NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
आंदोलन
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
तमाम अवरोधों, दमन, कुचक्र और प्रोपेगेंडा के ख़िलाफ़ किसान की हुंकार!
आज किसानों के लिए सरकारी नीतियां ही एकमात्र चुनौती नहीं हैं बल्कि उनके इस आंदोलन को खत्म करने की मंशा के साथ चलाए जा रहे प्रोपेगेंडा के खिलाफ भी किसान संघर्षरत हैं।
अभिषेक पाठक
01 Dec 2020
 किसान की हुंकार
फोटो साभार : सोशल मीडिया

आज से ठीक 2 वर्ष पहले 29-30 नवंबर को भी दिल्ली गवाह बनी थी किसानों के संघर्ष की जब देशभर के किसान राजधानी दिल्ली में अपनी मांगों के साथ जमा हुए थे और आज 2 वर्षों के बाद भी किसानों का संघर्ष ब-दस्तूर जारी है। किसानों की स्थिति, उनकी पीड़ा आज भी जस की तस बनी हुई है। आज किसानों के लिए सरकारी नीतियां ही एकमात्र चुनौती नहीं हैं बल्कि उनके इस आंदोलन को खत्म करने की मंशा के साथ चलाए जा रहे प्रोपेगेंडा के खिलाफ भी किसान संघर्षरत हैं।

कृषि प्रधान देश में कृषकों के साथ हुई बर्बरता और असंवेदनशीलता की इंतेहा तो बीते दिनों देश देख ही चुका है। जवान और किसान के नाम पर इस मुल्क में भावनात्मक राजनीति होती ही रहती है। पर आज जब किसान कृषि जीवन से जुड़े अपने कुछ बुनियादी सवालों, मांगों को लेकर अपने ही देश की अपनी राजधानी में जाना चाहता है तो उसके लिए सरहदें तैयार की जाती हैं, उनका स्वागत वाटर कैनन और आसूं गैस के गोलों के साथ किया जाता है। उनका मार्ग अवरोध करने की हर भरपूर कोशिश की जाती है। पर किसान इन सभी दमन को झेलते हुए अपनी बुलंद आवाज़ के साथ मजबूती से खड़ा है, संघर्ष कर रहा है।

चाहे रास्ते को पत्थर और मिट्टी से ब्लॉक करना हो या सड़कें खुदवा देना हो, आँसू गैस के गोले हों या कंपा देने वाली सर्दी में वाटर कैनन, इन तमाम दमन और हथकंडों के खिलाफ मजबूती से खड़ा किसान उस प्रोपेगेंडा के खिलाफ भी संघर्षरत है जो प्रोपेगेंडा हर विरोध और आंदोलन के वक़्त चलाया जाता है, जिसकी मंशा एक ही होती है आंदोलन को खत्म करना और उसे महत्वहीन बनाना।

सरकार और मेन स्ट्रीम मीडिया के अनुसार विपक्ष के द्वारा किसानों को गुमराह किया गया है। मज़ेदार बात ये है कि इसी मीडिया द्वारा विपक्ष को कमज़ोर और खत्म हो चुका बताया जाता है और आज यही विपक्ष इतना मजबूत हो गया है कि हज़ारों-लाखों किसानों को गुमराह करने में सक्षम है? और इसके क्या मायने निकाले जाएं-क्या सरकार इतनी कमज़ोर है कि किसानों को गुमराह होने से बचा न सकी? या क्या सरकार देशभर के किसानों को कृषि-बिल के पक्ष में लाने में असफल रही?

