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विज्ञान
राजनीति
डेंगू की महामारी और सार्वजनिक स्वास्थ्य रक्षा व्यवस्था का अंत
अमित सेनगुप्ता
23 Sep 2015

एक से ज्यादा निजी अस्पतालों की उदासीनता के शिकार, सात वर्षीय बच्चे अविनाश के डेंगू के बुखार से दम तोडऩे के बाद, उसके माता-पिता के आत्महत्या कर लेने तक के बहुत ही दु:खद घटनाक्रम ने, दिल्ली में स्वास्थ्य रक्षा सेवाओं की दयनीय अवस्था की पोल खोल दी है। इस पूरे घटनाक्रम पर हुए हंगामे के बाद जरूर दिल्ली सरकार ने इस समय दिल्ली में चल रही डेंगू की महामारी पर अंकुश लगाने के लिए कई कदमों की घोषणा की है। डेंगू की महामारी के दुष्प्रभाव सामने आते देखकर, बहुत से लोगों का मन यह कहने को जरूर करता होगा कि यह तो होना ही था। वास्तव में हर तीन से पांच साल में राजधानी में डेंगू बुखार का प्रकोप फूटता है। हर बार इसके चलते दिल्ली निवासियों के बीच बड़े पैमाने पर दहशत फैलती है। हर बार शहर की स्वास्थ्य सेवाएं इस संकट के सामने पूरी तरह से नाकाफी साबित होती हैं। और हर बार ही प्रशासन महामारी के असर को कम करने के लिए देरी से, ऊपर-ऊपर से कुछ कदम उठाती है।

देश की स्वास्थ्य व्यवस्था खुद बीमार है

दिल्ली में समय-समय पर डेंगू की महामारी का फूटना, उस और बड़ी बीमारी का लक्ष्य है, जिसकी गिरफ्त में देश की स्वास्थ्य व्यवस्था है। ऐसा हर्गिज नहीं है कि हमारे देश के दूसरे इलाकों के मामले में दिल्ली पर महामारियों का ज्यादा हमला होता हो। बात सिर्फ इतनी है कि जब भी स्वास्थ्य संबंधी कोई गंभीर चुनौती सामने आती है, दिल्ली में स्वास्थ्य व्यवस्था के बैठ जाने पर मीडिया का और राजनीतिज्ञों का भी कहीं ज्यादा ध्यान जाता है। बेशक, दिल्ली में इस समय चल रही डेंगू की महामारी की गंभीरता को किसी भी तरह से कम कर के नहीं आंका जा सकता है, फिर भी यह याद दिलाना जरूरी है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौतियों के सामने स्वास्थ्य व्यवस्था की भारी विफलता, हमारे देश में अपवाद न होकर एक नियम ही है। सचाई यह है कि हमारे देश में फ्लू, चिकुनगुनिया, एन्सिफेलाइटिस, मलेरिया तथा दूसरे अनेक संक्रमणों जो हजारों मौतें होती हैं, उनमें से अधिकांश मौतें नहीं होतीं, अगर चुनौतियों के प्रति संवेदी तथा साधनों से सुसज्जित सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था काम कर रही होती। हमारे देश में टीबी जैसी बीमारियां साल-दर-साल चलती आ रही हैं और एक तरह से लोगों की जिंदगी का एक सामान्य हिस्सा ही बन गयी हैं।

दिल्ली में हम जो देखते हैं, वास्तव में लघु रूप में पूरे देश की ही तस्वीर है। यह तस्वीर, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की लापरवाहीभरी उदासीनता के चलते स्वास्थ्य व्यवस्था के पूरी तरह से बैठ ही जाने की है। यह स्थिति दशकों से चली आ रही सरकारी उपेक्षा तथा उदासीनता से पैदा की है और तेजी से फैलते निजी स्वास्थ्य रक्षा क्षेत्र के लुटेरे तथा अनैतिक आचरण ने उसे और घातक बना दिया है।

