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इस ब्रेक्सिट की गुत्थी सुलझाए नहीं सुलझती
ब्रेक्सिट बीमारी का कारण नहीं बल्कि लक्षण है। बीमारी है गैरबराबरी, बेकारी व शोषण से उपजा असंतोष। इसे कोर्बिन जैसी आवाज़ें एक बेहतर समाज और भविष्य के लिए गोलबंद कर पाएंगी या नफ़रत के कारोबारी इसका इस्तेमाल जनता को बांटने में करेंगे यह तो वक़्त ही बताएगा।
अक्षत सेठ
17 Apr 2019
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: BBC.com

जब 23 जून, 2016 के जनमत संग्रह में ब्रिटेन की जनता ने यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला लिया तो यह एक झटके की तरह ही था। लेकिन फिर भी किसी ने यह नहीं सोचा था कि तीन साल बाद तक यह ब्रिटिश सत्ता और समाज के लिए ऐसी गले की हड्डी बनेगी जो न उगलते बनेगी न निगलते। उस समय के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन को यूरोपीय यूनियन में बने रहने के लिए प्रचार करने का खामियाज़ा त्वरित इस्तीफे के रूप में भुगतना पड़ा और उनकी सरकार में गृहमंत्री टेरेसा मे ने कंज़र्वेटिव पार्टी का अगला नेता और प्रधानमन्त्री नियुक्त होने पर खुद को चट्टान की तरह जनता की भावना के पक्ष में खड़ा पेश किया था। अगले तीन सालों में उन्होंने बार-बार संसद में और अन्य जगह कहा कि ब्रिटेन 29 मार्च 2019 को यूरोपियन यूनियन छोड़ देगा चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाए। अब वही प्रधानमंत्री तीसरी बार यूरोपीय संघ से 'आर्टिकल 50' (किसी भी देश के EU से अलग होने के संवैधानिक प्रावधान) की अवधि में और छह महीने बढ़वा कर आयीं हैं। अलग होने की मूल तिथि 29 मार्च कबकी गुज़र चुकी और अब उन्हें तीस अक्टूबर तक का वक़्त मिला है। उनकी अपनी पार्टी के लोग टेरेसा में को घुटने टेकने वाला गद्दार समझते हैं पर चाहकर भी उन्हें कुर्सी से हिला नहीं पा रहे। तीन तीन बार सरकार का EU के साथ तय हुए ब्रेक्सिट मसौदे को पास करने का प्रस्ताव संसद में गिर चुका है। सरकारी मशीनरी लगभग ठप्प है और शिक्षा, स्वास्थ्य या बढ़ते अपराध जैसी अन्य गंभीर समस्याओं की वजह से राजनेता और जनता अपने-अपने ध्रुवों में बंटे इस अंतहीन बहस में लगे हैं कि ब्रेक्सिट का क्या स्वरूप हो, या कि ब्रेक्सिट हो ही न और देश यथास्थिति यूरोपीय संघ सदस्य रहे। स्कॉटलैंड और उत्तरी आयरलैंड के इंग्लैंड से अलगाव और ब्रिटेन के टूटने का खतरा बढ़ गया है। यह संकट सिर्फ राजनैतिक या संवैधानिक नहीं बल्कि आर्थिक मंदी और अनिश्चितता के दौर में एक सामाजिक संकट है जो ब्रिटेन के वर्तमान अस्तित्व का भविष्य तय कर सकता है।

