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भारत
राजनीति
सरकार की आलोचना करने वाले सज़ा के नहीं, सुरक्षा के हक़दार हैं
सच सामने लाने की वजह से पत्रकारों पर राजद्रोह का मुक़दमा दायर किए जाने का ख़तरा लगातार बढ़ता जा रहा है।
कृष्ण झा
14 Jun 2021
सरकार की आलोचना करने वाले सज़ा के नहीं, सुरक्षा के हक़दार हैं

कृष्ण झा लिखते हैं सच का खुलासा करने के लिए, पत्रकारों पर राजद्रोह का मुक़दमा दायर किए जाने का ख़तरा लगातार बढ़ता जा रहा है। सुकरात ने कहा था कि जो लोग समाज की आलोचना करते हैं, उन्हें ज़हर नहीं बल्कि सुरक्षा देने की ज़रूरत होती है। 

IPC की धारा 124A बेहद क्रूर सजा का प्रावधान करती है। इस धारा के तहत उम्रकैद दिए जाने की तक व्यवस्था है। लेकिन यह धारा ताकत नहीं, बल्कि असुरक्षा का प्रतीक है। ब्रिटेन की औपनिवेशिक सरकार ने 1870 में इस कानून को पास किया था। ताकि जनता में उपजने वाली किसी भी तरह की राष्ट्रवादी भावना को कुचला जा सके और अपनी सत्ता काबिज रखी जा सके। ब्रिटेन में इस कानून को ख़त्म कर दिया गया है। विडंबना है कि हमारे देश में यह अब भी लागू है, जबकि हम अब एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बन चुके हैं।

राजद्रोह का मुकदमा लगाना इतना आम हो चुका है कि सरकारी नीतियों की किसी भी तरह की नकारात्मक आलोचना इसकी जद में आ जाती है। चाहे बहती नदी में तैरती लाशों के बारे में लिखना हो या किसी अख़बार में प्रकाशित वह ख़बर, जिसमें बताया जा रहा हो कि एक व्यक्ति अपने किसी करीबी की लाश को एक पुल से नदी में फेंक रहा है, जो इस महामारी के प्रबंधन में राज्य की नाकामी बताता है, इन सारी घटनाओं पर राजद्रोह लगाया जा सकता है।

इसी पृष्ठभूमि में तीन जजों वाली पीठ के अध्यक्ष जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ ने 31 मई, 2021 को सुप्रीम कोर्ट में कहा था: "अब वक़्त आ गया है कि यह व्याख्या की जाए कि कौन सी चीजें राजद्रोह हैं और कौन सी नहीं।"

यह टिप्पणी एक शोध समूह के उस शोध के बाद आई है, जिसमें बताया गया है कि पिछले दशक में, खासकर 2014 के बाद से राजद्रोह के मामलों में बहुत इजाफा हुआ है।

राजद्रोह के मामलों में आई यह बाढ़ बताती है कि NDA सरकार कितनी उतावली है। कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए टेलिविजन एंकर और पद्मश्री से सम्मानित पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ़ लगाए गए राजद्रोह के आरोपों को खारिज़ कर दिया। विनोद दुआ ने उत्तरभारत के पहाड़ी इलाकों में अपनी कवरेज के दौरान कोविड-19 पर भारत सरकार के प्रबंधन की आलोचना की थी। उनके खिलाफ़ एक वरिष्ठ बीजेपी नेता ने केस दर्ज किया था। 

कोर्ट ने यह भी कहा कि सभी पत्रकारों को केदारनाथ सिंह केस में दिए गए फ़ैसले के तहत सुरक्षा प्रदान है, इस फ़ैसले से 124A या राजद्रोह के कानून की ताकत को कम कर दिया गया था। अब यह धारा सिर्फ़ तभी लगाई जा सकती है जब शस्त्रों का उपयोग किया गया हो। इस फ़ैसले से दिल्ली के किसान आंदोलन में 26 जनवरी, 2021 की घटना को कवर करने वाले पत्रकारों- राजदीप सरदेसाई, मृणाल पांडे और दूसरे लोगों को राहत मिल सकती है। यह सभी लोग राजद्रोह के मुकदमे का सामना कर रहे हैं। हालांकि इस बारे में कुछ भी तय तौर पर नहीं कहा जा सकता, क्योंकि चीजें कभी भी मनमुताबिक मोड़ ले सकती हैं। मतलब अभी यह तस्वीर साफ़ नहीं है कि मौजूदा फ़ैसले का राजद्रोह का सामना करने वालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। 

बीजेपी शासित राज्यों में राजद्रोह का मुकदमा ज़्यादा उदारता के साथ लगाया जा रहा है।

नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ़ हुए विरोध प्रदर्शन, जो पूरे देश में फैले थे, उनमें शामिल कई लोगों पर बीजेपी शासित राज्यों में राजद्रोह के मुकदमे दायर किए गए। इन विरोध प्रदर्शन में शामिल लोगों के खिलाफ़ राजद्रोह के 25 मुक़दमे दायर किए गए थे। इनमें करीब़ 22 मुकदमे बीजेपी शासित राज्यों में दायर किए गए थे। कई मुकदमे पत्रकारों के खिलाफ़ थे। आंकड़ों के मुताबिक़, इतिहास में सबसे ज़्यादा राजद्रोह लगाने वाले राज्य बिहार, झारखंड, तमिलनाडु, कर्नाटक और उत्तरप्रदेश रहे हैं। राजद्रोह कानून के तहत 534 मुकदमे दायर किए गए हैं, इनमें से 65 फ़ीसदी मामले इन्हीं राज्यों से थे।

पत्रकारों के खिलाफ़ राजद्रोह का आरोप असुरक्षा का प्रतीक होता है, यह दिखाता है कि राज्य खुद गहरी असुरक्षा से गुजर रहा है। इस तनाव के स्पष्ट संकेत भी हैं, सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि राज्य अब पहले से कहीं ज़्यादा भंगुर हो गया है। 

शोध समूह के मुताबिक़, सर्वेक्षणों में पत्रकारों द्वारा किए जाने वाले खुलासों से भी ज़्यादा खुलासे हो रहे हैं। सिस्टम लगातार रसातल की ओर बढ़ रहा है।

कोर्ट ने ना केवल सिस्टम की खामियां सामने लाने वालों के खिलाफ़ राजद्रोह लगाए जाने की कवायद पर सवाल पूछे, बल्कि केंद्र की वैक्सीन नीति पर भी टिप्पणी की। कोर्ट ने व्यंग्य करते हुए पूछा कि नीति के पीछे क्या "सोच" थी। दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि जो अधिकारी जरूरतमंदों के लिए वैक्सीन हासिल करने के लिए काम नहीं करते और इसका उत्पादन बढ़ाने की दिशा में कदम नहीं उठाते, उनके खिलाफ़ मानव वध का मुक़दमा दर्ज किया जाना चाहिए।

जहां तक पत्रकारों की बात है, तो सच की तस्वीर जरूरी तौर पर सत्ता के लिए सुकूनदेह नहीं होती। पत्रकारों पर हमेशा सजा का ख़तरा बरकरार रहता है, क्योंकि उनके खुलासों से वह चीज सामने आती हैं, जिन्हें सिस्टम छुपाना चाहता है। राजद्रोह का कुख्यात इतिहास भी यही बताता है।

इसका एक उदाहरण CAA का विरोध करने वाले लोगों के खिलाफ़ हुए अत्याचारों का खुलासा है। ना केवल इन लोगों को नागरिकता से वंचित किया गया, बल्कि उन्हें उनके परिवारों से भी दूर कर दिया गया। इन लोगों को बेरोज़गार रहने पर मजबूर होना पड़ा।

फिर वह विद्रोही किसान भी हैं, जो 6 महीने से धरना प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन उनकी कोई सुनने वाला नहीं है। लेकिन यह सिर्फ़ कई घटनाओं से चंद उदाहरण हैं।

इतिहास पत्रकारों द्वारा सामने लाए गए सच्चे खुलासों से भरा पड़ा है। ऐसे ही एक पत्रकार बाल गंगाधर तिलक थे, जिन्होंने अपने जीवन में एक ही नहीं, बल्कि कई राजद्रोह के मुक़दमों का सामना किया। उन्होंने केसरी और मराठा में ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ लिखा। यह दोनों अख़बार तिलक ने ही निकाले थे। फिर असहयोग आंदोलन के बाद, महात्मा गांधी द्वारा अपने ऊपर राजद्रोह का मुकदमा लगने और इससे मिलने वाली सजा का स्वागत करने का उल्लेख करती रिपोर्ट भी मौजूद हैं। असहयोग आंदोलन ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ शुरू किया गया था और चोरी-चौरा कांड के बाद वापस ले लिया गया था। यह सभी घटनाएं पत्रकारीय कर्तव्यों को निभाने और इसकी वैधता के लिए प्रकाश-स्तंभ का काम करती हैं। 

आखिर सुकरात ने कहा था कि जो लोग समाज की आलोचना करते हैं, वे सजा नहीं, बल्कि सुरक्षा के हकदार हैं। (IPA सर्विस)

यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Critics of Government Deserve Protection, Not Punishment

Journalists
brutal punishment
COVID 19 Cases
Citizenship Amendment Act
BJP

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