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भारत
राजनीति
बवाना आगः अवैध फैक्ट्री ने ली मज़दूरों की जान
दिल्ली में पटाखा बनाने वाली फैक्ट्री में सुरक्षा, लाइसेंस और श्रम क़ानूनों की घोर लापरवाही के चलते लगी आग से 17 मज़दूरों की मौत हो गई।
सुबोध वर्मा
23 Jan 2018
bawana fire

'नए' भारत की राजधानी दिल्ली के बवाना की एक फैक्ट्री में आग लगी और एक ही झटके में कई ज़िंदगी जल कर ख़त्म हो गई। आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार20 जनवरी को फ़ैक्ट्री में लगी आग की घटना में 17 लोग मारे गए। इस इलाक़े में काम करने वाले लोगों के मुताबिक़ जब आग लगी थी तो उस दौरान कारख़ाने के अंदर कम से कम 35 लोग फंसे रहे होंगे। कारख़ाने से निकलने का सिर्फ़ एक ही मुख्य दरवाज़ा था जो बंद था साथ ही कुछ खिड़कियां भी बंद थीं। कुछ लोग कारख़ाने की छत से कूदकर भागने में कामयाब हुए लेकिन वे बुरी तरह घायल हो गए। छत से कूदने के दौरान शरीर का कुछ हिस्सा फ्रैक्चर हो गया। मृतकों में 7महिलाएं थीं जिनमें एक गर्भवती थी।

 

नेता और प्रशासनिक अधिकारी इस भीषण घटना को लेकर एक दूसरे पर आरोप लगाते रहे और अपना पल्ला झाड़ते रहे। इस महानगर की स्थिति विचित्र है कि दर्जनों प्राधिकारियों के कार्य क्षेत्र एक-दूसरे को ओवरलैप करते हैं जिससे हर ऐसी घटना के बाद वे बदनामी से बचते नज़र आते हैं। जहां तक मजदूरों और गरीबों का सवाल है किसी भी त्रासदी से पहले कोई भी ज़्यादा ध्यान नहीं देता है। यही कारण है कि ऐसी भयंकर घटनाएं होती रहती हैं और शहरों में ज़िंदगियां जल कर ख़त्म हो जाती हैं।

 

1990 के दशक के आखि़र में उद्योगों को आवासीय क्षेत्रों से दूर भेज दिया गया। निर्धारित औद्योगिक क्षेत्रों में स्थानांतरित किए जाने के बाद बवाना औद्योगिक क्षेत्र स्थापित किया गया था जहां यह कारख़ाना स्थित था। माना जाता था कि 16,000 इकाइयां थीं लेकिन वर्तमान रिपोर्टों के अनुसार लगभग 12,000 कारख़ाने वास्तव में काम कर रहे हैं। पूर्वी दिल्ली के शाहदरा में कारखाना चलाने वाले जिन्हें मूल रूप से बवाना में जगह आवंटित किया गया था उनमें से अधिकांश ने अपने संपत्तियों को बेच दिया। हालांकि कम आय वाले लोगों के रहने के लिए कुछ निर्धारित स्थान भी है लेकिन बवाना के औद्योगिक बेल्ट के अधिकांश श्रमिक आस-पास की झुग्गियों में रहते हैं। बता दें कि अप्रैल 2017 में इस झुग्गियों में भी आग लगी थी जिसने इलाके को तबाह कर दिया गया था। इस दौरान क़रीब 1000झुग्गियां जल कर ख़ाक हो गई थी। क़रीब चार साल पहले 2013 में इसी जे जे क्लस्टर में इसी तरह आग लग गई थी। इस घटना में भी क़रीब 1000 से ज़्यादा झुग्गियां जल कर समाप्त हो गई थी। इन इलाकों की बसावट काफ़ी घनी है जहां अकसर आग लगने की घटना होती रहती है।

दिल्ली के मास्टर प्लान-2021 के अनुसार 3-4 किमी के दायरे में एक अग्निशमन पोस्ट और प्रत्येक ऐसे बसावट के 5-7 किमी के घेरे में एक फायर स्टेशन होना चाहिए। बवाना में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। वास्तव में दिल्ली फायर सर्विस कथित तौर पर 40% कर्मचारियों की कमी से जूझ रहा है साथ ही अग्निशमन उपकरणों की भी कमी है। यह कहना ज्यादा उचित होगा कि यह राजधानी दिल्ली की विशाल आबादी तक अग्नि सुरक्षा उपायों को पहुंचाने में असमर्थ (या कुछ लोगों का आरोप है कि वे इसके लिए अनिच्छुक हैं)। क़ानून के अनुसार प्रत्येक भवन को सुरक्षा मानदंडों पर अग्निशमन विभाग से मंजूरी की आवश्यकता होती है। स्पष्ट रूप से बवाना के इस कारख़ाने के पीछे लोहे आदि की बनी कोई सीढ़ी नहीं थी और न ही उसके पास अग्निशमन व्यवस्था या विकल्प के रूप में आग लगने की घटना के दौरान फंसे लोगों को निकालने की कोई व्यवस्था नहीं थी।

लेकिन यह सिर्फ अग्निशमन विभाग नहीं है जिसे इस सुरक्षा की निगरानी करनी चाहिए। श्रम कानून में भी श्रमिकों के लिए विभिन्न सुरक्षा मानदंडों की पर्याप्त व्यवस्था है। क्या बवाना में इन सभी क़ानूनों का पालन किया जा रहा था?

