NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
उत्पीड़न
समाज
भारत
राजनीति
बांग्लादेश सीख रहा है, हिंदुस्तान सीखे हुए को भूल रहा है
बांग्लादेश ने अपने से कहीं पुराने और कहीं बड़े हिंदुस्तान को न केवल आर्थिक प्रगति और उससे जुड़े गरीबी, पोषण और शिक्षा के मामले में पछाड़ दिया है, बल्कि एक बेहतर भविष्य रचने की दिशा में भी हिंदुस्तान को आईना दिखा रहा है।
सत्यम श्रीवास्तव
27 Oct 2021
tripura
सौजन्य: maktoobmedia.com

बांग्लादेश में हुई सांप्रदायिक घटनाओं का प्रभाव हिंदुस्तान पर पड़ना लाजिमी था और यही हुआ। सिर्फ हुआ नहीं, बल्कि यही किया गया। हिंदुस्तान की प्रभुत्वशाली राजनीति को ऐसे किसी भी मौके की ज़रूरत है जो उसे इस देश में प्रासंगिक बनाए रख पाये। बांग्लादेश की घटना का असर इसके पड़ोसी और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में होना शुरू हो गया है। जो पहले ही गंभीर सांप्रदायिक तनाव से जूझ रहे हैं। 

त्रिपुरा में बांग्लादेश में हुई साम्प्रादायिक घटनाओं की मुखालफत के बहाने राज्य के अपने मुसलमान नागरिकों को निशाना बनाया जा रहा है। पिछले एक सप्ताह में ऐसी एक से ज़्यादा घटनाएँ हुईं हैं जो इस अपेक्षाकृत छोटे राज्य में अल्पसंख्यकों के खिलाफ एकतरफा हिंसा भड़काने की कोशिशों के तौर पर देखी जा रही हैं। 

बांग्लादेश में हालांकि 13 अक्तूबर 2021 को दुर्गा पूजा के दौरान हुई घटना को बहुत गंभीरता से लिया गया और यह सतर्क प्रयास किए गए कि इसके तात्कालिक और दूरगामी दुष्प्रभाव वहाँ के समाज पर न हों। हाल ही में बांगलादेश के कानून मंत्री अनीसुल हक़ ने ऐसी घटनाओं में त्वरित न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में गवाहों की  सुरक्षा व संरक्षण और उनकी गोपनीयता के लिए एक कानून बनाने की पहल भी की है। 

ऐसा आंकलन है कि बांग्लादेश में बीते नौ वर्षों में अल्पसंख्यकों पर हमलों व हिंसा की छोटी-बड़ी लगभग साढ़े तीन हज़ार घटनाएँ हुईं हैं। इन घटनाओं के सबक लेते हुए वहाँ के कानून मंत्री ने यह पहल की है क्योंकि ऐसे मामलों में जिनमें मुख्य अपराधी बहुसंख्यक समाज के हों, वहाँ न्याय की प्रक्रिया मुकम्मल गवाहों के अभाव में अपने अंजाम तक नहीं पहुँच पाती। ज़ाहिर है ऐसे मामलों में मुख्य गवाह उसी तबके से होते हैं जिनका उत्पीड़न हुआ हो। ऐसे में वो खुल कर अदालत में अपनी बात नहीं कहते या गवाही देने की पहल नहीं करते क्योंकि उन्हें अंतत: उसी बहुसंख्यक समुदाय के साथ रहना है। 

इसके अलावा एक और आश्वस्त करती खबर है कि गवाह संरक्षण और गोपनीयता के साथ-साथ बांग्लादेश की सरकार अल्पसंख्यक संरक्षण अधिनियम भी लाने के लिए भी पहल कर रही है। 

बांग्लादेश की इस पहल का भी स्वागत ठीक उसी तरह किया जाना चाहिए जैसे 13 अक्तूबर की घटना के बाद वहाँ के समाज, सरकार और प्रशासन की पहलकदमियों का किया जाना चाहिए। बांग्लादेश इन घटनाओं से न केवल सबक लेते दिखलाई दे रहा है, बल्कि भविष्य अपने भविष्य को इस द्वेष और कट्टरता की जद से बाहर निकालने और एक समावेशी समाज बनाने के लिए प्रतिबद्धता ज़ाहिर कर रहा है। 

इसके उलट पड़ोसी देश में हुई घटना को आधार बनाकर अपने गठन से ही पंथनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए सांवैधानिक रूप से प्रतिबद्ध हिंदुस्तान में सत्तासीन सांप्रदायिक ताक़तें न केवल सांप्रदायिक कट्टरता को हवा दे रही हैं, बल्कि हिंसा को खुलेआम बढ़ावा दे रही हैं। 

इसमें आश्चचर्य नहीं होना चाहिए कि त्रिपुरा जैसे राज्य में जिसका इतिहास ऐसे सांप्रदायिक, भाषायी और नस्लीय विभाजन का शिकार रहा हो लेकिन बीते कई दशकों से एक समावेशी समाज बन सका था वहाँ फिर से सांप्रदायिक विभाजन की नई इबारतें क्यों लिखी जाने की कोशिशें क्यों हो रही हैं? ये कोशिशें कौन कर रहा है? और अगर पड़ताल करें तो यह समझना बहुत आसान है कि ऐसी कोशिशें कब से शुरू हुई हैं? 

