NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
कैसे जम्मू-कश्मीर का परिसीमन जम्मू क्षेत्र के लिए फ़ायदे का सौदा है
दोबारा तैयार किये गये राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्रों ने विवाद के लिए नए रास्ते खोल दिए हैं, जो इस बात का संकेत देते हैं कि विधानसभा चुनाव इस पूर्ववर्ती राज्य में अपेक्षित समय से देर में हो सकते हैं।
रश्मि सहगल
14 May 2022
Delimitation
श्रीनगर, 5 मई (एएनआई): जम्मू-कश्मीर परिसीमन आयोग ने गुरूवार को श्रीनगर में केंद्र शासित प्रदेश में विधानसभा की सीटों के पुनर्गठन के लिए अंतिम आदेश पर हस्ताक्षर किये।

जम्मू-कश्मीर पर सुप्रसिद्ध राजनीतिक एवं सामाजिक टिप्पणीकार, ज़फर चौधरी ने तत्कालीन राज्य के लिए परिसीमन आयोग के द्वारा हालिया घोषणा के बारे में रश्मि सहगल के साथ बातचीत की। उनका कहना है कि केंद्र ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को मात्र “एक-दिवसीय विशाल आयोजन” के तौर पर ही नहीं लिया है, बल्कि इसकी मौजूदा स्थिति में व्यवहारिक रूप से बदलाव करने के लिए राजनीतिक एवं संवैधानिक प्रक्रियाओं की शुरुआत को चिह्नित किया है। हालाँकि कोई भी परिसीमन प्रकिया हर एक हितधारक को खुश नहीं कर सकती है, इसके बावजूद, जैसा कि उन्होंने कहा, पुनर्गठित राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्रों में मुश्किलें खड़ी करने वाले पहलू मौजूद हैं। चौधरी के पूर्वानुमान के मुताबिक, उदाहरण के लिए,”मतदान की शक्तियों के साथ मनोनीत सदस्य सरकार के पक्ष में संतुलन को संभावित तौर पर झुका सकते हैं।” पेश है संपादित अंश।

जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 के तहत परिसीमन था, न कि परिसीमन अधिनियम, 2002 के तहत, जिसने 2001 की जनगणना को निर्वाचन क्षेत्रों के पुनः मानचित्रण के आधार के लिए याद किया था। इस बारे में आपकी टिप्पणी?

जब भारत सरकार ने 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को खत्म कर दिया, तो यह कोई एक दिविसीय भव्य आयोजन नहीं था, बल्कि यह यथास्थिति को व्यवहारिक रूप से बदलने के लिए राजनीतिक एवं संवैधानिक प्रक्रियाओं एक पैकेज की शुरुआत मात्र थी। परिसीमन आयोग को जम्मू-कश्मीर में नई राजनीतिक वास्तविकताओं का मानचित्र बनाने के लिए उस पैकेज के हिस्से के तौर पर देखा जाना चाहिए। वास्तव में देखा जाये तो जम्मू-कश्मीर को लेकर, मौजूदा सिद्धांतों से हटकर ऐसी कई प्रक्रियाओं को, क़ानूनी एवं संवैधानिक साधनों के एक नए सेट के माध्यम से उलट दिशा में लागू किया जा रहा है। 

जनसंख्या की जनगणना को 2026 तक पूरा किया जाना था, और जम्मू-कश्मीर के लोग और राजनीतिक दल तब तक परिसीमन को स्थगित रखे जाने के पक्ष में थीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

यह मांग जम्मू क्षेत्र के कुछ वर्गों तक ही सीमित है, जिन्हें 2011 की जनगणना को लेकर संदेह बना हुआ था। नवीनतम दशक की जनगणना, जिसे 2021 में शुरू हो जाना था, उसे कोविड-19 महामारी के चलते अभी तक शुरू नहीं किया जा सका है। इस साल के अंत तक यदि जनगणना का काम शुरू हो जाता है तो उसके बाद इसके आंकड़ों को सारणीबद्ध होने में कुछ साल और लग सकते हैं। नवीनतम जनगणना के बाद परिसीमन की प्रक्रिया में कम से कम एक और साल लग जाता, जिसका अर्थ है कि 2026 के पहले कोई चुनाव नहीं हो पाता। जम्मू-कश्मीर में पहले ही चार वर्षों से निर्वाचित सरकार नहीं है। मैं नहीं समझता कि सरकार और हितधारकों के लिए भी इतने लंबे समय तक इंतजार कर पाना संभव है।