1990 के आरंभ से श्रम कानूनों और उसके कार्यान्वयन मशीनरी को दिल्ली में बेहद कमज़ोर कर दिया गया। अधिकांश इकाइयां खुद को पंजीकृत भी नहीं करती है। वे कर्मचारियों की क्रम संख्या भी नहीं रखते हैं। बिना किसी लाभ या सामाजिक सुरक्षा के वे मज़दूरों को बहुत कम मज़दूरी का भुगतान करते हैं। चोटिल होने या मृत्यु का मुआवजा अस्पष्ट है। किसी तरह का कोई मेडिकल कवरेज नहीं है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां कारखाने के मालिक फैक्ट्री के अंदर रहने वाले श्रमिकों से12 घंटे की शिफ्ट का काम लेते हैं। ये सब बड़े पैमाने पर श्रम कानूनों का उल्लंघन है। लेकिन कोई इसकी परवाह नहीं करता है।

अगर कोई श्रम या कारख़ाना निरीक्षक बवाना के इन कारख़ानों का कभी ठीक से निरीक्षण किया होता तो उन्हें ये कमियां मिली होती और कारख़ाना मालिकान को इसका अनुपालन करने को मजबूर करते। इन नियमों के अनुपालन न करने में या तो श्रम विभाग की मिलीभगत है, जैसा कि ट्रेड यूनियनों ने वर्षों से आरोप लगाया था, या राजधानी में हजारों वैध-अवैध फैक्ट्रियों पर नज़र रखने के लिए कर्मचारियों की बेहद कमी है।

यह जानकारी सामने आई है कि बवाना कारख़ाने में श्रमिकों को प्रतिदिन दस घंटे की शिफ्ट का काम करने के लिए 200 रुपए मज़दूरी मिल रही रही थी। अर्थात प्रतिदिन 10 घंटे काम करने पर 6000 रुपए प्रतिमाह। दिल्ली में क़ानूनी तौर पर न्यूनतम मजदूरी 13,350 रुपए प्रतिमाह (अर्थात प्रतिदिन 513 रुपए) प्रतिदिन आठ घंटे काम करने के लिए है। इस तरह बड़े पैमाने पर मज़दूरों का शोषण किया जा रहा है, इसके लिए लूट शब्द का इस्तेमाल किया जाए तो ज़्यादा बेहतर होगा। इस तरह ऐसे शोषणकारी स्थानों में कोई भी व्यक्ति अन्य श्रम कानूनों के उल्लंघन की सीमा की कल्पना कर सकता है।

काल की गाल में समाए फैक्ट्री के बगल में चाय की एक दुकान के मालिक ने बताया कि आग लगने से क़रीब एक घंटे पहले उसने लगभग 35 कप चाय उस कारख़ाने में भेजी थी। अगर श्रमिकों की इतनी संख्या थी तो इस फैक्ट्री को कारखाना अधिनियम के तहत आना चाहिए था। ये क़ानून सुरक्षा के नियमों के अलावा कार्य क्षेत्र, वेंटिलेटर, निकास, दरवाजे और खिड़कियों से संबंधित निर्देशों को स्पष्ट करता है। ज़ाहिर है ये कारख़ाना इन सभी नियमों को धता बताकर चलाया जा रहा था। ऐसे में 20 जनवरी को जो कुछ हुआ वह किसी भी अन्य क्षेत्र में या किसी अन्य कारख़ाने में होना ही था।

एक मुद्दा लाइसेंसिंग का भी है। दिल्ली नगर निगम अधिनियम 1957 के एस 416 (1) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कारख़ानों को नगरपालिका आयुक्त की अनुमति मिलने के बाद ही स्थापित किया जा सकता है। बवाना कारख़ाने में मूल लाइसेंसधारक मूल आवंटी थे जिन्होंने परिसर को वर्तमान मालिक को बेच दिया था। ऐसा लगता है कि उसके पास कोई लाइसेंस नहीं था। और विशेष रूप से पटाख़ा निर्माण के लिए नहीं था।

इस तरह पूरी फैक्ट्री अवैध रूप से संचालित की जा रही थी। परिसर से लेकर मज़दूर और उत्पाद तक सभी ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से किए जा रहे थे। और यह कोई अपवाद भी नहीं है। ये दिल्ली में मानक हैं। वर्तमान की आम आदमी पार्टी की सरकार समेत सभी सरकारों ने दिल्ली में बड़े पैमाने पर अवैध तरीक़े से पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया है, वे यह तर्क देते रहे कि अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए औद्योगिक उत्पादन को प्रोत्साहित करने और सीमित कर्मचारियों की वकालत करने की आवश्यकता है।

कांग्रेस शासन के दौरान औद्योगिक क्षेत्र की स्थापना की गई थी जो 2013 तक दिल्ली से चली गयी। इसके बाद आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली बनी। वे श्रम और उद्योग विभागों को नियंत्रित करते हैं। 2007 के बाद से उत्तरी दिल्ली नगर निगम पर बीजेपी का क़ब्ज़ा है। यह कारख़ानों को लाइसेंस देने और निगरानी अनुपालन के लिए ज़िम्मेदार है। ज़ाहिर है दिल्ली में ये सभी राजनीतिक ताकतें बावाना त्रासदी के लिए दोषी हैं। वे संपत्ति मालिकों की सहायता करते हैं और श्रमिकों की उपेक्षा करते हैं।

वास्तव में उन्होंने दिल्ली के असंगठित औद्योगिक क्षेत्र में लगभग 14 लाख श्रमिकों के नज़रअंदाज़ किया है ताकि वे लाभ की वेदी पर बलि का बकरा बन सकें। बवाना की त्रासदी इस का एक अन्य उदाहरण थी। कम से कम 17 श्रमिकों की मौतें पहले ही बताई गईं थीं। इनमें से ज़्यादातर यूपी और बिहार के रहने वाले थें।

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