25 सालों तक यहाँ कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार रही और मौजूदा विधानसभा में भाजपा ने कम्युनिस्ट पार्टी से सत्ता छीनी है। महज़ पार्टी बदल जाने से त्रिपुरा में लंबे समय में अर्जित हुई सामाजिक शांति और समावेशी समाज में सेंध लग गयी। आज वहाँ खुलेआम मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा फैलाई जा रही है। वहाँ के मुख्यमंत्री बिप्लव देब जब अपने राज्यों के नौकरशाहों को कहते हैं कि “कोर्ट की अवमानना से ज़रूरत नहीं है तब वह यह भी कह रहे हैं कि देश के संविधान की परवाह करने की भी ज़रूरत नहीं है, उससे हम निपट लेंगे”। जिन सांवैधानिक मर्यादायों में अल्पसंख्यकों को विशेष मान दिये जाने की व्यवस्था है उसे अब हमारे शासन में छिन्न-भिन्न किया जा सकता है। और यही हो रहा है। 

13 अक्तूबर के बाद से बंगालदेश से ज़्यादा चिंता त्रिपुरा और आसाम जैसे राज्यों की होना इसलिए स्वाभाविक है क्योंकि यहाँ सत्ता में बैठा दल और उसकी विचारधारा शुरूआत से ही इस कुंठा में जीता रहा है कि यह संविधान उनके मंसूबों के आड़े आता है। वह देश में एकछत्र हिन्दू राष्ट्र चाहते हैं जहां अल्पसंख्यक और विशेष रूप से मुसलमान और ईसाई दोयम दर्जे के नागरिक बनकर रहें। 

ऐसे में पड़ोसी देशों विशेष रूप से पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं के खिलाफ हुई किसी भी घटना को यहाँ भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते बल्कि उसके बहाने यहाँ के अल्पसंखयकों को निशाना बनाते हैं। बांग्लादेश एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र होने के अलावा भारत के कई राज्यों के साथ भाषायी रूप समरूपता भी रचता है। ऐसे में इन राज्यों में भाषा भी सांप्रदायिक विभाजन का उतना ही बड़ा स्रोत है जितना मजहब। 

यह चिंता इस वजह से भी बढ़ जाती है क्योंकि अलग अलग क्षेत्रीय अस्मिताएं थोड़ी सी लापरवाही से ध्वंसक रूप ले सकती हैं। ऐसे में जहां राज्यों की सरकारों और देश की सरकार से ऐसे मसलों में भड़कती आग पर रेत डालने की अपेक्षा हो लेकिन वो अपनी विचारधारा के अधीन उस पर घासलेट डालने की कार्यवाई में निपुण हों तब यह अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल हो जाता है कि अस्मिताओं की चिंगारी से भड़की यह आग किस हद तक जाकर तबाही मचा सकती है। 

इंडियन एक्स्प्रेस ने 25 अक्टूबर को अपने संपादकीय में इस मामले को बहुत सटीक ढंग से लिखा है। इस संपादकीय में त्रिपुरा में सक्रिय हिन्दू जागरण मंच और बजरंग दल की गतिविधियों के प्रति सचेत और गंभीर होने का मशविरा राज्य सरकार को दिया गया है। विभाजन और उसके कारण हुए पलायन की त्रासदी 1990 के दौर में उग्रवाद के रूप में देखी गयी है। लेकिन बीते 2 दशकों के दौरान त्रिपुरा ने खुद को नए सिरे से गढ़ा है, आर्थिक रूप से मजबूत किया है और इतिहास से मिली चोटों को भूलते हुए पड़ोसी बांग्लादेश व म्यांमार के साथ अच्छे रिश्ते बनाए हैं। इसमें देश की पूर्ववर्ती सरकारों की भी सकारात्मक भूमिका रही है। इस अच्छे माहौल को बनाए रखना होगा जो लंबी त्रासदियों का हासिल है। 

