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बीजेपी को भारी पड़ेंगी ये 5 गलतियां?
वास्तव में बीजेपी की ओर से कुछ ऐसे कदम उठाए गये, जिससे पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा नहीं हुआ, बल्कि गिरा। डालते हैं ऐसे पांच प्रमुख कदमों पर नज़र।
प्रेम कुमार
15 May 2019
बीजेपी
फोटो साभार: The Indian Express

इन चुनावों में बीजेपी 2014 जैसा प्रदर्शन नहीं कर पा रही है यह बात साफ हो चुकी है। ऐसा तब है जब नोटबंदी और जीएसटी से हुए नुकसान के बावजूद ज़ाहिर तौर पर कोई बड़ी एंटी इनकम्बेन्सी नहीं थी, विपक्ष का कोई आंदोलन नहीं था। हालांकि किसान आंदोलन और मज़दूर हड़ताल ज़रूर हुई। छात्र और नागरिक समाज भी कुछ मुद्दों पर आंदोलित रहा लेकिन अगर बीजेपी की मानें तो‘सबका साथ, सबका विकास’ बीते 5 साल में हुआ था और जनधन खाते, मुद्रा योजना, उज्ज्वला योजना, आवास योजना, आयुष्मान योजना जैसी लोककल्याणकारी योजनाओं से बड़ी आबादी को फायदा पहुंचा था।

2014 में बीजेपी को 31 फीसदी वोट मिले थे। इस बात के पूरे आसार हैं कि वोट प्रतिशत कम नहीं होगा। फिर भी सीटें घटने जा रही हैं तो इसकी मूल वजह ये है कि वोटों को बंटने से रोकने के लिए बिहार, यूपी जैसे राज्यों में विपक्ष ने एकजुटता दिखलायी। मगर, यह बात उन राज्यों में लागू नहीं होती जहां बीजेपी का कांग्रेस से सीधा मुकाबला हुआ। उन राज्यों में क्यों और कैसे बीजेपी को कांग्रेस चुनौती देती दिखी, यह महत्वपूर्ण बात है। बेरोज़गारी जैसे राष्ट्रीय संकट के अलावा वास्तव में बीजेपी की ओर से कुछ ऐसे कदम उठाए गये, जिससे पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा नहीं हुआ, बल्कि गिरा। डालते हैं ऐसे 5 प्रमुख कदमों पर नज़र।

लालकृष्ण आडवाणी से किनारा : बीजेपी कार्यकर्ताओँ को यह बात साफ समझ में आ गयी कि 75 साल तो बहाना है आडवाणी निशाना हैं। 2014 में 75 साल से अधिक उम्र के हो चुके एलके आडवाणी बीजेपी का नेतृत्व करने के लिए तैयार थे, मगर उनसे नेतृत्व छीन लिया गया था। बीते 5 साल में लालकृष्ण आडवाणी उपेक्षित हो गये। संसद में शानदार अटेंडेंस रिकॉर्ड और वाजपेयी की शोकसभा में उनके शानदार यादगार भाषण को देखते हुए ये साफ है कि बीजेपी नेतृत्व ने उनका इस्तेमाल नहीं किया। राष्ट्रपति के लिए वे बेहतरीन उम्मीदवार थे, मगर उनकी अनदेखी हुई। इस पृष्ठभूमि में लालकृष्ण आडवाणी से बगैर बातचीत किए हुए उन्हें राजनीति से  बेदखल करने का बीजेपी के नेतृत्व का फैसला कार्यकर्ताओँ को दिल से दुखी कर गया।

हालांकि इस दुख को मापने का कोई थर्मामीटर नहीं है मगर इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती यह भी साफ हो जाता है जब नितिन गडकरी कहते हैं, ‘‘यह पार्टी न कभी केवल अटल जी की बनी, न कभी आडवाणी जी की और न ही यह कभी केवल अमित शाह या नरेंद्र मोदी की पार्टी बन सकती है।’’ वे पार्टी में तानाशाही की बात को खारिज करते हुए भी इस आवाज़ की मौजूदगी को बयां करते दिखते हैं, “भाजपा विचारधारा पर आधारित पार्टी है और यह कहना गलत है कि भाजपा मोदी-केन्द्रित हो गयी है।”

आडवाणी की सीट अमित शाह को देना : गांधीनगर की सीट से अमित शाह जीत जाएं तो भी यह सवाल खत्म नहीं हो जाता कि लालकृष्ण आडवाणी की सीट उन्होंने क्यों उनसे छीन ली। अमित शाह कोई आम बीजेपी कार्यकर्ता नहीं हैं। वे बीजेपी के अध्यक्ष हैं। जिस तरीके से लालकृष्ण आडवाणी की सीट पर अमित शाह ने कब्जा जमाया, उससे आडवाणीजी के लिए पार्टी में सहानुभूति पैदा हुई, तो वर्तमान नेतृत्व के लिए असम्मान। हालांकि आधिकारिक रूप से यह भावना कोई बीजेपी के भीतर रहकर व्यक्त नहीं कर सकता। मगर, जब शत्रुघ्न सिन्हा ने बीजेपी छोड़ी तो खुलकर उन्होंने यह बात कही। उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी का नाम राष्ट्रपति पद के लिए उछालने के बावजूद उससे पीछे हटने का मसला भी उठाया। बीजेपी कार्यकर्ताओं के जेहन में यह बात नये सिरे से उठी कि नरेंद्र मोदी ने 2014 में आडवाणी से प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी छीन ली, तो दूसरे यानी अमित शाह ने उन्हें उनकी सीट से ही बेदखल कर दिया। इस तरह मोदी-शाह की जोड़ी अघोषित रूप से बीजेपी के भीतर खलनायक के रूप में जगह बनाती दिखी। बीजेपी के भीतर अब यह अंदरखाने बात उठने लगी है कि देश में लोग बीजेपी से नाराज़ नहीं है। मोदी-शाह की जगह दूसरा नेतृत्व हो तो सरकार बनाने में मुश्किल नहीं आएगी। खुद बीजेपी के कई प्रवक्ता अनौपचारिक बातचीत में यह बात इस लेखक से स्वीकार कर चुके हैं।

