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कोविड-19 से बेहाल मछुआरों को अब राष्ट्रीय मत्स्य नीति से लड़ने के लिए कमर कसनी पड़ेगी
भारत भर में मछुआरों को महामारी के दौरान पहले से ही मज़दूरों की कमी और डीजल की बढ़ती क़ीमत का सामना करना पड़ रहा है, और ऐसे समय में राष्ट्रीय मत्स्य नीति को पारित करने के प्रयास को अन्याय के रूप में देखा जा रहा है।
एश्वर्या मूर्ति
08 Aug 2020
Translated by महेश कुमार
राष्ट्रीय मत्स्य नीति का विरोध करते मछुआरे
तमिलनाडु में राष्ट्रीय मत्स्य नीति का विरोध करते मछुआरे।

28 अप्रैल को, राष्ट्रीय मत्स्य पालन विकास बोर्ड की वेबसाइट पर एक दस्तावेज़ अपलोड किया गया था- जो ड्राफ्ट राष्ट्रीय मत्स्य पालन नीति 2020 से संबंधित है, जो 32-पृष्ठ की रणनीति का दस्तावेज़ है और देश में मछली पकड़ने के क्षेत्र के भविष्य की रूपरेखा की जानकारी देता है। यह दस्तावेज़ भारत के समुद्र तट के साथ मछली पकड़ने वाले समुदायों की भाषा में नहीं है बल्कि हिंदी और अंग्रेजी में उपलब्ध है, इस दस्तावेज़ पर सभी हितधारकों से टिप्पणियां आमंत्रित कीं गई हैं, जो इस तथ्य से बेखबर है कि देश का अधिकांश हिस्सा अभी लॉकडाउन में लील रहा है। हाल ही में भारत में यह एक पैटर्न सा बन गया है, की मुक्त बाज़ार से जुड़े सभी सुधारों को महामारी की आड़ में आगे बढ़ाया जा रहा है।

डॉ॰ आर.वी. कुमारवेलु जो नागपट्टिनम स्थित राष्ट्रीय मछुआरा मंच (एनएफएफ) के उपाध्यक्ष हैं, ने कहा कि उनके अनुसार, तमिलनाडु सरकार रणनीतिक तौर पर लॉकडाउन का विस्तार कर रही है (हाल ही में, 31 अगस्त तक बढ़ाया गया है) ताकि बिना किसी प्रक्रिया के उनकी नीतियों और अधिसूचनाओं को आगे बढ़ाया जा सके। वे खुद के लाभ के लिए महामारी का इस्तेमाल कर रहे है, और विपक्ष की तरफ से भी कुछ खास विरोध नहीं है। "सागरमाला और ब्लू इकोनॉमी की आड़ में, ये नई चालें समुद्र में अतिक्रमण को वैध बनाने की कोशिश कर रही हैं जो आजीविका को नष्ट कर सकती हैं, समुद्र के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकती हैं और संसाधनों का निजीकरण कर सकती हैं," उन्होंने कहा।

इस मसौदा नीति के खिलाफ तमिलनाडु और पांडिचेरी में काले झंडे दिखा कर 24 जुलाई को विरोध किया गया। इस विरोध ने इस बात पर रोशनी डालने की कोशिश की है कि लॉकडाउन की वजह समुदाय को तत्काल सहायता प्रदान करने के बजाय, सरकार की प्राथमिकता कुछ ओर ही नज़र आ रही है। "हमें लग रहा था पिछले साल अलग से मत्स्य मंत्रालय बनाना वास्तव में हमारी मदद करेगा," एनएफएफ के महासचिव टी॰ पीटर ने कहा। हालांकि, एक कैबिनेट मंत्री और दो राज्य मंत्रियों के होने के बावजूद ऐसा नहीं हुआ है, और न ही समुद्र में मछली पकड़ने के मुद्दों पर चर्चा को ही कोई बल मिल रहा जिसके कि वे हकदार हैं। उन्होंने कहा, ''मछली पकड़ने और जलीय कृषि पर असंगत ध्यान केंद्रित किया जा रहा है जबकि हम जैसे लोग जो तटीय इलाकों में रहते हैं उन्हे नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।''