EU स्थापना, ब्रिटेन का प्रवेश और शुरुआती विरोध

दो-दो विश्वयुद्धों के खूनखराबे से सबक लेते हुए यूरोप के छह देशों- फ्रांस, इटली, पश्चिमी जर्मनी, बेल्जियम, लक्समबर्ग व हॉलैंड ने 1952 में 'यूरोपियन कोल एंड स्टील कम्युनिटी' का निर्माण किया जिसे आज के EU की मूल पूर्वपीठिका माना जाता है। इसका लक्ष्य औद्योगिक उत्पादन के सामूहिक नियंत्रण के ज़रिये आपसी सहयोग बढ़ाना था जिससे सभी का बराबर विकास हो और आर्थिक प्रतिद्वंदिता राजनैतिक दुश्मनी में न बदले। 1957 में जब रोम की संधि के तहत इसे 'यूरोपियन इकनोमिक कम्युनिटी' का रूप दिया गया तो ब्रिटेन को इसमें शामिल नहीं किया गया। 1963 व 1967 में ब्रिटेन की EEC में शामिल होने की अर्ज़ियाँ खारिज कर दी गयीं पर 1973 में उसकी तीसरी अर्ज़ी मंज़ूर कर ली गयी। लेकिन जल्द ही देश में इसका तीखा विरोध शुरू होने वाला था।

आज यह सर्वज्ञात है कि 2016 के जनमत संग्रह में 'लीव' वोट को जिताने और ब्रेक्सिट के समर्थन में माहौल खड़ा करने की कमान धुर दक्षिणपंथियों के हाथ में है। लेकिन यूरोपीय संघ के पूर्वाधिकारी EEC से ब्रिटेन के अलग होने का मूल और एक समय का सबसे मुखर तर्क वहां के वामपंथियों का रहा है। ब्रिटेन को EEC में ले जाने वाले कंज़र्वेटिव प्रधानमंत्री एडवर्ड हीथ को खदान मज़दूरों के उग्र विरोध के चलते 1974 में सत्ता गंवानी पड़ी। हेरल्ड विल्सन सत्ता में वापस तो लौट आये पर लेबर पार्टी के वामपंथी धड़े ने EEC की सदस्यता पर सवाल उठाने शुरू किये। विल्सन सरकार में उस समय के उद्योग मंत्री और बाद में ब्रिटिश वामपंथ के लिए मसीहा टोनी बेन उसका नेतृत्व कर रहे थे। दरअसल यूरोपीय इकनोमिक कम्युनिटी की मूल अवधारणा एक ऐसे एकीकृत मुक्त बाज़ार की है जहाँ बिना किसी कागज़ी कार्यवाही और लाइसेंस प्रक्रिया के पूंजीपति अपनी पूँजी, उद्योगपति अपने उद्योग और मज़दूर अपना श्रम एक देश से दूसरे में ले जा सकते हैं। आज इसे सिंगल मार्केट कहते हैं और इस सिंगल मार्केट में बिना कस्टम ड्यूटी के कच्चे-पक्के माल की खरीद फरोख्त करने के लिए ब्रिटेन व अन्य EU देश एक कस्टम्स यूनियन में बंधे हैं। आज सभी ब्रेक्सिट समर्थक इन्हीं कस्टम्स यूनियन और सिंगल मार्केट से दूरी बनाने के लिए टेरेसा मे सरकार पर दबाव बना रहे हैं। लेकिन टोनी बेन व उनके साथियों ने शुरुआत से ही यह भांप लिया था कि एक मुक्त बाज़ार में रहने की क़ीमत ब्रिटेन के सरकारी उद्योगों और लाखों मज़दूरों को चुकानी होगी। EU के आर्थिक ढाँचे में जहाँ बड़े व्यापारियों को अपना माल और श्रम एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित करने की छूट है तो वहीं बाज़ार की इस अखंडता को बनाये रखने के लिए सरकारों का अपने उद्योगों को सब्सिडी देना, सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य-शिक्षा आदि पर EU के बनाये बजट नियमों से ज़्यादा खर्च करना क़तई ग़ैरक़ानूनी है। 1975 में लेबर पार्टी की सरकार ने यूरोप की सदस्यता पर पहला जनमत संग्रह बुलाया तो ज़्यादातर दक्षिणपंथी मत यूरोप में बने रहने के पक्ष में था। बेन अकेले मंत्री थे जो उद्योग बचाने के लिए यूरोप से बाहर आने की अपील कर रहे थे। उनका तर्क रेफेरेंडम में बुरी तरह हारा और फिर जल्द ही IMF के इशारे पर उनका मंत्रालय बदलवा दिया गया।