डेंगू के लक्षण और उपचार

डेंगू अपने आप में प्राणों के लिए खतरा पैदा करने वाला रोग तो बहुत ही दुर्लभ रूप से ही होता है और सामान्य स्थितियों में इसकी वजह से ऐसी दहशत नहीं फैलनी चाहिए, जैसी इस समय फैली हुई है। लेकिन, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के पहलू से, दिल्ली की और वास्तव में देश भर की ही स्थितियों को सामान्य तो शायद ही कहा जा सकता है। लेकिन, हम इस पर जरा बाद में चर्चा करेंगे। जहां तक डेंगू का सवाल है, यह वाइरस का संक्रमण है, जो एंडीज मच्छर के काटने से फैलता है। यह मच्छर साफ पानी में पनपता है और मलेरिया फैलाने वाले एनोफिलीज मच्छर के विपरीत, ऐंडीज मच्छर दिन में ही लोगों को काटता है। याद रहे कि मलेरिया फैलाने वाला एनोफिलीज मच्छर रुके हुए गंदले पानी में पनपता है और शाम के समय काटता है। डेंगू के लक्षण हैं--बुखार, सिरदर्द और अक्सर तेज बदन दर्द। डेंगू के बहुत से मरीजों में अपेक्षाकृत हल्के लक्षण ही सामने आते हैं और वास्तव में इसके संक्रमण की चपेट में आने वालों में से 80 फीसद के मामले में या तो डेंगू के कोई लक्षण दिखाई ही नहीं देते हैं और दिखाई भी देते हैं तो मामूली बुखार तक मामला सीमित रहता है। यहां तक कि जिन लोगों में इसके बहुत प्रबल लक्षण दिखाई देते हैं, जैसे तेज बुखार तथा तेज बदन दर्द (डेंगू को शुरू में ‘हाड़ तोड़ बुखार’ के नाम से जाना जाता था क्योंकि कुछ मामलों में इससे बहुत भारी बदन दर्द होता था), उनमें से भी अधिकांश 7 से 10 दिन में पूरी तरह से स्वस्थ हो जाते हैं। डेंगू पीडि़तों के बदन पर लाल निशान प्रकट हो सकता है, जो सामान्यत: बुखार शुरू होने के 3-4 दिन बाद प्रकट होता है। बुखार, रुक-रुक के आता है यानी 3 से 5 दिन बाद बुखार उतर जाता है और उसके बाद दो-तीन दिन के लिए फिर चढ़ जाता है।

डेंगू का कोई विशेष उपचार नहीं है क्योंकि ऐसी कोई खास दवा बनी ही नहीं है, जिसका डेंगू पैदा करने वाले वाइरस पर सीधे असर हो। बुखार और दर्द जैसे लक्षणों का उपचार, पैरासिटामॉल से किया जाता है। एस्पिरीन या अन्य दर्दनाशकर जैसे ब्रूफेन आदि डेंगू के रोगियों को नहीं दिए जाते हैं क्योंकि गंभीर रूप से संक्रमण के शिकार रोगियों में से कुछ के मामले में, इन दवाओं से रक्तस्राव की समस्या और बढ़ सकती है।

डेंगू के रोगियों के एक छोटे से हिस्से में गंभीर जटिलताएं भी पैदा हो सकती हैं। ऐसे रोगियों के मामले में ‘डेंगू का रक्तस्रावी बुखार’ हो सकता है। डेंगू के बुखार के इस रूप में शरीर की रक्तस्राव रोकने वाली प्राकृतिक प्रणालियां अपना काम करना बंद कर देती हैं। ऐसे मरीजों के मामले में गंभीर आंतरिक रक्तस्राव हो सकता है और शरीर की रक्त प्रवाह प्रणाली ही बैठ सकती है। इससे चिकित्सकीय इमर्जेंसी की स्थिति पैदा हो जाती है, जिसे ‘‘शॉक’’ कहते हैं। अंतरिक रक्तस्राव के शुरूआती लक्षणों के रूप में रोगी की ऊपरी त्वचा के अंदर और म्यूकस मेंब्रेन में, जैसे मुंह के अंदर, खून के छोटे-छोटे धब्बे दीख सकते हैं।

