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पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसान बनाम हिंदू पहचान बन सकती है चुनावी मुद्दा
किसान आंदोलन ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश में सामाजिक पहचान बदल दी है, उत्तरप्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में यहां से 122 सीटें हैं और अगले साल की शुरुआत में यहां चुनाव होने हैं।
प्रज्ञा सिंह
30 Nov 2021
UP farmers
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

जब आप पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसी किसान के बारे में सोच रहे होते हैं, तो आप असल में किसी जाट की कल्पना कर रहे होते हैं। लेकिन, अगर आप उस इलाक़े में होते हैं, जहां प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना भाषण देते हुए तीन कृषि क़ानूनों को निरस्त करने का ऐलान किया था, तो आप कई ग़ैर-जाटों को यह कहते सुन रहे होते हैं कि 'हम भी किसान हैं'।अलग-अलग सामाजिक समूहों के लोगों ने साल भर से चल रहे इस किसान आंदोलन की जीत पर ख़ुशी मनायी थी और इसमें ख़ुद के समर्थक या भागीदार होने की बात कही थी।

थानाभवन क़स्बे के पास स्थित थिरवा गांव के दलित सलेख चंद को ही ले लीजिए। उनका कहना है, "मैं भी एक किसान हूं"।  वह कहते हैं, "मेरे समुदाय के ज़्यादातर लोग या तो दिहाड़ी मज़दूर हैं या सरकारी नौकरियों में हैं, लेकिन जिनके पास ज़मीन है, उन्होंने किसान आंदोलन का पूरा समर्थन किया है।" इसी तरह शामली के मनोज कुमार की बातों पर ग़ौर कीजिए, जो सामाजिक रूप से पिछड़े कश्यप समुदाय से आते हैं। उनका कहना है, ''हमारे पास ज़्यादा ज़मीन नहीं है और हम छोटे-मोटे काम करते हैं, लेकिन हम प्रधानमंत्री के ऐलान से इसलिए ख़ुश हैं, क्योंकि हम भी किसान हैं।''

इससे पहले  बतौर किसान पहचान का मतलब था ख़ुद को एक ज़मींदार के तौर पर पेश करना। यह जाट या राजपूत जैसे कुछ बड़े समुदायों की असली पहचान हुआ करती थी, हालांकि इस इलाक़े में ब्राह्मण और बनिया जैसी दूसरे भू-स्वामी कुलीन जातियां भी रहती हैं। बनियों ने पिछले कुछ दशकों में इस इलाक़े में ज़मीन ख़रीदने के लिए अपनी पूंजी का इस्तेमाल किया है। किसान शब्द भी उस मज़दूर के ठीक उलट है, जो ज़मीन पर काम करता है। किसान आंदोलन ने इस परिदृश्य को भी बदलकर रख दिया है और अब उनका भी यही कहना है कि उनकी पहचान भी एक किसान की ही है, और इस तरह की चीज़ें आपको हर जगह देखने-सुनने को मिल जाती है।

आमतौर पर ग़ैर-कुलीन समूहों से सामाजिक दूरी बनाये रखने वाले जाट समुदाय भी अब  इस तरह की नयी स्थिति का स्वागत करते हैं। बड़ौत विधानसभा क्षेत्र के जोनमाना गांव के एक बड़े जाट किसान ओमबीर सिंह का कहना है, ''यह भारतीय जनता पार्टी का दुष्प्रचार है कि किसान सिर्फ़ जाट होते हैं।'' कृषि आंदोलन से किसानों को लेकर नये सिरे से पैदा हुआ उनका यह नज़रिया बिल्कुल ही नयी तरह का है। वह कहते हैं, "सिख भी मुले जाट, गुर्जर, रांगर्ड (मुस्लिम राजपूत) और दलित जैसे ही किसान हैं। किसान में बढ़ई, हलवाहे, ज़मींदार या नाई सब शामिल है। चाहे वे आलू बोयें या गन्ना लगाये, सबके सब किसान हैं और हम भी किसान हैं।”