उस समय भी बेन ने कहा था कि जितना ज़्यादा समय यह देश यूरोपीय संघ में बिताएगा, उसके लिए इसकी जकड़ से छूटना उतना ही मुश्किल होगा। उनके कथन की दूरदर्शिता का अंदाज़ा इस बात से लगाएं कि 1975 के रेफेरेंडम में EU छोड़ने के लिए कैंपेन करने वाले और टोनी बेन के शिष्य व क़रीबी सहियोगी वर्तमान लेबर पार्टी नेता जेरेमी कोर्बिन ने 2016 के जनमत संग्रह में 'रिमेन' (EU में बने रहने) हेतु कैंपेन किया और आज ब्रेक्सिट के बाद EU की कस्टम्स यूनियन में बने रहने और यहाँ तक कि जनमत संग्रह दोबारा करवाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। दक्षिणपंथी विमर्श के हावी होने का इससे ज़्यादा सबूत क्या होगा कि आज ब्रिटिश वामपंथ यथास्थिति के समर्थक उदारवादियों के साथ खड़ा रहने को मजबूर है।

बदलती सरकारें पर असंतोष वही

दक्षिणपंथी यूरोप विरोध की शुरुआत 80 के दशक के मध्य में मानी जा सकती है जब पार्टी लीडर और तत्कालीन पीएम मार्गरेट थैचर का EU के उभरते ढांचे से मोहभंग हो चला। ब्रिटेन में उन्मुक्त बाज़ार और पूंजीवाद के नए उभरते स्वरूप नवउदारवाद की धात्री थैचर को यूरोप का एकीकृत बाजार का स्वप्न तब तक भाता रहा जब तक ट्रेड यूनियन आंदोलन की कमर तोड़ने के लिए उसकी ज़रूरत थी। थैचर ने सभी सरकारी उद्योगों और खदानों को बेचकर लाखों को बेरोज़गार बनाया और इसमें उन्हें यूरोप भर के पूंजीवादियों का समर्थन मिला। लेकिन समय बीतते न बीतते उन्हें यह एहसास होना शुरू हुआ कि जर्मनी और फ्रांस की योजना आर्थिक एकता को राजनैतिक समायोजन में बदलने की है। ब्रिटेन की दक्षिणपंथी धारा ब्रिटिश अपवाद पर चलती है जिसके अनुसार कभी समूचे संसार की अजेय सैन्य शक्ति और बड़े औपनिवेशिक साम्राज्य का मालिक रहा यह देश अपनी सम्प्रभुता यूरोप में गिरवी नहीं रख सकता। लेकिन थैचर ने पूंजीवादी व्यवस्था को जो देना था वह दे दिया था इसीलिए उन्हें उनकी कैबिनेट के यूरोप समर्थक धड़े ने 1990 में ठिकाने लगा दिया।

इसी के साथ कंज़र्वेटिव पार्टी के भीतर यूरोप को लेकर ऐसी खायी पैदा हुयी जिसके चलते आज यह पार्टी टूट की कगार पर है। थैचर के वित्त मंत्री जॉन मेजर पीएम बने तो पार्टी के यूरोप विरोधी धड़े ने उनका जीना हराम करना शुरू कर दिया। इसी अंदरूनी कलह में कंज़र्वेटिव पार्टी 1997 का चुनाव हारी और लेबर सत्ता में वापस आयी। टोनी बेन अब बूढ़े हो चले थे और पार्टी के अंदर बचे गिने चुने समाजवादी सांसदों को कोई सुनने वाला नहीं था। टोनी ब्लेयर मुतमईन थे और यूरोपीय संघ में और ज़्यादा विस्तार और विलय की प्रक्रिया चल पड़ी। 1993 में मेजर सरकार समय ही मास्ट्रिच संधि के साथ यूरोपियन यूनियन अपने वर्त्तमान नाम और स्वरुप में आ चुका था। अब यूनियन के सदस्य देशों का कोई भी नागरिक किसी भी अन्य देश में काम कर व रह सकता था। 2004 में EU में समाजवाद के अन्तोपरांत टूटे हुए पूर्वी यूरोप के कई देशों का विलय हो गया। इराक युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन करने के एवज़ में इन नए देशों के लिए ब्लेयर ने तुरंत ब्रिटेन में रहकर काम करने के द्वार खोल दिए। हर साल लाखों की तादाद में इन गरीब मुल्कों से लोग काम की तलाश में आने लगे। ये लोग प्राइवेट ठेकेदारों दुवारा प्लम्बर, खेत-मजदूर, ड्राइवर, इलेक्ट्रीशियन जैसे कामों के लिए कम से कम मज़दूरी पर रखे जाते थे जहाँ इनका भयानक शोषण होता रहा है। समाजवादी फिल्म निर्माता केन लोच ने बड़ी संजीदगी से अपनी 2007 की फिल्म 'इट्स अ फ्री वर्ल्ड' में इन हालात का चित्रण किया है।

