NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
जर्मनी आज भी नाज़ी बर्बरता के पीड़ितों को याद करता है, क्या भारत दादरी के अख़लाक़ को याद करेगा?
वहां मौजूद ब्लॉकों पर सजीले टुकड़े पर जर्मन स्वीकृति नाज़ीवाद के शिकार लोगों का सम्मान करने में मदद करती है। यह अपने आप में एक बड़ा चमत्कार होगा यदि दक्षिण एशिया के इस हिस्से में इसी तरह की परियोजनाओं को लाना संभव होता है।
सुभाष गाताडे
18 Jul 2019
Translated by महेश कुमार
जर्मनी

यहाँ बर्नहार्ड मार्क्स रहते थे

जन्म 1897

जिन्हें 20.07.1942 को डिपोर्ट किया गया

मिन्स्क

हत्या 24.07.1942 को हुई

हम यह बॉन में एक उजाड़ सड़क से गुज़र रहे थे तभी हम कुछ पीतल की प्लेटों से ठोकर खा गए, जिस पर एक परिवार के सदस्यों के नाम उकेरे हुए थे। माना जाता है बर्नहार्ड नाम का व्यक्ति इस परिवार का प्रमुख था, उनका नाम पहली प्लेट पर उकेरा गया था, उसके बाद तीन नाम उसके दाईं ओर उकेरे गए थे: एर्ना मार्क्स गेब हार्टमैन, (जन्म 1899), हेलेना (1929) और जूली (1938)।

यह बॉन का एक बदक़िस्मत यहूदी परिवार था, जिसे वहां पहुंचने के ठीक चार दिन बाद ही खूंखार मिन्स्क मौत के कैंप यानी तबाही-शिविर में निर्वासित कर दिया गया था। सबसे कम उम्र की जूली थी जब उसकी मृत्यु हुई, वह मुश्किल से चार वर्ष की थी।

इस बात का अनुमान लगाना कि दो साल के भीतर इस शिविर में कितने लोग मारे गए थे थोड़ा कठिन है लेकिन मुख्य रूप से यहूदी जो क़रीब 65000 लोग मारे गए थे, जब तक कि सोवियत सेनाओं द्वारा उन्हे मुक्त नहीं करा लिया गया।

युवा शोधकर्ता, जो हमारे मेज़बान थे और शहर का मार्गदर्शन करा रहे थे, ने कहा कि पीतल की पट्टिकाएं, जिन्हें पत्थर पर उभारा गया था, जिन्हें स्टोलपरस्टाइन कहा जाता है। जर्मन में स्टॉलपर का अर्थ है ठोकर खाना और स्टाइन का मतलब पत्थर। स्टोलपेरस्टाइन को यहां स्थापित करने के पीछे का विचार इस क्षेत्र में तीसवें दशक के अंत और चालीसवें दशक की शुरुआत में हुई घटनाओं के बारे में जागरुकता बढ़ाना है, जब लाखों निर्दोष लोगों- यहूदी, रोमास, यहोवा, समलैंगिकों और राजनीतिक असंतुष्टों को गैस चैंबर में डालकर नाज़ी शासन द्वारा बेरहमी से मार दिया गया था।

वहां मौजूद पीतल की प्लेटें तुरंत मार्क्स के परिवार के जीवन और समय के परिदृश्य का एक मानसिक स्केच पेश करती हैं, विशेष रूप से उनके निर्वासन और, जल्द ही, उनकी मृत्यु के बाद का। शायद, अशांत समय और क्रूर अंत के स्मारक के रूप में पेश करने का बहुत सुंदर विचार है जो इस स्टोलिस्टस्टाइन की स्थापना की सूचना देता है।