गंभीर रक्तस्राव के लक्षणों का पता, रोगी के रक्त के प्लेटलेट्स की गणना से लग सकता है। शरीर में आंतरिक रक्तस्राव को रोकने के लिए, प्लेटलेट्स की संख्या का खास स्तर तक रहना जरूरी होता है। एक सामान्य व्यक्ति के खून में 1 से 1.5 लाख प्रति घन मिलीमीटर तक प्लेटलेट होते हैं। कुछ डेंगू रोगियों के मामले में यह संख्या घटकर 50 हजार से भी नीचे चली जाती है। आमतौर पर यह संख्या घटकर 10,000 से नीचे चले जाने की सूरत में आंतरिक रक्तस्राव होने लगता है। ऐसे रोगियों को अस्पताल में भर्ती कर, प्लेटलेट चढ़ाए जाने की जरूरत होती है। वैसे तो टाइफाइड बुखार जैसे कुछ अन्य संक्रमणों के मामले में भी प्लेटलेट का स्तर घट सकता है, लेकिन डेंगू के बुखार के मामले में ही ऐसा ज्यादा होता है। फिर भी प्लेटलेट के स्तर को डेंगू के टैस्ट की तरह प्रयोग नहीं किया जा सकता है। यह टैस्ट महंगा है और ज्यादा उन्नत प्रयोगशालाओं में ही इसकी सुविधा होती है। इसके अलावा, खासतौर पर जब डेंगू की बीमारी अपने आरंभिक चरण में हो, इस टैस्ट के जरिए निर्णायक रूप से इसका फैसला नहीं किया जा सकता है कि टैस्ट कराने वाले को डेंगू का संक्रमण नहीं हुआ है। डेंगू के वाइरस की तीन-चार किस्में आम तौर पर देखने को मिलती हैं, जिनमें से टाइप-2 और टाइप-4 को ज्यादा नुकसानदेह माना जाता है।

डेंगू और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था

डेंगू के लक्षणों का हमने पीछे जो विवरण दिया है, उससे डेंगू की महामारी के लिए आवश्यक सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की ओर से जरूरी प्रत्युत्तर भी परिभाषित हो जाते हैं। जैसाकि हम पहले ही कह आए हैं डेंगू के संक्रमण के ज्यादातर रोगियों के मामले में, पैरासिटामॉल के अलावा किसी खास उपचार की जरूरत ही नहीं होती है और घर पर ही उनकी देखभाल की जा सकती है। समस्या यह है कि इसका अनुमान लगाने का कोई शर्तिया उपाय नहीं है कि कहीं संबंधित रोगी में, अंतरिक रक्तस्राव तथा रक्त-प्रवाह प्रणाली के बैठने जैसे गंभीर लक्षण तो प्रकट नहीं होने जा रहे हैं। चूंकि डेंगू की शर्तिया पहचान मुश्किल है और डेंगू जैसे लक्षण चिकुनगुनिया, मलेरिया आदि दूसरे कई रोगों के मामले में भी दिखाई देते हैं, जब डेंगू की महामारी फैली हुई हो, यह जरूरी हो जाता है कि ऐसे सभी बीमारों को जिन्हें बुखार हो, संभावित रूप से डेंगू का मरीज मानकर उनके मामले में सावधानी से निगरानी की जानी चाहिए। अगर डेंगू रोग के लक्षण खास गंभीर नहीं हैं, डेंगू के टैस्ट करने से कोई खास फायदा नहीं होगा क्योंकि रोग के शुरूआती तौर पर रोगियों के मामले में भी टैस्ट का नतीजा नकारात्मक आ सकता है। दूसरी ओर रोग के  अन्य उग्र लक्षणों के साथ, प्लेटलेट काउंट टैस्ट को, जो सरल है तथा बहुत ज्यादा महंगा भी नहीं है, बीमारी के गंभीर रूप की पहचान के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह, यह पूरी तरह से संभव है कि डेंगू के रोगियों को घर पर रखकर ही उनकी तबीयत पर नजर रखी जाए, बुखार तथा बदन दर्द के लिए पेरासिटामॉल देकर उनका उपचार किया जाए और उसी स्थिति में भर्ती कराया जाए जब रोग के गंभीर लक्षण दिखाई दें और/ या प्लेटलेट का स्तर तेजी से गिर रहा हो।