ब्रेक्सिट, गैरबराबरी और नस्लभेद का उभार

सम्प्रभुता और आत्मसम्मान की दुहाई देने वाले ब्रेक्सिट समर्थकों के लिए पूर्वी यूरोप से काम की तलाश में ब्रिटेन आ रहे लोग आसान निशाना बन गए। 2005 से ही नस्लवादी विचारों से ओत-प्रोत अफवाहें ज़ोर मारने लगीं कि प्रवासी आकर मुफ्त में सरकारी योजनाओं का लाभ लेते हैं और आपराधिक गतिविधिओं में लिप्त होते हैं। 2008 की आर्थिक मंदी ने लेबर की सरकार गिरवा दी और कंज़र्वेटिव पार्टी के गठबंधन सरकार में आये लिबरल डेमोक्रेट्स ने यह तय पाया कि निजी बैंकों की जुआखोरी से पैदा हुयी आर्थिक मंदी की क़ीमत जनता की मूलभूत सुविधाओं में कटौती करके ली जाए। 2010-15 के बीच स्वास्थ्य, शिक्षा, पुलिस, व विकलांगों- बेरोज़गारों को दी जाने वाली मदद में भारी कटौती की गयी। जनता के बीच उपजे भारी असंतोष ने 2011 में दंगों का रूप ले लिया। इधर संसद में डेविड कैमरन को उन्हीं की पार्टी के सांसदों ने यूरोप के मसले पर परेशान करना शुरू किया, वहीं 1993 में ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से 'आज़ाद' करने की खातिर बनी यूके इंडिपेंडेंस पार्टी या यूकिप को असंतुष्ट जनता का समर्थन मिलना शुरू हुआ। 2014 के यूरोपीय संसद के चुनावों में यूकिप सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। पार्टी के उस समय के नेता नाइजेल फराज ने खुल्लम-खुल्ला यह कहा कि सिंगल मार्किट में लोगों के आने-जाने की स्वतंत्रता के चलते सारे अपराधी ब्रिटेन में घुस आये हैं। दो कंज़र्वेटिव संसद पाला बदलकर यूकिप में चले गए जिससे सत्ताधारी पार्टी नेतृत्व के कान और खड़े हो गए।

2016 के जनमत संग्रह का फैसला कैमरन ने यह सोचकर लिया था कि वे अपनी पार्टी के यूरोप विरोधी धड़े और यूकिप को ठिकाने लगा देंगे। उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था कि आज का सत्तावर्ग जनता की आकंक्षाओं और परेशनियों से कितना कटा हुआ है। 2015 में कोर्बिन के चुने जाने तक लेबर से लेकर कंज़र्वेटिव समेत सभी मुख्य पार्टियां अपने स्वरूप में ज़मीन से इतना कट चुकीं हैं कि उन्हें वहां उपजे असंतोष का अंदाज़ा भी नहीं था। थैचर के समय से ही सारे उद्योग बंद कर दिए गए या प्राइवेट हाथों में दे दिए गए थे। इंग्लैंड के मध्य और उत्तर के मेनचेस्टर और बर्मिंघम जैसे सैंकड़ों शहर जो कभी कपडे से लेकर स्टील और कोयला उत्पादन का गढ़ थे वर्तमान आर्थिक नीतियों के आने के बाद बेकारी और मुफलिसी से जूझ रहे हैं। रोज़गार या तो है ही नहीं या घंटे के हिसाब से मिलता है। सैंकड़ों लोग सड़कों पर सोते हैं और हज़ारों दो वक़्त के भोजन के लिए चैरिटी पर चलने वाले फ़ूड बैंक पर निर्भर हैं। 2010 से आर्थिक मंदी में बजट के घाटे को पूरा करने के नाम पर इतनी ज़्यादा अमानवीय स्तर पर कटौतियां हुईं हैं जो वर्षों के घावों पर नमक छिड़कती हैं।