नज़रियों में आये इस बदलाव के पीछे साल भर चलने वाले किसान आंदोलन से पैदा हुई अलग-अलग तबकों के बीच की वह एकजुटता है, जिसे इस इलाक़े के हज़ारों लोगों का समर्थन हासिल है। इन क़ानूनों को जल्द ही निरस्त कर दिया जायेगा, इसकी शायद ही अहमियत हो, क्योंकि इस आंदोलन ने उन लोगों की भीतर अपनी संख्या को बढ़ाने की आकांक्षा पैदा कर दी है, जो ख़ुद को किसान मानते हैं। गन्ने की बकाया राशि, कम बिजली शुल्क, और आंदोलन में भाग लेने वालों के आपराधिक आरोपों से मुक्ति के अलावा  सरकार से सुनिश्चित न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करने वाले लोगों का संख्या के लिहाज़ से कहीं ज़्यादा ताक़तवर होना इस इलाक़े के किसानों की इन मांगों को मज़बूती देगी।

ठीक है कि जाति अब भी एक अहम कारक है, और यहां की राजनीति इसके इर्द-गिर्द ही घूमती रही होती है, लेकिन किसानों की पेशेवर पहचान ने इस स्थिति की धार को कुछ हद तक तो कुंद कर ही दिया है। कांधला विधानसभा क्षेत्र के जसला गांव के एक गन्ना किसान सतपाल गुर्जर को ही ले लीजिए।सतपाल चालीस साल के हैं। गुर्जरों को पारंपरिक रूप से एक कृषक समुदाय के तौर पर ही देखा जाता है और इस गांव में कई लोग भाजपा के वफ़ादार भी हैं। बीजेपी नेता वीरेंद्र गुर्जर का जिक्र करते हुए सतपाल मानते हैं, ''यहां हम जाति के आधार पर वोट करते हैं- कांधला विधायक जहां भी जाते हैं, हम भी वहीं जाते हैं। फिर भी हम किसानों के इस आंदोलन का पुरज़ोर समर्थन करते हैं। हम में से कई लोगों ने प्रदर्शनकारियों के लिए चंदा (दान) और अनाज तक एकट्ठे किये हैं।”सतपाल जैसे लोगों के लिए जाति और राजनीतिक जुड़ाव एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। हालांकि, इसके बावजूद ज़मींदार और किसान के रूप में उनकी ये चिंतायें बनी हुई हैं। कृषि क़ानूनों को निरस्त किये जाने के बाद भी किसानों के मन में यह डर बना हुआ है कि है कि कॉरपोरेट्स कहीं खेतों में घुसने का कोई रास्ता न तलाश ले, और उन्हें ज़मीन से कहीं वंचित न कर दे।

इसी तरह, थानाभवन के थिरवा गांव में एक छोटे से किराना स्टोर के मालिक नौजवान किसान बंटी गुराना की बातों पर ज़रा ग़ौर कीजिए। उनका परिवार बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को वोट देता है, और वह कहते हैं, “हम किसान ख़ुद ही तय करते हैं कि कितना गन्ना, सरसों या सब्ज़ियां बोनी हैं। ये कृषि क़ानून तो हमें यह तय करने के विकल्प से भी वंचित कर देते। अब तो ख़ैर यह चिंता दूर हो गयी है, लेकिन दूसरे मुद्दे तो अब भी बने हुए हैं, और सबसे बड़ा मुद्दा तो मूल्य में बढ़ोत्तरी है।"

किसान के रूप में सामने आती यह मज़बूत पहचान सांप्रदायिक परिधि के परे जाती है और पिछले तीन चुनावों में इस इलाक़े में भाजपा को मिले भारी राजनीतिक प्रभाव पर रोक लगा सकती है। सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज के मुताबिक़, 2019 के लोकसभा चुनावों में 91% जाट मतदाताओं ने भाजपा उम्मीदवारों का समर्थन किया था, जो राज्य के किसी भी अन्य सामाजिक समूह के मुक़ाबले लामबंदी का उच्च अनुपात था। इसी तरह, 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनावों में सबसे पिछड़े समुदायों के लोगों को भाजपा ने यादव विरोधी भावना के ख़िलाफ़ कर दिया था। यहां तक कि दलितों के एक तबका मायावती की पार्टी को छोड़कर बीजेपी का रुख़ कर लिया था। अब, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और भाजपा के मतदाता उनसे छिटकते हुए दिख रहे हैं, और उनमें से कई समाजवादी पार्टी-राष्ट्रीय लोक दल (सपा-रालोद) के पाले में जाते हुए दिख रहे हैं।

नरेश सेन नाई या हज्जाम समुदाय से आते हैं और मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के शामली ब्लॉक के करोडी गांव से हैं, उनका कहना है, “मैं एक किसान हूं और मैं भाजपा के साथ नहीं हूं। इसकी बड़ी वजह क़ीमतों और ख़ासकर रसोई गैस क़ीमत में होने वाला इज़ाफ़ा है। हमें डीएपी (उर्वरक) नहीं मिलता है और इसके बजाय हमें अपने खेतों में एनपीके का इस्तेमाल करना पड़ता है, लेकिन, इसकी क़ीमत भी 350 रुपये प्रति बोरी से ज़्यादा पड़ती है।”