डेंगू की महामारी का ऐसा सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रत्युत्तर, अनेक ऐसी व्यवस्थाओं की मांग करता है, जिनमें से कोई भी किसी समुदाय में बाकायदा महामारी के फूट पडऩे के बाद स्थापित नहीं की जा सकती है। इस तरह के प्रत्यत्तर के लिए सबसे पहले तो एक उम्दा, भरोसेमंद तथा सस्ती प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा की ही जरूरत होगी। इसका अर्थ है चिकित्सकीय देख-रेख की ऐसी व्यवस्था, जो कार्यस्थलों में तथा रिहाइश की जगहों पर लोगों को आसानी से उपलब्ध हो। ऐसी व्यवस्था का आधार होगी एक प्रभावी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था, जो आबादी के बीच अच्छी तरह से फैली हुई डिस्पेंसरियों व बुनियादी लैबोरेटरी सुविधाओं से संपन्न स्वास्थ्य केंद्रों के ताने-बाने पर टिकी होगी। दूर-दूर तक भी ऐसी व्यवस्था से मेल खाती हुई कोई व्यवस्था न तो दिल्ली में है और न ही देश के दूसरे किसी भी हिस्से में है। यहां तक निजी क्षेत्र में भी सामान्य चिकित्सक करीब-करीब खत्म ही होते जा रहे हैं और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में बड़ी तेजी से उनकी जगह कार्पोरेट अस्पताल तथा उनके फ्रेंचाइजी लेते जा रहे हैं। जहां तक कार्पोरेट अस्पताल शृंखलाओं का सवाल है, उनकी मरीजों को बिना भर्ती किए इलाज मुहैया कराने में कोई रुचि नहीं होती है क्योंकि उनके असली मुनाफे तो अस्पताल के बैड की तगड़ी फीस, महंगी तथा अक्सर अनावश्यक जांचों और तरह-तरह के विशेषज्ञों की हर रोज की फीस से आते हैं। इन शृंखलाओं की अस्पताल से बाहर के रोगियों के उपचार की सुविधाएं भी इसी हिसाब से काम करती हैं कि रोगी को फंसाया जाए और उसे अस्पताल में भर्ती करना चाहे जरूरी हो या नहीं हो, अस्पताल में भर्ती किया जाए।

इस तरह, हमारा सामना ऐसी स्थिति से है जहां यह सुनिश्चित करने का कोई विश्वसनीय तरीका ही नहीं है कि बुखार के पीडि़तों की हालत पर भरोसेमंद तरीके से नजर रखी जाएगी। इन स्थितियों में मरीजों के लिए इसके सिवा और कोई उपाय ही नहीं रह जाता है कि इस डर से उनका बुखार कहीं जानलेवा न हो जाए, अस्पताल में भर्ती हो जाएं। 1 करोड़ 70 लाख की आबादी वाले दिल्ली शहर में, डेगू के कुछ हजार पहचानशुदा मामले कभी भी दहशत का कारण नहीं बने होते, बशर्ते चिकित्सा सेवाएं ही पूरी तरह से बैठ नहीं गयी होतीं। और चिकित्सा सेवाएं कोई इसलिए नहीं बैठ गयी हैं कि डेंगू की महामारी फूट पड़ी है बल्कि चिकित्सा सेवाएं तो पहले से ही बैठी हुई थीं और जब भी कोई मामूली सी भी स्वास्थ्य संबंधी चुनौती सामने आती है, मिसाल के तौर पर अब से कुछ ही महीने पहले फ्लू की महामारी फूटी थी और अब डेंगू की महामारी फूटी है, चिकित्सा सेवाओं के इस तरह बैठ चुके होने की सचाई बलपूर्वक सामने आ जाती है। आज स्थिति यह है कि दिल्ली के सार्वजनिक तथा निजी, सभी अस्पताल, डेंगू के ऐसे मरीजों से ठसाठस भर गए हैं, जो अस्पताल में भर्ती ही नहीं हुए होते, बशर्ते बुनियादी स्वास्थ्य रक्षा सुविधाएं उपलब्ध होतीं और उनकी पहुंच में होतीं।