यूकिप और कंज़र्वेटिव ब्रेक्सिटवादियों ने इसी असंतोष को घटिया नस्लवाद और नफरत की और मोड़ दिया। लेबर सांसद जो कॉक्स की बड़ी बेरहमी से एक कट्टरपंथी ने रेफेरेंडम प्रचार के दौरान हत्या कर दी। वामपंथी विचारक टॉम हेज़लडाइन के शब्दों में कहें तो 'लीव' वोट का विमर्श प्रवासी विरोधी था पर उसे जीत तक पहुंचाया अमीरों के लिए काम करने वाली व्यवस्था के प्रति उपजे गुस्से ने।

चौराहे और सही राह नहीं सूझती

रेफेरेंडम के नतीजे के बाद बीते तीन साल में ब्रिटेन को यह समझ में नहीं आ रहा कि EU छोड़ने का सही तरीक़ा क्या है। टेरेसा मे ने प्रचार तो ‘रिमेन’ के लिए किया था, वक्त को पहचानते हुए पीएम बनते ही उन्होंने खुद को जनभावना का रक्षक घोषित कर दिया जो हर हाल में ब्रेक्सिट सुनिश्चित करवाएंगी। लेकिन टेरेसा मे की एक बुनियादी दिक्कत है। उनकी पार्टी का कट्टरवादी धड़ा और कंज़र्वेटिव पार्टी का दक्षिणपंथी मध्यवर्गीय कोर वोट उदारवादी सोच से नफरत करता है और EU से ज़्यादा दूरी बनाना चाहता है। लेकिन पार्टी समर्थक बड़े उद्योगपति व बैंकर जानते हैं कि पचास करोड़ जनसँख्या वाले यूरोपीय सिंगल मार्केट से अलगाव अव्वल दर्जे की बेवकूफी है जिससे मुनाफे में गिरावट आने की पूरी संभावना है। ब्रेक्सिट समर्थक धड़ा और कस्टम्स यूनियन से दूरी बनाना चाहता है चूँकि उन्हें लगता है ब्रिटेन की स्वतंत्र व्यापार नीति होगी तो पुराने साम्राज्यवादी गौरव के दिन लौट आएंगे। आलोचक रिचर्ड सीमोर का मानना है कि ये ऐसे पूंजीवादी समर्थक हैं जिन्हें पूंजीवाद के वास्तविक संचालन का पता नहीं और इनका कॉर्पोरेट टैक्स घटाकर ब्रिटेन को सिंगापुर बनाने का ख्वाब मुंगेरीलाल के हसीन सपनों सरीखा है।

पर इन धुर ब्रेक्सिटवादियों ने टेरेसा में का जीवन मुश्किल में डाला हुआ है। ये EU के साथ ऐसा कोई समझौता नहीं चाहते जो इनके खांचे में फिट नहीं बैठता। इनमें प्रमुख रूप से पूर्व विदेश मंत्री व लंदन के मेयर बोरिस जॉनसन, पूर्व ब्रेक्सिट मामलों के मंत्री डेविड डेविस व अठारहवीं सदी की शैली में बात करने वाले मशहूर सांसद जेकब रीस-मॉग शामिल हैं। उधर यूरोपीय संघ का सीधा लक्ष्य है किसी भी अन्य देश को ब्रेक्सिट का अनुकरण करने से रोकना। उसके लिए समझौते में ब्रिटेन को EU के दायरे से बाहर निकलने नहीं देना है। कट्टर राष्ट्रवादी अब चाहते हैं कि टेरेसा मे वार्ताओं से हाथ खींचकर बिना किसी समझौते या 'नो डील' के तहत अलग हो जाएँ। पर इसका आर्थिक प्रभाव अपार वित्तीय संपत्ति के गढ़ लंदन शहर के लिए मुश्किल खड़ी कर देगा। नतीजतन कई कंपनियों ने मन बना लिया है कि समझौता न होने की स्थिति में वे अपने उद्योग और नौकरियां ब्रिटेन से बाहर ले जाएंगे।