पारंपरिक तौर पर, किसी राज्य की जनसंख्या को इस कवायद का आधार माना जाता है। लेकिन आयोग ने विभिन्न क्षेत्रों में जनसंख्या के आकार को इसमें नजरअंदाज कर दिया है। जिसके परिणामस्वरूप, 44% लोगों के होने के साथ जम्मू क्षेत्र को 48% सीटें प्राप्त हुई हैं, जिससे इसकी संख्या 43 हो गई है। वहीँ दूसरी ओर घाटी में आबादी का 56% होने के बावजूद उसके हिस्से में 52% सीटें ही आई हैं। इस प्रकार 90 सीटों वाले सदन में इसकी सीटें घटकर 47 रह गई हैं। आप इसको कैसे समझते हैं?

इसी निष्कर्ष के कारण ही कश्मीर में राजनीतिक दल और आम लोग अंतिम परीसीमन नतीजे के प्रति बेहद आलोचक बने हुए हैं। पिछली सभी परिसीमन प्रक्रियाओं के लिए जनसंख्या हमेशा से भारत के सहमत एवं स्वीकृत सिद्धांत के केंद्र में रही है। यहाँ तक कि 2019 के जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम ने भी जनसंख्या को बुनियादी आधार के रूप में वर्णित किया था। न्यायमूर्ति रंजना देसाई के नेतृत्व में आयोग ने खुद इस बात की स्वीकारोक्ति की है कि उन्होंने अपनी खुद की एक अलहदा पद्धति तैयार की है। इसमें भौगौलिक आकृति को ज्यादा महत्व दिया गया है और अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगे होने के कारण जीवन जीने की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए जम्मू क्षेत्र के लिए गैर-आनुपातिक लाभ की स्थिति साबित हुई है, इसके बावजूद कि इसके पास कश्मीर की तुलना में दस लाख से अधिक कम आबादी है।  

दो मनोनीत सीटों के आवंटन का मामला पेचीदा है। क्या उन्हें कश्मीरी पंडितों के लिए आवंटित किया गया है, जैसा कि कुछ संकेत मिलते हैं? इस कवायद को कैसे आयोजित किया जायेगा?

आयोग ने ‘कश्मीरी प्रवासियों’ के लिए सीटों को नामांकित किये जाने की सिफारिश की है, जो कि ठीक-ठीक ‘कश्मीरी पंडितों’ के संदर्भ में नहीं की गई है। प्रवासियों में मुस्लिम और सिख भी शामिल हो सकते हैं, लेकिन यहाँ पर ‘निर्वासन’ शब्द का इस्त्तेमाल करने से यह स्पष्ट रूप से समझ में आता है कि यह कश्मीरी पंडितों के लिए है। विस्थापित पंडित समुदाय निश्चित रूप से सहानुभूति एवं विशेष प्रावधानों के पात्र हैं और उन्हें विधाई प्रकिया में शामिल किया जाना चाहिए, जैसा कि लोकसभा में एंग्लो-इंडियन्स के मामले में किया गया था। लेकिन इस प्रकार की सिफारिश परिसीमन आयोग के जनादेश में नहीं थी। न तो पुनर्गठन अधिनियम और न ही परिसीमन आयोग ने ही पैनल से इस बारे में कोई अधिसूचना के लिए कोई सिफारिश की थी। अब इस बारे में फैसला सरकार को करना है। एक बार स्वीकृत हो जाने पर, नामांकन पर कोई फैसला करना सरकार के विशेषाधिकार में है। सदन के पटल पर जब विधानसभा का गठन किया जायेगा, उस दौरान मतदान करने की शक्तियों वाले मनोनीत सदस्यों के द्वारा संभावित रूप से  संतुलन को सरकार के पक्ष में झुकाया जाये।

यहाँ पर पीओके से आये हुए लोगों के प्रतिनिधित्व के बारे में क्या कहना है। क्या यह विशुद्ध रूप से सिर्फ के प्रतीकात्मक कदम है?