यह भी याद रखना चाहिए कि दिल्ली में डेंगू फूटने का अनुमान लगाने के लिए, किसी बहुत भारी विशेषज्ञता की भी जरूरत नहीं थी। जैसाकि हमने पहले ही कहा, दिल्ली में डेंगू की तीव्रता में हर तीन से पांच साल में एक बार तेजी आती है और पिछली बार ऐसी बड़ी तेजी, पांच साल पहले आयी थी। इसके बावजूद, इस बार जब यह महामारी फूटी, दिल्ली की पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था इसके लिए जरा सी भी तैयार नहीं थी। काफी समय बर्बाद हो जाने के बाद, अब कहीं जाकर इसकी पहचान की कोशिशें हो रही हैं कि इस बार इस रोग के फैलने के पीछे वाइरस की कौन सी किस्म है और कुछ रिपोर्टें बताती हैं कि इस बार, कहीं ज्यादा नुकसानदेह टाइप-2 तथा टाइप-4 का विस्फोट हुआ है।

अविनाश को बचाया जा सकता था

सात वर्षीय अविनाश के मां-बाप ने दिल्ली के कुछ सबसे चमक-दमक वाले ओैर महंगे अस्पतालों में अपने बच्चे को भर्ती कराने की हताश कोशिशों में अपनी जिंदगी के कुछ सबसे मुश्किल घंटे गुजारे थे। अगर एक के बाद एक अस्पताल ने बैड खाली न होने के नाम पर उसे भर्र्ती करने से मना नहीं कर दिया होता, तो अविनाश जिंदा होता और शायद बिस्तर पर बैठा खाना मांग रहा होता। इन अस्पतालों में से किसी ने भी इसकी जांच-पडताल करने के जरूरत ही नहीं समझे कि उसके रोग लक्षण कितने गंभीर हो चुके थे। वास्तव में अविनाश के मां-बाप तो दिल्ली के उन अपेक्षाकृत खुशनसीब लोगों में आते थे, जो कुछ मुश्किलें उठाकर ही सही, इस तरह के पांच सितारा अस्पतालों में वसूल की जाने वाली फीस दे सकते हैं, हालांकि अविनाश के मामले में इन अस्पतालों ने इसका मौका ही नहीं दिया। सचाई यह है कि हर रोज दिल्ली में कितने ही अस्पतालों से, तकलीफ  से हांफते हुए मरीजों को सिर्फ इसलिए लौटा दिया जाता है कि वे अस्पतालों की फीस नहीं भर सकते हैं। निजी अस्पतालों में, आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लोगों को सुरक्षित बैड, जान-बूझकर खाली रखे जाते हैं। आज देश में जिस तरह की अमानवीय स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली का निर्माण किय जा रहा है, वह मुनाफे से चलती है न कि इंसानी जिंदगियां बचाने में अपनी कामयाबी से।

यह विडंबनापूर्ण है कि अविनाश के मां-बाप दिल्ली के दो सबसे बड़े सरकारी अस्पतालों--सफदरजंग तथा ए आइ आइ एम एस--से चंद किलोमीटर की ही दूरी पर रहते थे। लेकिन, उनके ख्याल में भी नहीं आया कि अपने बच्चे को इनमें से किसी अस्पताल में ले जाते। लेकिन, इसके लिए अविनाश के मां-बाप को दोष नहीं दिया जा सकता है। वे तो उसी धारणा से संचालित थे, जो एक के बाद एक आयी सरकारों द्वारा बराबर फैलायी तथा पनपायी जाती रही है। हर रोज हमें तरह-तरह से यही सिखाया जाता है कि सार्वजनिक सेवा का मतलब ही है, घटिया सेवा। इतना ही नहीं, हर गुजरने वाले दिन के साथ सार्वजनिक सेवाओं को संसाधनों से ज्यादा से ज्यादा वंचित किया जाए जा रहा है और ऐसी स्थितियां पैदा की जा रही हैं कि उन पर से जनता का भरोसा पूरी तरह से ही उठ जाए। याद रहे कि अविनाश की मौत के चंद रोज बाद, छ: वर्षीय अमन की मौत से पहले, उसके माता-पिता ने पांच-पांच निजी अस्पतालों के अलावा सरकारी अस्पताल सफदरजंग का भी दरवाजा खटखटाया बताते हैं, लेकिन उनके बच्चे का इलाज नहीं हुआ और अंतत उसने भी अविनाश की तरह दम तोड़ दिया।