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हितधारकों के अनुसार, इस नीति के साथ प्राथमिक विरोध का मुद्दा यह है कि इसका उद्देश्य बहुत अधिक मामलों को कवर करना है। जबकि समुद्री मछलियों, अंतर्देशीय मत्स्य पालन और जलीय कृषि के लिए अलग-अलग नीतियां बनाने के बजाय, जिन्हे पिछले कुछ वर्षों में तैयार और विकसित किया गया था, अब नवीनतम मसौदा नीति के तहत उन सभी को एक साथ जोड़ दिया गया है, जो समुद्री मछुवारों की चिंताओं पर कोई खास ध्यान नहीं देती हैं। "हम पहले से ही पश्चिमी तट के साथ किए गए शिपिंग कॉरिडोर के निर्माण के खिलाफ लड़ रहे हैं जिसे हमसे बिना सलाह किए लागू किया गया था, और अब यह..." पीटर ने कहा। उन्होंने कहा, "वे पारंपरिक और छोटे स्तर के मछुवारों की दुर्दशा पर बिलकुल भी गंभीर नहीं हैं।"

यह नीति इस क्षेत्र को स्थायी रूप से स्थायी आजीविका के दृष्टिकोण से नहीं देखती है बल्कि व्यावसायिक दृष्टि से देखती है, असंगठित कामगार महासंघ के जिला समन्वयक एम॰ कृष्णमूर्ति ने उक्त बातें कहीं। “यह प्रभावी रूप से कॉरपोरेट्स को मछली पकड़ने का हक़ देता है। यह महासागर को विभाजित करने और बेचने की नीति है, ”उन्होंने कहा। उन्होंने कहा कि इस नीति को लागू कराते हुए सरकार तटीय समुदायों को विस्थापित कर देगी, जो लंबे समय से समुद्र के रक्षक रहे हैं।

यह नीति राज्यों के अधिकार क्षेत्र को मात्र 12 समुद्री मील तक का हक़ देती है, यानि इसके परे केंद्र सकरार का नियंत्रण हो जाता है। मछुआरों की सबसे बड़ी चिंता है कि इतना भयानक  केंद्रीकरण उन्हें निर्णय लेने वालों से दूर ले जाएगा और उनकी आवाज दब जाएगी। इस नीति के अनुसार पारंपरिक और छोटे पैमाने के मछुआरों को इन क्षेत्रीय जल की सीमा तक सीमित रखा जाएगा, जिसमें नए लाइसेंस कानून और भारी पूंजी निवेश उनकी पहुंच को सीमित कर देगी। "वे कहते हैं कि वे इस बात पर विचार किए बिना गहरे समुद्र में मछली पकड़ने को बढ़ावा दे रहे हैं कि क्या एक साधारण मछुवारा इसमें निवेश कर पाएगा। कृष्णमूर्ति ने कहा कि यह बाहरी पूंजी को लाने का प्रयास है।

सागरीय कृषि को प्रोत्साहित करने के कदम को भी संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। उन्होंने बताया कि हमारे मछली पकड़ने के क्षेत्र को कम करने के लिए "क्षेत्रीय जल को इकाइयों में विभाजित करके पट्टे पर भी दिया जा सकता हैं।" “कोई भी इस पट्टे के लिए आवेदन कर सकता है और एक मछली किसान बन सकता है, फिर चाहे मौजूदा मछुवारों की आजीविका खतरे में क्यों न पड़ जाए। इससे तट पर कब्ज़ा हो जाएगा, ”कृष्णमूर्ति ने कहा।

मछुवारों की यूनियनों के मुताबिक मछुवारों पर यह एक बहु-आयामी हमला है। न केवल वे उन नीतियों पर चली चर्चा में शामिल नहीं हुए हैं जो उन पर घातक प्रभाव डालने वाली हैं, बल्कि ये सब ऐसे समय किया जा रहा है जब लोग पहले से ही महामारी के दुषप्रभावों का सामना कर रहे हैं और एक इससे बचाव के चक्कर में आंदोलन या विरोध करने में असमर्थ हैं। अब चूंकि मछली पकड़ने का मौसम है और मछुवारे समुद्र में जाने की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन निर्यात में आई कमी से कम दाम और डीजल की कीमतों में आई बढ़ोतरी के कारण अन्य क्षेत्रों में मछली को ले जाने में शामिल कठिनाई के कारण हालत काफी खराब हो रहे है।