पीओके शरणार्थियों की स्थिति के बारे में जानने वाले किसी भी व्यक्ति के लिये उनके नामांकन की यह सिफारिश अपने आप में बहुत बड़ा आश्चर्य है। सभी व्यवहारिक कारणों के लिहाज से, वे पूर्ववर्ती राज्य (और अब इसके स्वाभाविक रहवासी) के लिए ‘राज्य के विषय’ रहे हैं, और इसलिए चुनाव लड़ने के लिए पात्र हैं। अतीत में कई उल्लेखनीय विधायक और मंत्री शरणार्थियों में से चुने गये हैं। चूँकि कश्मीर के भीतर कोई भी पीओके शरणार्थी नहीं रहता है, ऐसे में उन्हें कश्मीरी पंडितों के समान सुरक्षा जोखिमों का सामना नहीं करना पड़ता है।

मेरा प्रारंभिक आकलन यह है कि भाजपा और सरकार का इरादा पीओके के शरणार्थियों, उनके विस्थापन और संघर्षों को नए सिरे से राजनीतिक सुर्ख़ियों में लेन का है, जिसका असर नियंत्रण रेखा के उस पार भी पड़ेगा। पिछले कुछ महीनों से पीओके शरणार्थियों की भाजपा और आरएसएस के साथ निकटतम समन्यव के साथ बाद पैमाने पर संगठनात्मक गतिविधि हुई है। किसी को भी 5 अगस्त को संसद के भीतर गृह मंत्री के उस भाषण को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए जब उन्होंने पीओके पर फिर से कब्जा करने की बात कही थी। इसमें पाकिस्तान के साथ वैमनस्य के बढ़ने की संभावना निहित है। तनाव में इजाफे का समय और रफ्तार मौजूदा भू-राजनैतिक वास्तविकताओं पर निर्भर करेगा।

पुनर्गठन के बाद से ही सभी राजनीतिक दलों के बीच में यह भावना घर कर गई है कि इस कवायद को राज्य चुनाव के बाद किसी हिन्दू मुख्यमंत्री को  शपथ ग्रहण कराने को सुनिश्चित करने के लिए किया गया है। क्या अब इसकी कोई विशिष्ट संभावना नजर आती है? क्या यह घाटी में रह रहे मुसलमानों को और अधिक अलग-थलग करने की कोशिश  है?

इस परिसीमन की प्रक्रिया के बाद, चुनाव हो जाने के बाद, मुस्लिम आबादी 65% से उपर होने के बावजूद, हिन्दू समुदाय से किसी मुख्यमंत्री के बनने की वास्तव में एक बड़ी संभावना बनी हुई है। निर्वाचन क्षेत्र-वार विश्लेषण के आधार पर यह पता चलता है कि कम से कम 32-35 निर्वाचन क्षेत्रों में, हिन्दू उम्मीदवार के जीत हासिल करने की बेहतर संभावना बनी हुई है। हो सकता है कि सभी हिन्दू एक ही पार्टी, उदाहरण के लिए भाजपा, से न हों, लेकिन कई मुसलमान, मुख्यतया कश्मीर से, ऐसी सरकार का हिस्सा बनने के इच्छुक होंगे। इस समूचे परिसीमन परिदृश्य के बाद, एक हिन्दू मुख्यमंत्री का बनना लगभग तय लगता है।

जम्मू क्षेत्र में, डोडा जैसे कम हिन्दू आबादी के साथ विधानसभा क्षेत्रों को तराशा गया है। लेकिन इस प्रकार की वरीयता को व्यापक मुस्लिम आबादी वाले स्थानों पर नहीं दिया गया है। आपके हिसाब से ऐसा क्यों किया गया है?

जैसा कि मैंने उपर कहा था, परिसीमन आयोग की कार्यप्रणाली जम्मू के लिए लाभदायक रही है। यदि हम धरातल पर निगाह डालें तो हम देख सकते हैं कि कश्मीर घाटी में ऐसे 19 निर्वाचन क्षेत्र हैं जहाँ की आबादी का आकार 1.5 लाख या उससे अधिक है। वहीं दूसरी तरफ जम्मू के मामले में यह संख्या मात्र छह है। इसी प्रकार, कश्मीर में 25 निर्वाचन क्षेत्रों में एक से लेकर डेढ़ लाख के दायरे में आबादी है। हालांकि जम्मू में यह संख्या 30 है। जहाँ एक तरफ जम्मू क्षेत्र में अब एक लाख से कम आबादी वाले सात ऐसे निर्वाचन क्षेत्र हैं, वहीं कश्मीर में यह संख्या मात्र तीन है।