अगर एक संवेनशील सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था मौजूद होती तो हम इसकी कल्पना कर सकते हैं कि दोनों बच्चों को नजदीकी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा में जाया गया होता, वहां उनकी दशा पर नजर रखी गयी होती और अगर जरूरत पड़ती तो उन्हें तमाम जरूरी सुविधाओं से संपन्न सार्वजनिक अस्पताल में उपचार मिला होता। अंत में एक हंसता-खिलखिलाता बच्चा, अपने मां-बाप के हाथ थामे अस्पताल से घर लौटता। ज्यादातर सभ्य समाजों में यह दृश्य आम है। लेकिन, भारत में तो हमें ज्यादातर कुछ और ही तस्वीर देखने को मिलती है। यह तस्वीर है ऐसी निष्ठुर व्यवस्था की, जिसकी मुनाफे की हवस और जनता के कल्याण की निर्मम उदासीनता, पूरे के पूरे परिवारों के लिए जानलेवा साबित होती है।

एक लापरवाह और अमानवीय व्यवस्था

कहते हैं जब रोम जल रहा था, नीरो बांसुरी बजा रहा था। आज भी ऐसे बेमौके की बांसुरी बजाने वालों की भरमार है, जो सार्वजनिक स्वावस्थ्य व्यवस्था की विफलता पर खुश होते हैं और उस दिन के इंतजार में हैं जब आखिरकार इसके दम ही तोड़ देेने का एलान कर दिया जाएगा। इसीलिए तो, स्वास्थ्य मंत्रालय की इसका हल्का सा इशारा करने की कोशिश पर भी, कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के मसौदे में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिकता मिलनी जाहिए, नीति आयोग द्वारा बुरी तरह से झिडक़ दिया जाता है। स्वास्थ्य मंत्रालय को भेजी अपनी चिट्ठी में (जिसके कुछ अंश अब से एक-दो हफ्ते पहले प्रैस के हाथ लग गए थे) नीति आयोग ने लिखा था: ‘यह भले ही किसी को नैतिक रूप से गर्हित ही क्यों न लगे, दो-तल्ला स्वास्थ्य रक्षा की इस व्यवस्था को--एक उनके लिए जिनके पास साधन हैं तथा जिनकी आवाज सुनी जाती है और दूसरी उनके लिए जो बेआवाज तथा निरुपाय हैं, अल्पावधि में तथा यहां तक कि मध्यम अवधि में भी बने रहना होगा क्योंकि मरीजों के बोझ के बड़े हिस्से को निजी से हटाकर सार्वजनिक क्षेत्र पर डालना साज-सामान के लिहाज से नामुमकिन होगा।’’ नीति आयोग ने इसके अलावा स्वास्थ्य पर सार्वजनिक निवेश में बढ़ोतरी की सिफारिश करने की नीति की भी यह कहते हुए आलोचना की है कि, ‘‘हमें इसका आकलन करना पड़ेगा कि कहीं निवेश में भारी बढ़ोतरी करना, बढ़ोतरी के घटते लाभ के नियम का शिकार तो नहीं हो जाएगा और इससे राज्य स्वास्थ्य प्रणालियों की बढ़ोतरी खपाने की सामथ्र्य के लिए जो चुनौती पैदा होगी, वह अलग।

जब इस तरह के बांसुरी बजाने वाले नीति गढऩे का जिम्मा संभाले हुए हैं, अगर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत खस्ता है तो इसमें अचरज की क्या बात है? बेशक, एकाध महीने में दिल्ली की कड़ाके की सर्दी, डेंगू की महामारी पर खुद ही रोक लगा देगी। लेकिन, मौजूदा शासक वर्ग में ममता का लेशमात्र भी न होना, देश भर में हजारों बच्चों के लाचार माता-पिता को तो फिर भी सालता ही रहेगा। अविनाश के साथ जो हुआ, पूंजीवाद की संवेदनहीन तथा अमानवीय प्रकृति की ही याद दिलाता है।

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।   

 

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