टीवी मीडिया जिसकी पहुँच घर-घर तक होती है उसके बहस और कार्यक्रमों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि किस तरह से प्रोपेगेंडा को घर-घर तक परोसा जाता है। प्रश्नवाचक चिह्न लगाकर कुछ भी ऊल-जलूल चलाया जाता है। "क्या किसानों के आंदोलन के पीछे वोट है? और "क्या आंदोलन के पीछे सियासी साज़िश है?" जैसी हेडलाइंस के साथ देश के आमजन के दिलो-दिमाग मे आंदोलन के प्रति संदेह पैदा किया जाता है। जबकि इस मेन मीडिया स्ट्रीम मीडिया को सरकार और जनता के बीच एक पुल का कार्य करते हुए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ होने के असल मायने बताने चाहिए थे। किसान-विरोध को विपक्षी साज़िश बताने के बजाय सरकार से सवाल करने चाहिए थे कि क्यूँ सरकार हठ पर अड़ी है? ऐसे कौन से ग्रह-नक्षत्र के अनुसार किसानों से बात करने के लिए 3 दिसंबर की तारीख तय की गई है?

"किसानों को गुमराह किया गया'' या "आंदोलन के पीछे सियासी साज़िश है?" से कहीं आगे बढ़कर आईटी सेल और इसी मीडिया के एक सेक्शन के द्वारा बेहद शर्मनाक तरीके से किसानों के इस विरोध को खालिस्तान से जोड़ा गया। आंदोलन में खालिस्तानी साज़िशें खोजी जाने लगीं। देश के बड़े टीवी न्यूज़ चैनल जिनकी पहुँच दर्शकों के एक बड़े हिस्से तक है उसके द्वारा किसान आंदोलन में खालिस्तानी एंगल पर चर्चा की जाती है।"खालिस्तान के निशाने पर अन्नदाता" जैसी हेडलाइंस के साथ कार्यक्रम किए जाते हैं। बात दरअसल ये है जब टीवी मीडिया के इतने बड़े चैनल्स इस तरह के टाइटल्स और हेडलाइंस चलाते हुए कार्यक्रम करते हैं तो देश का आम नागरिक अपनी चारदीवारी के अंदर बैठकर टेलीविज़न देखते हुए किसान और उनके आंदोलन को संदेह की दृष्टि से देखने लगता है। किसानों की आवाज़ और उनका आंदोलन कमज़ोर होता है।

ध्यान रहे किस तरह से 'देशद्रोह' शब्द को इस देश में एक फैशन बना दिया गया है। सरकार के खिलाफ बोलने पर किस तरह से इस शब्द को उनपर चिपका दिया जाता है। राष्ट्रविरोधी, टुकड़े-टुकड़े गैंग, लेफ्टिस्ट, जिहादी, नक्सली, जयचंद, मोमबत्ती गैंग, अवॉर्ड वापसी गैंग और ना जाने क्या-क्या! विरोध की हर आवाज़ को इनमें से किसी उपाधि से नवाजा जाता है। किसान आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ना भी इसी का हिस्सा है।

चाहे उनके आंदोलन को खालिस्तानी एंगल देना हो या इसे विपक्ष की सियासी साज़िश बताना हो इन सभी कारणों से किसान आज मीडिया के एक सेक्शन से नाखुश है उन्हें संदेह की दृष्टि से देखता है और मीडिया को गोदी-मीडिया जैसे शब्दों से संबोधित करते हुए, गोदी मीडिया मुर्दाबाद का नारा लगाते हुए अपना विरोध जताता है।

खैर, किसान 26 नवंबर से संघर्ष कर रहे हैं, जूझ रहे हैं और गृहमंत्री जी के लिए हैदराबाद का नगर-निगम चुनाव ज़्यादा महत्वपूर्ण है, कोरोना भी शायद चुनावी-वेकेशन पर जा चुका है। बहरहाल सत्ता के कानों तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए किसान राजधानी में आंदोलन जारी रखने को संकल्पबद्ध हैं। सरकार के लिए किसान कितना महत्वपूर्ण हैं इसका परिचय तो सरकार ने 3 दिसंबर की तारीख देकर दे ही दिया था। हालंकि किसानो के आंदोलन के दबाव में सरकार झुकी और उन्हें आज ही मंगलवार 1 दिंसबर को बातचीत के लिए बुलाया। सभी प्रोपेगंडा, दमन, अवरोधों और अनदेखी के बावजूद किसानों का हौसला पस्त नही है। उनकी आवाज़ बुलंद है और वे बेहद दृणता के साथ सत्ता से सवाल कर रहे हैं।

Farmer protest
DILLI CHALO
Anti-farmer propaganda
Media
TV media
Godi Media
Narendra modi
Amit Shah
Farm bills 2020

Related Stories

गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया

छात्र संसद: "नई शिक्षा नीति आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज़"

दलितों पर बढ़ते अत्याचार, मोदी सरकार का न्यू नॉर्मल!