आपको क्या लगता है कि जम्मू क्षेत्र के पुंछ और राजौरी क्षेत्रों को अनंतनाग लोकसभा क्षेत्र में क्यों,शामिल किया गया है, यह देखते हुए कि ये इलाके भौगौलिक दृष्टि से  आपस में सटे हुए नहीं हैं और पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला उन्हें आपस में विभाजित करती है? 

इस फैसले पर कश्मीर के भीतर भारी कुहराम मचा हुआ है। उन्होंने इसे कश्मीरियों को निस्सहाय करने का प्रयास बताया है। लेकिन जम्मू की तरफ इस फैसले ने संतुष्टि की भावना को पैदा किया है। पीर पंजाल क्षेत्र को ऐतिहासिक तौर पर कश्मीर और जम्मू दोनों के राजनीतिक अभिजात वर्ग के द्वारा नजरअंदाज किया गया है। 1967 में पहले लोकसभा चुनाव के बाद से इस क्षेत्र से सिर्फ एक बार ही एक उम्मीदवार जीत सका। तत्कालीन जम्मू-पुंछ लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में, जिसमें राजौरी और पुंछ शामिल थे, हमेशा से जम्मू जिले का हिस्सा रहा है। अब, दक्षिण कश्मीर में बेहद खराब मतदान प्रतिशत के इतिहास को देखते हुए, राजौरी और पुंछ में कई लोग सोच रहे हैं कि लोकसभा में आखिरकार उनकी आवाज को सुना जाना संभव हो सके।

भले ही आयोग ने अपनी कवायद को संतुलित रखने के लिए पांच लोकसभा की सीटों में से प्रत्येक के लिए 18 विधानसभा क्षेत्रों को आवंटित किया है, लेकिन अनंतनाग निर्वाचन क्षेत्र के साथ एक समस्या है। वह यह है कि इन दो क्षेत्रों के बीच की एकमात्र सड़क संपर्क (राजौरी-पुंछ और दक्षिण कश्मीर) साल में करीब आठ महीने तक बंद रहता है। कश्मीर में नाराजगी और पहुँच की समस्या के बावजूद, अनंतनाग-राजौरी लोकसभा सीट भी कश्मीर और जम्मू क्षेत्रों के बीच में बेहतर समझ को बढ़ाने में मददगार साबित हो सकती है। 

परिसीमन ने घाटी में लोगों को और भी अधिक कटु बना दिया है। क्या जम्मू के लोग इस कवायद के नतीजे से संतुष्ट हैं?

मैं इस प्रश्न को कश्मीर बनाम जम्मू के सामान्य चश्मे से परे जाकर देखना चाहूँगा। मेरे विचार में, कोई भी परिसीमन की कवायद कभी भी सभी लोगों को खुश नहीं रख सकता है। परिसीमन अपने-आप में ही मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को चुनौती देने के बारे में है। जम्मू में भी, कई मौजूदा किरदारों, जिनमें कई लोकप्रिय चेहरे भी शामिल हैं, ने अपने निर्वाचन क्षेत्रों को खो दिया है। नई सीमाओं के साथ नए हितधारकों के उभरने की संभावना उत्पन्न होती है।

अब जबकि यह कवायद पूरी हो चुकी है, ऐसे में क्या आप इस साल के अंत तक चुनाव होने को देखते हैं, जैसा कि पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आश्वस्त किया था, जब उन्होंने कश्मीरी नेताओं के साथ बातचीत की थी?