आज के हालात दो साल पहले के हालात से बिल्कुल जुदा है। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े कश्यप समुदाय से ताल्लुक़ रखने वाले शामली प्रखंड के एक निजी कंपनी के कर्मचारी प्रमोद कुमार कहते हैं, ''हम पक्के (कट्टर) भाजपा वाले थे, लेकिन अब हमें अपनी नौजवान पीढ़ी के बारे में सोचना होगा। अगर नौकरी नहीं है और आरक्षण भी नहीं है, तो कल हमारे नौजवानों का क्या होगा ?”

कश्यप समुदाय को पिछड़े वर्ग के आरक्षण के उप-वर्गीकरण और नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के लिए उच्च सीमा का वादा किया गया था। दोनों वादे अधूरे हैं, और इसका असर इस हद तक है कि आने वाले चुनावों में हिंदुत्व और यादव विरोधी भावनायें भी कुंद पड़ जायेंगी। पांच साल के इंतजार के बाद, ख़ास तौर पर नौजवानों में मोहभंग होना शुरू हो गया है। कृषि क़ानूनों को वापस लेने से स्थिति के पलट जाने की संभावना नहीं दिखती है। जसला के एक मज़दूर शिव कुमार हाउस पेंटर के रूप में एक दिन में 300 रुपये तक कमा सकते हैं, लेकिन महामारी के बाद से उन्हें हर दिन काम ही नहीं मिलता है। शिव कुमार कहते हैं , "सत्तारूढ़ दल के लिए अब यह इतना आसान नहीं है।" वह आगे कहते हैं, “चाहे सरकार आ जाये, पर ज़्यादा वोट मिलने की उम्मीद तो नहीं है। एकतरफ़ा हरगिज़ नहीं है।”

कई दलित और पिछड़े वर्ग के लोग विपक्षी दलों की ओर रुख़ कर रहे हैं और ग्रामीण संकट पर खुलकर अपनी चिंता जता रहे हैं। यहां के लोग बीजेपी को अर्थव्यवस्था का खलनायक बताते है। जोनमाना के एक अन्य किसान हरकिशन पाल कहते हैं, ''भले ही वह हमें सोने से लाद दें, लेकिन हम तो उन्हें वोट नहीं देंगे।''

इसके अलावा, किसान के रूप में यह नयी पहचान गर्व का एक नया स्रोत बन गयी है, क्योंकि इसमें जातिगत पहचान से कहीं ज़्यादा कुछ शामिल है। 'किसान' में अब वे तमाम लोग शामिल हैं,जिनके भीतर भाजपा को लेकर शंका है या फिर जिन्हें भाजपा को लेकर मोहभंग हो चुका है, ऐसे लोगों की संख्या बहुत बड़ी है। वास्तव में  इन कृषि क़ानूनों को वापस लेने से किसान की व्यापक पहचान और भी आकर्षक लगने लगी है। प्रमोद कहते हैं, “सरकार ने कृषि क़ानूनों को इसलिए वापस ले लिया है, क्योंकि किसानों ने इसके लिए लड़ाई लड़ी है। किसी भी स्थिति में उन्होंने अपना विरोध ख़त्म नहीं किया, चाहे गर्मी हो या सर्दी, भले ही लोग मर गये, और मोदी को आख़िरकार उनके सामने झुकना पड़ा। ”

हिंदुत्व ने सभी को हिंदू छतरी के नीचे लाने की कोशिश की थी, लेकिन ऐसा उसने सापेक्ष सामाजिक स्थिति में बदलाव किए बिना यह कोशिश की थी। जहां इसने भाजपा को हर एक जाति के लोगों को एक अलग समूह के रूप में लुभाने की इजाज़त दी, वहीं "हिंदू" सभी के लिए एक आकर्षित करने वाला राजनीतिक शब्द बन गया। गन्ना किसानों के बकाया का भुगतान नहीं करना, ईंधन और खाना पकाने के तेल सहित ज़रूरी वस्तुओं की आसमान छूती क़ीमतें और कोविड-19 महामारी के कुप्रबंधन की यादें अब भी ज़ेहन में ताज़ा हैं, अब तो किसान वाली यह पहचान अपनी आकांक्षा को ज़मीन पर उतारने में समर्थ दिखने लगी है।

