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जनादेश-2022: रोटी बनाम स्वाधीनता या रोटी और स्वाधीनता
राष्ट्रवाद और विकास के आख्यान के माध्यम से भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं ने रोटी और स्वाधीनता के विमर्श को रोटी बनाम स्वाधीनता बना दिया है।
अरुण कुमार त्रिपाठी
11 Mar 2022
poverty

सन 2022 के पांच विधानसभा के चुनाव परिणामों ने एक पुरानी बहस को नए संदर्भ में खड़ा कर दिया है। सवाल यह है कि हमें रोटी बनाम स्वाधीनता चाहिए या रोटी और स्वाधीनता चाहिए। सवाल यह है कि हमें सत्ता के नमक का हक अदा करना है या फिर हमें सत्ता से समाज की सेवा करानी है। आज महाभारत का वह सवाल फिर से खड़ा हो गया है जो कृष्ण ने कर्ण के सामने खड़ा किया था और जिस दुविधा में कर्ण ने गलत मार्ग पर चल कर अपने को इतिहास के गर्त में दफना दिया। कृष्ण ने कर्ण से कहा था कि पांडवों के साथ धर्म है और आप उनके बड़े भाई हैं इसलिए आप उनके शिविर में चलिए। इस पर कर्ण कहते हैं, “केशव, आपने तो मेरा पूरा अस्तित्व ही खतरे में डाल दिया है। दुर्योधन जिसके मुझ पर एहसान है, मैं इस संकट के समय कैसे उसका साथ छोड़कर कह सकता हूं कि मैं तुम्हारी ओर से नहीं लड़ सकता क्योंकि पांडव मेरे भाई हैं।” एहसान का यह बोझ हमारे लोकतंत्र पर बड़ा भारी पड़ रहा है और उसे दीमक की तरह काट-काट कर खोखला कर चुका है। उसने अगर कालांतर में कर्ण जैसे योद्धा और दानी को दुर्योधन को गुलाम बना दिया था तो आज लाभार्थी वर्ग के बहाने निर्मित हुए विकास योद्धाओं के गले में गुलामी का पट्टा बांधा जा रहा है। कई वीडियो आए हैं जिसमें महिलाएं और बूढ़े लोग कह रहे हैं कि हमने उनका नमक खाया है, हमें उसका हक अदा करना है।

भूखे भारत को जब आजादी मिली तो इस देश के संवेदनशील बौद्धिक वर्ग के समक्ष यही चिंता थी कि कहीं भूख में बिलबिलाता नागरिक अपनी आजादी को खो तो नहीं देगा। उसी चिंता को रामधारी सिंह दिनकर ने  `रोटी और स्वाधीनता’ जैसी कविता में व्यक्त किया था-----

आजादी तो मिल गई मगर यह गौरव कहां जुगाएगा

मरभुखे!  इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा?

आजादी रोटी नहीं मगर दोनों में कोई वैर नहीं।

पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।

हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देने वाले।

पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेने वाले।

इसके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्ष सह सकता है?

 है कौन पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है?

 झेलेगा यह बलिदान भूख की घनी चोट सह पाएगा?

 आ गई विपद तो क्या प्रताप सा घास चबा रह जाएगा?

है बात बड़ी आजादी का पाना ही नहीं जुगाना भी।

बलि एक बार ही नहीं उसे पड़ता फिर फिर दोहराना भी।।

दशकों पहले लिखी गई दिनकर की यह कविता आज फिर भारतीय समाज और उसकी राजनीति के सामने प्रश्नचिह्न की तरह खड़ी हो गई है। इसी कविता के प्रिज्म से हमें 2022 के चुनाव को देखना चाहिए। बहुसंख्यकवाद और हिंदुत्व की आंतरिक संरचना पर टिप्पणी किए बिना हम यह कह सकते हैं कि इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को तीन राज्यों में दोबारा और एक राज्य में तीसरी बार सत्ता में लाने में लाभार्थी योजनाओं की अपनी भूमिका थी। बल्कि कहा तो यहां तक जा रहा है कि राम और राशन ने मिलकर भाजपा को एक चक्रवर्ती दल के रूप में स्थापित कर दिया है और 2024 के चुनाव का परिणाम निर्धारित हो गया है। मीडिया और राजनीतिशास्त्रियों ने मान लिया है कि अब उसके सामने राष्ट्रीय स्तर पर कोई चुनौती नहीं है और क्षेत्रीय स्तर पर जो चुनौती है उसे वे चुटकी बजाते हुए ध्वस्त कर देंगे।

