र-1 और चित्र-3 में तुलना से पता चलता है कि मनरेगा में प्रति व्यक्ति जितने दिन का काम दिया गया, उसमें मांग की क्षेत्रीयता का ध्यान नहीं रखा गया। उदाहरण के लिए रूहेलखंड और उत्तरी पूर्वांचल में मनरेगा के तहत काम की ज़्यादा मांग थी, लेकिन वहां 2020-21 में प्रति व्यक्ति कम काम उपलब्ध कराया गया। दूसरी तरफ़ दिल्ली से लगे इलाकों में काम की कम मांग थी, लेकिन वहां तुलनात्मक तौर पर प्रति व्यक्ति ज़्यादा दिन का काम उपलब्ध कराया गया। 

उत्तर प्रदेश में पिछले दशक में ग्रामीण आजीविका तनाव को पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने ज़्यादा महसूस किया है। इस पृष्ठभूमि में मनरेगा के पास मौका था कि योजना रोज़गार गंवाने वाली महिलाओं को काम दिलवाती, ध्यान रहे योजना में उन्हें काम दिलवाने के लिए विशेष प्रवाधान किए गए हैं। लेकिन यहां भी राष्ट्रीय स्तर की तुलना में उत्तर प्रदेश का प्रदर्शन बेहद बदतर रहा। 2016-17 से 2020-21 (चित्र-4) के बीच "महिलाओं के द्वारा किए गए काम के दिनों" की संख्या बमुश्किल ही 'तय न्यूनतम सीमा' को पार कर पाई। योजना की मूल्यों में सामाजिक समावेश का सिद्धांत शामिल किया गया है, उत्तर प्रदेश में भी इसे ध्यान में रखे जाने की जरूरत थी, जहां अनुसूचित जनजाति के परिवारों की स्थिति देश की तुलना में ज़्यादा बदतर रही। (चित्र-5)

उत्तर प्रदेश में मनरेगा: एक छूटा हुआ मौका

उत्तर प्रदेश जब पहले ही ग्रामीण रोज़गार तनाव से गुजर रहा था, तभी इसे कोविड से जुड़े आजीविका संकट ने आ घेरा। खासकर महिलाओं के लिए ऐसा हुआ। मनरेगा को संवेदनशील ढंग और आक्रामक रवैया अपनाकर लागू किया जाता, तो लॉकडाउन के बाद काम-धंधा छिन जाने का प्रभाव कम होता (अफरीदी एट अल 2021)। उत्तर प्रदेश में देश की तुलना ज़्यादा ग्रामीण गरीब़ी दर है, फिर प्रवासी भी राज्य में वापस लौटे, ऐसे में देश की तुलना में उत्तर प्रदेश को ज़्यादा गहराई से काम करने था, इस दौरान वंचित परिवारों और महिलाओं तक विशेष तौर पर पहुंचा जाना चाहिए था। फिर ज़्यादा मांग वाले क्षेत्रों पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित करने की जरूरत थी। लेकिन सभी पहलुओं पर राज्य ने मौका गंवा दिया।

सुचारिता सेन जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के क्षेत्रीय विकास अध्ययन केंद्र में प्रोफ़ेसर हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Woes And Lows in Uttar Pradesh: Rural Distress And Government’s Response Through MGNREGA During Covid

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