मुझे इस बारे में गंभीर संदेह है। कुछ महीने पहले ही गृह मंत्री ने कहा था कि परिसीमन प्रक्रिया पूरी होने के पांच से छह महीने बाद चुनाव आयोजित कराये जा सकते हैं। लेकिन परिसीमन आयोग ने कश्मीरी प्रवासियों और पीओके शरणार्थियों के लिए आरक्षण के संबंध में नए प्रश्न खोल दिए हैं। अतिरिक्त सीटों के आवंटन को संसद के माध्यम से नहीं पारित किया जा सकता है, लेकिन इस सबमें समय लग सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में जम्मू का दौरा किया था, जो कि 5 अगस्त 2019 के बाद उनकी पहली सार्वजनिक यात्रा थी। इस दौरान उन्होंने चुनावों का कोई जिक्र नहीं किया था।

रश्मि सहगल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/how-jk-delimitation-proved-advantageous-jammu-region

Delimitation in J&K
J&K Delimitation Commission
Article 370

Related Stories

कश्मीर में हिंसा का नया दौर, शासकीय नीति की विफलता

क्यों अराजकता की ओर बढ़ता नज़र आ रहा है कश्मीर?

जम्मू-कश्मीर: बढ़ रहे हैं जबरन भूमि अधिग्रहण के मामले, नहीं मिल रहा उचित मुआवज़ा

जम्मू-कश्मीर: अधिकारियों ने जामिया मस्जिद में महत्वपूर्ण रमज़ान की नमाज़ को रोक दिया

केजरीवाल का पाखंड: अनुच्छेद 370 हटाए जाने का समर्थन किया, अब एमसीडी चुनाव पर हायतौबा मचा रहे हैं

जम्मू-कश्मीर में उपभोक्ता क़ानून सिर्फ़ काग़ज़ों में है 

कश्मीर को समझना क्या रॉकेट साइंस है ?  

वादी-ए-शहज़ादी कश्मीर किसकी है : कश्मीर से एक ख़ास मुलाक़ात

जम्मू-कश्मीर में आम लोगों के बीच की खाई को पाटने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं

जम्मू-कश्मीर: परिसीमन आयोग ने प्रस्तावों को तैयार किया, 21 मार्च तक ऐतराज़ दर्ज करने का समय


बाकी खबरें

  • karnataka
    शुभम शर्मा
    हिजाब को गलत क्यों मानते हैं हिंदुत्व और पितृसत्ता? 
    28 Feb 2022
    यह विडम्बना ही है कि हिजाब का विरोध हिंदुत्ववादी ताकतों की ओर से होता है, जो खुद हर तरह की सामाजिक रूढ़ियों और संकीर्णता से चिपकी रहती हैं।
  • Chiraigaon
    विजय विनीत
    बनारस की जंग—चिरईगांव का रंज : चुनाव में कहां गुम हो गया किसानों-बाग़बानों की आय दोगुना करने का भाजपाई एजेंडा!
    28 Feb 2022
    उत्तर प्रदेश के बनारस में चिरईगांव के बाग़बानों का जो रंज पांच दशक पहले था, वही आज भी है। सिर्फ चुनाव के समय ही इनका हाल-चाल लेने नेता आते हैं या फिर आम-अमरूद से लकदक बगीचों में फल खाने। आमदनी दोगुना…
  • pop and putin
    एम. के. भद्रकुमार
    पोप, पुतिन और संकटग्रस्त यूक्रेन
    28 Feb 2022
    भू-राजनीति को लेकर फ़्रांसिस की दिलचस्पी, रूसी विदेश नीति के प्रति उनकी सहानुभूति और पश्चिम की उनकी आलोचना को देखते हुए रूसी दूतावास का उनका यह दौरा एक ग़ैरमामूली प्रतीक बन जाता है।
  • MANIPUR
    शशि शेखर
    मुद्दा: महिला सशक्तिकरण मॉडल की पोल खोलता मणिपुर विधानसभा चुनाव
    28 Feb 2022
    मणिपुर की महिलाएं अपने परिवार के सामाजिक-आर्थिक शक्ति की धुरी रही हैं। खेती-किसानी से ले कर अन्य आर्थिक गतिविधियों तक में वे अपने परिवार के पुरुष सदस्य से कहीं आगे नज़र आती हैं, लेकिन राजनीति में…
  • putin
    एपी
    रूस-यूक्रेन युद्ध; अहम घटनाक्रम: रूसी परमाणु बलों को ‘हाई अलर्ट’ पर रहने का आदेश 
    28 Feb 2022
    एक तरफ पुतिन ने रूसी परमाणु बलों को ‘हाई अलर्ट’ पर रहने का आदेश दिया है, तो वहीं यूक्रेन में युद्ध से अभी तक 352 लोगों की मौत हो चुकी है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License