विश्लेषकों का कहना है कि भारतीय जनता पार्टी महज राम मंदिर और विश्वनाथ कोरीडोर, गोरक्षा, धर्मांतरण और लव जिहाद के नाम पर यह चुनाव नहीं जीत सकती थी। उसके सामने कोराना जैसी महामारी के दौरान किए गए जबरदस्त कुप्रबंधन, आंदोलनों के दौरान किए गए दमन, महंगाई, बेरोजगारी और आवारा पशुओं की बड़ी चुनौती थी। वह महज बुलडोजर यानी कानून व्यवस्था और माफिया विरोधी अभियान के सहारे भी नहीं इतनी बड़ी जीत तक पहुंच सकती थी। उसने पहले जिनकी नौकरियां ली थीं उन बेरोजगारों की बड़ी फौज को मुफ्त में राशन दिया और नमक के साथ सरसों का तेल भी दिया। स्कूली बच्चों को यूनिफार्म खरीदने के लिए उनके अभिभावकों को धन दिए और ई-श्रम योजना के तहत खाते में नकद हस्तांतरण किए। किसानों को पीएम किसान सम्मान योजना के तहत धन दिए। इस तरह जनता ने यह कहना शुरू कर दिया कि क्या हमें कभी किसी ने कुछ दिया है ? लेकिन इसी के साथ जनता यह भी मान रही थी कि केंद्र और राज्यों विशेषकर उत्तर प्रदेश की सरकार ने चुस्त प्रशासन के नाम पर राज्य को पुलिस स्टेट में बदल दिया था। पर उसने चुना रोटी को ही। उसे स्वाधीनता के नाम पर धार्मिक स्वाभिमान को अपनाया। 

भाजपा और उसके सहारे केंद्र और राज्य में शासन करने वाले नेता यह जानते हैं कि भूखे भजन न होई गोपाला। इसलिए धर्म की माला अगर जपनी है तो पेट में अनाज भी होना ही चाहिए। जब जानवर खेत चर जाएंगे तो अगर खाने के लिए सरकार भी अनाज नहीं देगी तो क्या लोग मंदिर के बाहर बैठेंगे दान लेने के लिए ?  न ही यह लाल बहादुर शास्त्री और नेहरू का युग है कि जनता से एक वक्त उपवास की अपील की जा सकती है। 

लेकिन असली सवाल यह है कि क्या रोटी देने, एक्सप्रेस-वे बनाने और मेडिकल कालेज खोलने की एवज में आजादी छीनी जा सकती है और लोग उसे छीन लिए जाने देंगे?  1975 में इंदिरा गांधी ने वैसा प्रयास किया था और 1977 में लोगों ने साफ कह दिया था हमें सिर्फ रोटी नहीं चाहिए हमें आजादी भी चाहिए। तब न तो मीडिया इतना सशक्त था और न ही जनता इतनी जागरूक और पढ़ी लिखी। वरना इंदिरा गांधी के 20 सूत्री कार्यक्रम में उस समय ठीक गुंजाइशें थीं लोगों को जीने खाने के लिए। चारों ओर नारे लिखे होते थे कि-- काम अधिक बातें कम, अनुशासन ही देश को महान बनाता है।

दरअसल राष्ट्रवाद और विकास के आख्यान के माध्यम से भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं ने रोटी और स्वाधीनता के विमर्श को रोटी बनाम स्वाधीनता बना दिया है। विकास के नारे के साथ जो कहानी गढ़ी जा रही है उसका क्रम कुछ इस प्रकार बन रहा है---रोटी बनाम स्वाधीनता बनाम राष्ट्र। यानी अगर राष्ट्र का सवाल उठ गया तो रोटी और स्वाधीनता दोनों छीनी जा सकती है। यहां राष्ट्र का मतलब एक धर्म विशेष की रक्षा से है, एक काल्पनिक चित्र की पूजा से और कुछ विशेष नेताओं के प्रति नतमस्तक होने से है।