2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद हिंदुत्व ने दो मुखर क्षेत्रीय समुदायों-जाटों और मुसलमानों के बीच के रिश्तों में भी दरार ला दी थी। अब जाटों का मुसलमानों से कोई टकराव नहीं रह गया है, जबकि मुसलमानों के लिए तो यह किसान आंदोलन किसानों की उनके हक़ की तलाश से कहीं बड़ा बन गया है। बहुत सारे मुसलमान, यहां तक कि जो खेती नहीं भी करते हैं, उनको भी इस कृषि विरोधी क़ानून आंदोलन में मोदी विरोधी, योगी विरोधी और भाजपा विरोधी भावना की नुमाइंदगी दिखती है।

अलग-अलग तबकों के बीच घूमते हुए अपनी पॉलिसी बेचने वाले अनीस अंसारी कहते हैं, “जनता परिवर्तन चाह रही है। वे बढ़ती क़ीमतों को लेकर इतने चिंतित हैं कि मोटरबाइक चलाने से पहले सौ बार सोचते हैं। पिछले चुनाव में उन्होंने बसपा को वोट दिया था, अब वे पश्चिम उत्तर प्रदेश में कई लोगों के बीच इस बात को कहते हुए सुनते हैं- "(समाजवादी पार्टी के नेता) अखिलेश यादव आ गये हैं, चीज़ें बदल रही हैं।"

कृषि आंदोलन न सिर्फ़ गांवों में फैल गया है, बल्कि इसका रूप भी बदल गया है। इससे भाजपा विरोधी भावना का दायरा व्यापक हुआ है। सच है कि उत्तर प्रदेश के इस हिस्से में भाजपा के ताक़तवर होने से पहले राष्ट्रीय लोक दल, समाजवादी पार्टी और बसपा की काफी पकड़ हुआ करती थी। लेकिन, अब तो सत्ता पक्ष के समर्थक भी मानते हैं कि बीजेपी को अपनी किसान विरोधी और कारपोरेट समर्थक छवि से पार पाना होगा। बागपत ज़िले के जागोश गांव के एक प्रमुख किसान अशोक त्यागी कहते हैं, "बढ़ती क़ीमतें और किसानों की चिंताओं को नज़रअंदाज़ करना ऐसे ही मुद्दे हैं, (जो भाजपा के ख़िलाफ जाते हैं)।” लेकिन वह आगे कहते हैं, "ग़ैर-जाट भाजपा के साथ हैं। पिछले चुनाव के बाद से उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है।"

हालांकि, पिछले चुनावों के दौरान मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को जो ज़ोरदार समर्थन मिला था, वह कमज़ोर पड़ता दिखायी दे रहा है। मुज़फ़्फ़रनगर के पास चरथवल के एक किसान टिंकू राजपूत कहते हैं, "आपको कभी इन हिस्सों में हर-हर मोदी सुनायी देता, लेकिन वह तो एक अलग दौर था, एक अलग महौल था।" दरअसल वह 2013 में इस इलाक़े में हुए दंगों का ज़िक्र कर रहे हैं, जिसने 'हिंदू-मुस्लिम' का माहौल बना दिया था। अब वह अगले साल 2022 के विधानसभा चुनाव में आदित्यनाथ सरकार को वोट देने को अपनी "मजबूरी" बताते हैं, और फिर भविष्यवाणी कर देते हैं कि कई अन्य लोगों की तरह, "इस बार योगी के लिए भी वोट कम पड़ेंगे"।

यह स्थिति कब तक रहेगी, इसका अंदाज़ा लगाना तो मुश्किल है। लेकिन, हक़ीक़त तो यही है कि भाजपा अपने सबसे मुखर क्षेत्रीय आलोचक, जाटों को अन्य समुदायों के मुक़ाबले खड़ा करके जाटों को अलग-थलग करने की कोशिश कर सकती है। उसके लिए यह एक ऐसी रणनीति है, जिसे वह पड़ोसी राज्य हरियाणा में कामयाबी के साथ आज़मा चुकी है। हालांकि, सत्ता पक्ष के विरोधियों की शिकायतों ने उन्हें भी हाथ मिलाने पर मजबूर कर दिया है। और जहां कोई व्यावसायिक पहचान नहीं है, वहां भी कम से कम यह भावना तो है ही कि विरोध से फ़ायदा मिल सकता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Farmer Versus Hindu Identity Could Become Poll Theme in West Uttar Pradesh

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