“अब मछली का उचित मूल्य मिलना मुश्किल है, क्योंकि अभी भी जिले और राज्यों में मुक्त परिवहन उपलब्ध नहीं है। इसलिए खरीदार नहीं आ रहे हैं, ”कुमारवेलु ने कहा। उन्होंने कहा, 'इस पर डीजल की कीमत बढ़ने से मछली पकड़ना महंगा होता जा रहा है। अब मछली को ढोने के लिए उपलब्ध वाहन पर 5.5 लाख रुपये की लागत आएगी जबकि पहले यह चार लाख रुपये होती थी। यह मछुवारों की आय को प्रभावित कर रहा है और उन्हें कर्ज में डुबो रहा है।

“महामारी का डर छोटे व्यापारियों की क्षमता को भी प्रभावित कर रहा है- जो दैनिक आय पर निर्भर हैं- यह वह तबका है जो मछली को बिक्री के लिए पास के शहरों और गांवों में ले जाता हैं। कई मछली पकड़ने वाले गाँव कंटेनमेंट ज़ोन हैं और उनमें लॉकडाउन हैं। लोग चिंतित हैं कि बाहरी लोग उनके यहाँ वायरस ला रहे हैं और फैला रहे हैं, ”उन्होंने कहा।

पीटर ने यह भी बताया कि लाखों प्रवासी मजदूर जो मध्य प्रदेश, झारखंड, उत्तर प्रदेश, ओडिशा और पश्चिम बंगाल से आते थे वे अब अपने राज्यों में वापस चले गए हैं और नावों पर मजदूर कम हो गए है। “वे वापस आना चाहते हैं क्योंकि उनके पास वहाँ भी कोई काम नहीं है लेकिन उनके लिए कोविड-19 प्रोटोकॉल बनाए रखना कठिन है। उन्हें आने से पहले स्क्रीनिंग करानी होगी और एक बार यहां आने के बाद उन्हें अलग रहना होगा। इन खर्चों का भुगतान कौन करेगा? ” उन्होने सवाल दागा।

आज जिन असंख्य मुद्दों का सामना मछुवारे कर रहे हैं उन मुद्दों को हल करने के बजाय, सरकार इन बड़े नीतिगत बदलावों को ला रही है। इन नए बदलावों को लागू करने की समय सीमा पर भी स्पष्ट नहीं है। “इसे कभी भी कानून बनाया जा सकता है। वे इन फैसलों के माध्यम से मछुवारों को इस दायरे से बाहर कर रहे हैं। मसौदा उस भाषा में नहीं है जिसे हम समझते हैं और वे हमें उन्हें ऑनलाइन पढ़ने और अपनी आपत्तियों को ऑनलाइन भेजने के लिए कह रहे हैं। कृष्णमूर्ति ने कहा, यह समुदाय को प्रक्रिया से बाहर करने का षड्यंत्र है।

कुमारवेलु का मानना है कि भले ही नीति मसौदा के चरण में है, लेकिन सरकार ने इसे लागू करना शुरू कर दिया है। वे कहते हैं कि "सरकार जमीन पर क्या चल रहा है, के अनुसार ही कानून बनाते हैं,"। उनका मानना है अब एक ही रास्ता बचा है वह कि इन नीतियों का लगातार विरोध जारी रखना है। मछुआरों की विभिन्न यूनियने इन मुद्दों को राज्य के भीतर पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन के मसौदे से जुड़े बड़े विरोध के साथ जोड़ कर देख रही हैं। राष्ट्रीय मत्स्य नीति के मसौदे को प्रस्तावित पर्यावरण कानूनों के विस्तार के रूप में देखा जा रहा है जो पर्यावरणीय संसाधनों की कॉर्पोरेट लूट की अनुमति देगा।

लेखिका स्वतंत्र लेखक और 101Reporters.com की सदस्य हैं, जो अखिल भारतीय ज़मीनी स्तर के पत्रकारों का नेटवर्क है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Already in a Rut Due to COVID-19, Fishers Now Resist National Fisheries Policy

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