अपने-अपने नामों के आगे चौकीदार लगाना : चौकीदार टाइटल को स्वीकार करना वास्तव में राहुल गांधी के एजेंडे को अपने ऊपर थोप लेने के समान था। नेतृत्व को अपना टाइटल बदलता देख नेताओं-कार्यकर्ताओँ में होड़ सी मच गयी उसका अनुसरण करने की। मगर, वास्तव में यह होड़ समर्पण भाव से नहीं थी। यह होड़ दो व्यक्तियों की पार्टी बन चुकी बीजेपी में अपनी-अपनी निष्ठा को व्यक्त करने की विवशता थी। अपना नाम बदलना, टाइटल बदलना व्यक्तिगत बात होती है। इसमें बीजेपी का हस्तक्षेप जो अघोषित था, पार्टी कार्यकर्ताओँ को दिल से अच्छा कतई नहीं लगा। चापलूसी करने वालों ने इसे करारा और तगड़ा कदम बताया, वास्तव में यह कांग्रेस के एजेंडे के सामने बीजेपी का नतमस्तक होने का उदाहरण है।

गांधी परिवार पर हमला : गांधी परिवार पर हमला भारतीय चुनाव में विपक्ष की विशेषता रही है। मगर, 2019 को अलग किस्म से याद किया जाएगा। नामदार तक तो ठीक था लेकिन सोनिया गांधी के लिए विधवा की उपमा, राजीव गांधी को भ्रष्टाचारी नम्बर वन बताना और इसी रूप में जान चली जाना कहना, आईएनएस विराट को टैक्सी की तरह इस्तेमाल करने का झूठा दावा (जिसे वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों ने गलत बताया है), सिखों की भावनाएं सहलाने के लिए राजीव गांधी के वक्तव्य का इस्तेमाल यानी एक से बढ़कर एक ऐसी बातें की गयीं जिन्हें आम मतदाताओं ने पसंद नहीं किया। यह खास तौर से इसलिए भी नापसंद किया गया क्योंकि खुद नरेंद्र मोदी ने इस अभियान का नेतृत्व किया जिनसे देश बदलाव की उम्मीद लगाए बैठा था और जिनकी नोटबंदी जैसी गलतियों को भी भुला कर उन्हें लगातार समर्थन दे रहा था।

चुनाव में सेना का इस्तेमाल :  यह बात समझने में आम जनता को वक्त लगता कि अगर चुनाव नहीं होते तो पुलवामा के जवाब में बालाकोट एअर स्ट्राइक भी नहीं होती। मगर, सेना के शौर्य के राजनीतिक इस्तेमाल को समझने में आम वोटरों को वक्त नहीं लगा। चुनाव आयोग के निर्देश के बावजूद बीजेपी के पूरे चुनाव अभियान में किसी न किसी बहाने सेना की बहादुरी को अपनी बहादुरी बताया जाता रहा। भारत की सेना और मोदी की सेना में फर्क खत्म कर दिया गया। आईएनएस विराट और राजीव गांधी के बहाने भी सेना के नाम पर सियासत खुलेआम की गयी। चुनाव अभियान की शुरुआत के वक्त जो उत्साह मतदाताओँ में बालाकोट एअर स्ट्राइक के बाद दिखा था, वह आखिरी चरण आते-आते गायब हो गया। इसकी मूल वजह यही थी कि आम जनता चुनाव में सेना के इस्तेमाल को पसंद नहीं कर रही थी।

चुनाव के बाद बीजेपी नेतृत्व अपनी गलतियों को मान लेगा, ऐसी उम्मीद भी नहीं की जा सकती। इस बात के पूरे आसार हैं कि एक चुनावी विश्लेषक की तरह कोई न कोई पसंदीदा बात खोजकर वर्तमान नेतृत्व अपना बचाव करेगा। ठीक उसी तरह जैसे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी की पराजय को अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने स्वीकार नहीं किया, बल्कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस से एक फीसदी वोट अधिक मिलने, राजस्थान में बड़ी हार को नजदीकी संघर्ष में बदल देने के तौर पर बखान किया था। छत्तीसगढ़ में पराजय की प्रतिक्रिया सभी सांसदों के टिकट काट देने के तौर पर सामने आयी।

नये क्षेत्रों में बीजेपी के प्रदर्शन में सुधार का ढोल पीटा जा सकता है जैसे पश्चिम बंगाल और ओडिशा। हालांकि यहां भी सीटों के रूप में उल्लेखनीय कुछ बड़ा हाथ लगने नहीं जा रहा है फिर भी मोदी-शाह के लिए अपने बचाव में यही ‘उपलब्धि’ उनके पास होगी। जिन राज्यों में बीजेपी का प्रदर्शन खराब होने वाला है वहां के मुख्यमंत्री, पार्टी अध्यक्ष और पार्टी प्रभारियों को नेतृत्व के समक्ष गर्दन झुकाकर कुर्बानी के लिए तैयार हो जाना चाहिए। कभी बीजेपी कहा करती थी कि उपलब्धि हो तो गांधी परिवार और शान में बट्टा लगे तो कोई और- यही कांग्रेस की संस्कृति है। अब वही स्थिति खुद बीजेपी में है- मोदी-शाह कभी गलती नहीं कर सकते।

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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