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लखीमपुर हिंसा के बाद तराई में ढह सकता है भाजपा का क़िला
तराई के सात ज़िलों और आस-पास के ज़िलों के कुछ हिस्सों में, किसानों की हत्या और दोषियों को दंडित करने में ढिलाई से आने वाले यूपी विधानसभा चुनावों में भाजपा की संभावनाओं में सेंध लगने की आशंका पैदा हो गई है।
सुबोध वर्मा
11 Oct 2021
Translated by महेश कुमार
kisan
Image Courtesy: Kisan Ekta Morcha

लखीमपुर खीरी जिले के सुदूरवर्ती गांव में एक सप्ताह पूर्व भाजपा समर्थकों द्वारा सवार एसयूवी के काफिले द्वारा धूल भरी सड़क पर चल रहे किसानों को कुचलने की दिल दहलाने देने वाली घटना से लोगों में अब भी सदमे की लहर दौड़ रही है। हालांकि, आनन-फानन में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मृतक के परिजनों को अनुग्रह राशि और सरकारी नौकरियां देने की घोषणा की है, लेकिन बावजूद इन घोषणाओं के राजनीतिक परिदृश्य बदलने के हालत बनते जा रहे हैं। योगी सरकार के प्रशासन ने घटना के कुछ दिनों तक तो किसी भी विपक्षी दल के नेता को उस जगह का दौरा नहीं करने दिया और शोक संतप्त  परिवारों से मिलने की इजाजत नहीं दी थी, क्योंकि यह एक केंद्रीय मंत्री का बेटा था, जिस पर आरोप लगाया गया है कि वह उस वाहन में बैठा था जिससे किसानों को कुचला गया था, और यहां तक कि पिस्तौल से फायरिंग करके फरार हो गया था, और उसके तुरंत बाद केंद्रीय मंत्री और आरोपी के पिता, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिलने दिल्ली पहुंचे थे। आखिरकार शनिवार को मंत्री के बेटे को सामने आना पड़ा। 

उत्तर प्रदेश में अगले साल की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर इस पूरे प्रकरण से काफी हलचल मच गई है। किसान समुदाय के बीच का भारी गुस्सा, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ रुख कर सकता है। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि कितनी जल्दबाजी में मृतक किसान परिवारों को मुआवजे देने की घोषणा की गई थी।

यह इस ओर भी इशारा करता है कि क्यों नरेंद्र मोदी की मंत्रिपरिषद में उत्तर प्रदेश का एकमात्र ब्राह्मण चेहरा (केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी) अपने पद पर बना हुआ है, जबकि उनके बेटे की हत्या में उनके कथित हाथ से आम जनता में चौतरफा आक्रोश है। आदित्यनाथ और भाजपा एक तरफ जनाक्रोश और दूसरी तरफ अपने पसंदीदा जातिगत समीकरणों के बीच कड़ी रस्सा-कसी करने की कोशिश कर रहे हैं।

तराई में भाजपा की चुनावी संभावनाएं  

लेकिन क्या यह काम करेगा? तराई क्षेत्र में - हिमालय की शिवालिक तलहटी के दक्षिण में तराई की पट्टी है – इस पूरी पट्टी में इस घटना को लेकर गहरी नाराजगी और गुस्सा है। उत्तर प्रदेश के सात जिलों - पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, बहराइच, श्रावस्त, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर और महाराजगंज की यह पट्टी पश्चिम से पूर्व की ओर - राज्य के सबसे गरीब और सबसे पिछड़े क्षेत्रों में से एक है। पिछले कई सालों से तराई के 35 विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी का दबदबा रहा है, जिसने 2017 के पिछले विधानसभा चुनाव में इनमें से 31 सीटें जीती थीं। [चुनाव आयोग के आंकड़ों के आधार पर नीचे नक्शा देखें जो इंटरैक्टिव मोड पर उपलब्ध है...https://electionsviz.newsclick.in/ ]