भारत के पूर्वोत्तर के राज्य भाषा, ज़मीन, नस्ल और मजहब की वजह से बहुत ही संवेदनशील रहे हैं जिन्हें पड़ोसी देश में हुई किसी भी अप्रिय घटना को आधार बनाकर भड़काया जा सकता है। नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक पंजीयन (एनआरसी) जैसे गैर-ज़रूरी और विभेदकारी क़ानूनों और हाल में जनसंख्या नियंत्रण के अतार्किक और अविवेकी कार्यक्रमों की वजह से आसाम निरंतर अशांत क्षेत्र बन रहा है। आसाम के मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत विश्वासर्मा कई बार अपनी विभाजनकारी मानसिकता और विचारधारा का परिचय देते रहे हैं। ऐसे लगता है कि राज्य में शांति और परपस्पर सौहाद्र उन्हें रास नहीं आता और वो किसी भी तरह इसे हिंसा और नफरत के अंतहीन मंजिल पर ले जाना चाहते हैं। 

यह देखना भी दुखद लेकिन दिलचस्प है कि बांग्लादेश को एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र बने 40 साल बीत चुके हैं लेकिन इन वर्षों में बांग्लादेश से आया कोई भी नागरिक हिंदुस्तान में ‘घुसपैठिया’ ही कहा जाता है। वहीं तिब्बत या भूटान से आने वाले नागरिक यहाँ ‘शरणार्थी’ होते हैं। लंबे और निरंतर दुष्प्रचार से हिंदुस्तान में यह भाषा इतनी सामान्य हो चुकी है कि किसी को इन संज्ञाओं पर एतराज़ भी नहीं होता है बल्कि यह संज्ञाएं ध्रुवीकरण की राजनीति के अस्थि मज्जा में ऐसी घुल मिल गयी हैं और पूरे देश को इनी सहज लगाने लगी हैं कि इन शब्दों पर कभी ठहर कर पुनर्विचार करने की ज़रूरत भी महसूस नहीं होती।

बांग्लादेश की सरहदों से लगे पूर्वोत्तर के राज्यों में सालों से बसे नागरिकों में भी कभी भी ‘राज्यविहीन’ हो जाने की जो असुरक्षा है और अलग-अलग नस्ल,भाषा, मज़हब और संसाधनों को लेकर है। यह इन राज्यों का इतिहास से मिला अभिशाप है जिसे भूलना और सजग रूप से एक जनतान्त्रिक माहौल बनाना ही एकमात्र रास्ता है जो इस असुरक्षा-बोध को खत्म कर सकता है और राज्यों को बेहतर दिशा में ले जा सकता है। 

हालात लेकिन इसके उलट हैं और ऐसी कोई पहल न तो इन राज्यों की तरफ से होते दिख रही है और न ही भारत सरकार इस आसन्न संकट को लेकर सतर्क है। हाल ही में त्रिपुरा में हुई मस्जिदों में आग लगा देने की घटनाएँ या अल्पसंख्यकों की बस्तियों में हिन्दू जागरण मंच और बजरंग दल द्वारा रैलियों और प्रदर्शनों की घटनाएँ हों अंतत: उस अंतहीन हिंसा और विभाजन की तरफ ही धकेल रही हैं जिनके प्रति बेहद सतर्क और संवेदनशील बने रहने की ज़रूरत है। 

बांग्लादेश ने अपने से कहीं पुराने और कहीं बड़े हिंदुस्तान को न केवल आर्थिक प्रगति और उससे जुड़े गरीबी, पोषण और शिक्षा के मामले में पछाड़ दिया है बल्कि एक बेहतर भविष्य रचने की दिशा में भी हिंदुस्तान को आईना दिखाया है। क्या ऐसे ठोस कदम यहाँ नहीं उठाए जा सकते? 

(लेखक डेढ़ दशकों से जन आंदोलनों से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)

Tripura
Violence
BJP
Bangladesh
Communalism

Related Stories

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

2023 विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र तेज़ हुए सांप्रदायिक हमले, लाउडस्पीकर विवाद पर दिल्ली सरकार ने किए हाथ खड़े

जहांगीरपुरी— बुलडोज़र ने तो ज़िंदगी की पटरी ही ध्वस्त कर दी

बढ़ती हिंसा व घृणा के ख़िलाफ़ क्यों गायब है विपक्ष की आवाज़?

पश्चिम बंगाल: विहिप की रामनवमी रैलियों के उकसावे के बाद हावड़ा और बांकुरा में तनाव

राजस्थान: महिला डॉक्टर की आत्महत्या के पीछे पुलिस-प्रशासन और बीजेपी नेताओं की मिलीभगत!

बंगाल हिंसा मामला : न्याय की मांग करते हुए वाम मोर्चा ने निकाली रैली

जनादेश-2022: रोटी बनाम स्वाधीनता या रोटी और स्वाधीनता

यूपी चुनाव: पूर्वी क्षेत्र में विकल्पों की तलाश में दलित

क्या मुस्कान इस देश की बेटी नहीं है?


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License