भारत के राष्ट्रनिर्माताओं में समता मूलक समाज बनाने के हिमायती लोगों की खासी संख्या थी। उनमें समाजवादी और साम्यवादी नेता अग्रणी थे। लेकिन महात्मा गांधी और डा आंबेडकर भी समतामूलक समाज ही बनाना चाहते थे। वे यूरोप के साम्यवादी देशों की तर्ज पर स्वाधीनता को मुअत्तल करके रोजी रोटी और जीवन की दूसरी सुविधाओं का सवाल हल करने के हिमायती नहीं थे। आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और डा राम मनोहर लोहिया ने भारतीय समाजवाद की इन्हीं अर्थों में व्याख्या की है। भारत के वामपंथियों ने भी चुनावी राजनीति में प्रवेश करके दोनों प्रतीकों को एक साथ लेकर चलने की राजनीति की है। यही भारत का विचार है। यही लोकतंत्र का विचार है। डा आंबेडकर ने संविधान में भी यही व्यवस्था की है और अपने काठमांडू के भाषण में उन्होंने बुद्धवाद और मार्क्सवाद की तुलना करते हुए इसी फार्मूले को सही बताया है।

लेकिन आज हिंदू अस्मिता और बहुसंख्यकवाद के लिए रोटी और स्वाधीनता को बनाम बनाया जा रहा है। अगर आपको राशन मिल रहा है, ई श्रम कार्ड से धन मिल रहा है, किसान सम्मान निधि मिल रही है और स्कूलों में मिड डे मील और बस्ते व यूनिफार्म के लिए धन मिल रहा है, आवास योजना के तहत घर मिल रहा है और अच्छी सड़क पर चलने को मिल रहा है तो सवाल मत पूछिए और खामोश रहिए। जब चुनाव आए तो नमक का हक अदा कीजिए। दोष इन सुविधाओं को देने और उन्हें प्राप्त करने में नहीं है लेकिन उसके बदले आजादी को गिरवी रख देने और कारपोरेट व धर्म केंद्रित विकास को स्वीकार्य करने में है।

सवाल उठता है कि आखिर क्यों संविधान, स्वतंत्रता संग्राम और इस देश की बहुलतावादी परंपरा को दरकिनार करके इस तरह का आख्यान और राजनीति खड़ी की जा रही है, जहां देश कांग्रेस मुक्त हो, विपक्ष मुक्त हो और लोकतंत्र मुक्त हो। इसके दो कारण हैं। एक कारण तो नेतृत्व का अपना स्वभाव भी होता है जो अपने आलोचकों को सहने को तैयार नहीं रहता और अपनी बात को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है वह अपने आलोचकों और विपक्ष को साजिशकर्ता मानता है। दूसरा कारण बहुसंख्यकवाद है जो चाहता है कि अल्पसंख्यक समाज राशन लाभार्थी बन जाए और नागरिकता छोड़ दे। तीसरा बड़ा कारण वैश्वीकऱण की वे नीतियां हैं जो समझ चुकी हैं कि अगर चैतन्य और सक्रिय लोकतंत्र रहा तो खेती और प्राकृतिक संसाधनों पर पूरी तरह कब्जा करने का उसका लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। इसलिए भारत के विचार के विरुद्ध नई कहानी गढ़ी जा रही है। अब देश का बौद्धिक वर्ग भी इस कहानी पर रीझ रहा है। वह उसे गरीबों के अनुकूल बता रहा है। वह उसे महिलाओं के अनुकूल बता रहा है और उसे अल्पसंख्यकों के अनुकूल भी बता रहा है।

आने वाला समय चुनौतियों भरा है। एक तो लोगों को रोजगार देने की गंभीर समस्या पैदा होगी। क्योंकि सूचना प्रौद्योगिकी उसके अवसर कम करने वाली है। इसलिए लोगों को पेट भर अनाज देकर और मोबाइल व मोटरसाइकिल चलाने के लिए कुछ खर्च देकर खामोश बैठने की आदत डाली जा रही है। यहां फिर दिनकर का वह सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या भारत के लोग आजादी को जुगाने के लिए उठेंगे?

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