2019 के आम चुनावों में, भाजपा ने यहां के सभी संसदीय क्षेत्रों में जीत हासिल की थी, हालांकि विधानसभा क्षेत्रों के मामले में, इसका हिस्सा घटकर 29 रह गया था जबकि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की संख्या बढ़कर पांच हो गई थी। हालाँकि, जो इससे भी अधिक प्रासंगिक है, वह यह है कि 2017 में, बीजेपी को लगभग 43 प्रतिशत वोट शेयर मिला था, जो 2019 में लगभग 54 प्रतिशत तक बढ़ गया था, जिसमें छोटी पार्टियों को 'अन्य' के तहत मिला दिया गया, साथ ही बसपा को भी हार का सामना करना पड़ा था। जाहिर है, तराई, जो कभी समाजवादी पार्टी (सपा) और बसपा के प्रभुत्व में थी, उनसे दूर हो गई थी और विशाल राज्य के अधिकांश क्षेत्रों की तरह इस इलाके ने भी भाजपा को गले लगा लिया था।

लेकिन इस बार चीजें बादल गई हैं और घटनाएं तेजी से आगे बढ़ रही हैं। साल भर चलने वाले किसान आंदोलन ने बीजेपी के जनाधार को काफी हद तक परेशान कर दिया है, जैसा कि पिछले महीनों में बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनावों में देखा गया था। उत्तर प्रदेश में, यह प्रभाव पश्चिमी क्षेत्र में सबसे अधिक दिखाई देता है, लेकिन यह पूरे राज्य में नीचे ही नीचे उबल रहा है।

इलाका मोटे तौर पर कृषि प्रधान और बहुत गरीब है  

उपेक्षित और अदृश्य तराई पट्टी में भी वही असंतोष मौजूद था - लेकिन लखीमपुर की दहशत ने इसे सुर्खियों में ला दिया है। इस बेल्ट में मुख्य रूप से ग्रामीण संरचना के कारण किसानों का असंतोष अधिक तीव्रता से महसूस होने की संभावना है, जैसा कि यूपी सरकार के आंकड़ों के आधार पर नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है।

इस क्षेत्र में खेती पर कितनी उच्च निर्भरता उसकी पुष्टि यूपी सरकार के खुद के व्यावसायिक आंकड़ों से होती है, जो आंकड़े बताते हैं कि खेती के काम या कृषि श्रम में शामिल 70-80 प्रतिशत श्रमिक शामिल हैं। 

जबकि कुछ पश्चिमी जिलों, जैसे पीलीभीत और लखीमपुर में उल्लेखनीय गन्ना उत्पादन (निकटवर्ती पश्चिम यूपी बेल्ट के समान) है, पूर्वी हिस्से में प्रमुख चावल और गेहूं की फसलें होती हैं। तराई क्षेत्र की एक अन्य विशेषता अत्यंत खंडित और छोटी भूमि जोत है। सात जिलों में, छोटी और सीमांत भूमि जोत सभी भूमि जोत का 87 प्रतिशत से 96 प्रतिशत है।

पूरे डेटा को एक साथ रख के देखें तो आपको मुख्य रूप से खेती पर निर्वाह करने वाली तस्वीर मिल जाएगी। कृषि उत्पाद के बदले बेहतर आय की मांग, कीमतों में अधिक सरकारी समर्थन और ताकि लागत का खर्च निकाला जा सके, अधिक खरीद, अन्य और ऐसी कृषि संबंधी मांगें व्यापक रूप से मौजूद हैं। हालाँकि, इस क्षेत्र में मांगों के प्रति किसानों की कम लामबंदी बताई गई थी। 

लखीमपुर की घटना के साथ अब यह बदल गया है। कृषि कानूनों ने प्रतिरोध आंदोलन को प्रेरित कर दिया है, जो तराई जैसे बैकवाटर तक भी पहुंच गया है। लेकिन सत्ताधारी भाजपा के कार्यकर्ताओं द्वारा जानबूझकर किसानों को लुचलने ने आग को भड़का दिया है जो पूरे क्षेत्र में जल रही है, जैसा कि अन्य जगहों के किसानों के बीच हो रहा है। और मोदी और योगी जितना कानूनों या लखीमपुर के दोषियों को सज़ा दिलाने से मुकरते रहेंगे और किसानों के संघर्ष के "दबाव के आगे नहीं झुकेंगे" तो गुसा उतना ही तेजी से फैलेगा, जो अंततः अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में दिखाई देगा।

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

After Lakhimpur, BJP Stronghold in Terai May Crack

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