ब्रिटिश संसद का ज़्यादातर हिस्सा और वहां का उदारवादी इलीट 2016 के फैसले का सम्मान करने को राज़ी ही नहीं। टेरेसा मे द्वारा EU के संग मोलभाव में हुयी चूक से उनके इन अरमानों को पंख लग गए हैं कि ब्रेक्सिट रोका जा सकता है। इनका कहना है कि 2016 के रेफेरेंडम में ब्रेक्सिट समर्थकों ने जनता को फरेब और ख़याली पुलावों से बेवकूफ बनाकर अपना पक्ष जितवाया। इसीलिए दोबारा जनमत संग्रह होना चाहिए। इन्हें लंदन जैसे बड़े शहरों में रहने वाले लोगों और युवाओं का समर्थन हासिल है। कई युवाओं का मत है कि ब्रेक्सिट से सबसे ज़्यादा प्रभावित वे होंगे इसीलिए जो लोग पिछले रेफेरेंडम में वोट करने लायक नहीं हुए थे उन्हें दोबारा मौका मिलना चाहिए। इसके पीछे कुछ जायज़ तर्क भी हैं। EU से जुड़े रहने की वजह से स्टूडेंट एक्सचेंज प्रोग्राम और रिसर्च से जुडी ढेरों संभावनाएं हैं जिनसे ब्रिटिश नौजवान हाथ धो बैठेंगे।

अनिश्चितताएं हैं तो संभावनाएं भी

इन तमाम उलझनों ने ब्रिटेन को ब्रेक्सिट के मकड़जाल में क़ैद कर लिया है। संसद से लेकर सड़क तक लोग एकमत नहीं हैं और सभी की इच्छाएं एक-दूसरे से टकराती हैं। ब्रेक्सिट समर्थक अब बिना समझौते का नो डील ब्रेक्सिट चाहते हैं जिससे माल की सप्लाई बाधित होने और ब्रिटेन की सीमा पर चेकिंग के लिए गाड़ियों की लम्बी क़तारें लग जाने का खतरा है। ब्रेक्सिट विरोधी दूसरा जनमत संग्रह चाहते हैं ताकि 2016 के नतीजे उलट दिए जाएँ। पर इसका खतरा यह है कि जनता के बड़े हिस्से में संसदीय लोकतंत्र से विश्वास उठ जाएगा और वे फासीवादी विचारों की तरफ आकर्षित होंगे। ऐसा हो भी रहा है।

ऐसे में नस्ल, पीढ़ी और क्षेत्रों के विभाजन को लांघकर जनता के मूल अधिकारों की आवाज़ें क्या रास्ता लें। जेरेमी कोर्बिन पर लेबर लीडर चुने जाने के बाद से ही मीडिया और उनके अपनी पार्टी ने अनर्गल दुष्प्रचार के हमले जारी रखे हैं। बड़े व्यापारियों पर ज़रा भी टैक्स बढ़ाने की उनकी नीति से यदि सत्ता इतना न डरती तो अब तक इस विवाद को सुलझाने के लिए एक और मध्यवर्ती चुनाव हो गए होते। अतः ब्रेक्सिट बीमारी का कारण नहीं बल्कि लक्षण है। बीमारी है गैरबराबरी, बेकारी व शोषण से उपजा असंतोष। इसे कोर्बिन जैसी आवाज़ें एक बेहतर समाज और भविष्य के लिए गोलबंद कर पाएंगी या नफरत के कारोबारी इसका इस्तेमाल जनता को बांटने में करेंगे यह तो वक़्त ही बताएगा। अभी इस ब्रेक्सिटीय अनिश्चितता का कुछ भी अंजाम हो सकता है।

(लेखक जेएनयू के सेण्टर फॉर मीडिया स्टडीज में पीएचडी के छात्र हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

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