पंजाब: आप सरकार के ख़िलाफ़ किसानों ने खोला बड़ा मोर्चा, चंडीगढ़-मोहाली बॉर्डर पर डाला डेरा

आईपीओ लॉन्च के विरोध में एलआईसी कर्मचारियों ने की हड़ताल

सार्वजनिक संपदा को बचाने के लिए पूर्वांचल में दूसरे दिन भी सड़क पर उतरे श्रमिक और बैंक-बीमा कर्मचारी

झारखंड: केंद्र सरकार की मज़दूर-विरोधी नीतियों और निजीकरण के ख़िलाफ़ मज़दूर-कर्मचारी सड़कों पर उतरे!

दो दिवसीय देशव्यापी हड़ताल को मिला व्यापक जनसमर्थन, मज़दूरों के साथ किसान-छात्र-महिलाओं ने भी किया प्रदर्शन

देशव्यापी हड़ताल का दूसरा दिन, जगह-जगह धरना-प्रदर्शन

मोदी सरकार की वादाख़िलाफ़ी पर आंदोलन को नए सिरे से धार देने में जुटे पूर्वांचल के किसान


बाकी खबरें

  • सोनिया यादव
    सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक आदेश : सेक्स वर्कर्स भी सम्मान की हकदार, सेक्स वर्क भी एक पेशा
    27 May 2022
    सेक्स वर्कर्स को ज़्यादातर अपराधियों के रूप में देखा जाता है। समाज और पुलिस उनके साथ असंवेदशील व्यवहार करती है, उन्हें तिरस्कार तक का सामना करना पड़ता है। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से लाखों सेक्स…
  • abhisar
    न्यूज़क्लिक टीम
    अब अजमेर शरीफ निशाने पर! खुदाई कब तक मोदी जी?
    27 May 2022
    बोल के लब आज़ाद हैं तेरे के इस एपिसोड में वरिष्ठ पत्रकार अभिसार शर्मा चर्चा कर रहे हैं हिंदुत्ववादी संगठन महाराणा प्रताप सेना के दावे की जिसमे उन्होंने कहा है कि अजमेर शरीफ भगवान शिव को समर्पित मंदिर…
  • पीपल्स डिस्पैच
    जॉर्ज फ्लॉय्ड की मौत के 2 साल बाद क्या अमेरिका में कुछ बदलाव आया?
    27 May 2022
    ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन में प्राप्त हुई, फिर गवाईं गईं चीज़ें बताती हैं कि पूंजीवाद और अमेरिकी समाज के ताने-बाने में कितनी गहराई से नस्लभेद घुसा हुआ है।
  • सौम्यदीप चटर्जी
    भारत में संसदीय लोकतंत्र का लगातार पतन
    27 May 2022
    चूंकि भारत ‘अमृत महोत्सव' के साथ स्वतंत्रता के 75वें वर्ष का जश्न मना रहा है, ऐसे में एक निष्क्रिय संसद की स्पष्ट विडंबना को अब और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    पूर्वोत्तर के 40% से अधिक छात्रों को महामारी के दौरान पढ़ाई के लिए गैजेट उपलब्ध नहीं रहा
    27 May 2022
    ये डिजिटल डिवाइड सबसे ज़्यादा असम, मणिपुर और मेघालय में रहा है, जहां 48 फ़ीसदी छात्रों के घर में कोई डिजिटल डिवाइस नहीं था। एनएएस 2021 का सर्वे तीसरी, पांचवीं, आठवीं व दसवीं कक्षा के लिए किया गया था।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License