पट्टिकाएँ निरंतर उस अभियान की याद दिलाती हैं जिसने उन दिनों यहूदियों को नागरिकता के अधिकार से वंचित किया था और उन्हें अपनी ही धरती से निर्वासित किया था। इसके बाद नाज़ी की सेनाओं ने उनके कारोबार और घरों को निशाना बनाया था। नाज़ी पार्टी के प्रमुख, हिटलर के हुक्म से निर्दोष लोगों को एकाग्रता (मौत के कैंप) शिविरों में ले जाया जाने लगा, जबकि ज़्यादातर ऐसे घृणित मामलों में, उनके पड़ोसियों ने चीयरलीडर्स के रूप में काम किया, यानी ख़ुशी मनाई थी।

दक्षिण एशिया के इस हिस्से में रह रहे लोगों के लिए, जहाँ आज बहुमतवाद/अधिनायकवाद अपना सिर उठा रहा है, जहाँ सीमा के इस तरफ़ अपराधी समुदाय सीम के दूसरी तरफ़ का शिकार बन रहा है, इन परिदृश्यों की कल्पना करना बहुत मुश्किल नहीं होगा, जो अस्सी साल से भी कम हुए जब सामने आए थे।

लगभग 8.5 मिलियन जर्मन, या उसकी 10 प्रतिशत आबादी, नाज़ी पार्टी के सदस्य थे। नाज़ी से संबंधित संगठनों की भी भारी सदस्यता थी। इसलिए, कोई भी इस तरह की वैधता की कल्पना कर सकता है और नाज़ियों के कुकर्मों के लिए का समर्थन की भी उम्मीद कर सकता है, जो जर्मन आबादी के बीच उनके लिए मौजूद था।

अमेरिकी लेखक डैनियल गोल्डघेन की काफ़ी बहुचर्चित पुस्तक हिटलर्स विलिंग एक्सक्युटर्स: ऑर्डिनरी जर्मन एंड द होलोकॉस्ट, जो 1996 में प्रकाशित हुई थी, इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि होलोकॉस्ट यानी प्रलय के दौरान अधिकांश सामान्य जर्मन "इच्छुक जल्लाद" बन गए थे। गोल्डहेगन ने इस घटना को एक अनोखे और विरल "यहूदी उन्मूलनवादी" के रूप में माना है, जिसने धीरे-धीरे जर्मन राजनीतिक संस्कृति में जड़ जमा ली थी, एक प्रक्रिया जो पिछली शताब्दियों में सामने आई थी।

समकालीन टिप्पणीकारों का दावा है कि स्टोलपेरस्टाइन, या ठोकर का पत्थर, "यूरोप के 20 से अधिक देशों में 1,200 शहरों में" पाया जा सकता है। यह इन स्मारकों को "दुनिया का अपनी तरह का सबसे बड़ा स्मारक" बनाता है।

आगे चलकर हमने, ब्रुसेल्स की सड़कों से गुज़रते हुए, ऐसे और भी स्मारक देखे, जो यूरोप में उनके प्रसार की पुष्टि करते हैं।

स्टॉलपरस्टीन की घटना को जो बात और भी उल्लेखनीय बना देता है कि इन स्मारकों की उम्र 30 साल से कम हैं। वे कलाकार गुंटर डेमनिग के दिमाग की उपज हैं और पहली बार 1992 में इन्हें बनाया गया था क्योंकि वह वर्ष हेनरिक हिमलर, सबसे शक्तिशाली नाज़ियों में से एक था, ने यहूदियों और अन्य 'अवांछनीय लोगों' को निर्वासित करने के लिए ऑशविट्ज़ के फरमान पर हस्ताक्षर किए थे और इस घटना के 50 पूरे हो रहे थे।

डेमनिग, जो कि रैबिनिक जुडिज़्म के केंद्रीय पाठ, तल्मूड की एक कहावत को मानते थे, कि "एक व्यक्ति को केवल तभी भुलाया जा सकता है जब उसका नाम भूल दिया जाता है", सिवनी के सिटी हॉल में पहला स्टॉपरस्टाइनिन स्थापित किया, जो उसका अपना शहर है। इसने उस मार्ग को चिह्नित किया जो कोलोन के पहले निर्वासित यहूदियों को ट्रेन से स्टेशन पर लाया गया था।

सवाल उठता है: कि डेमनिग की परियोजना को किस बात ने संभव बनाया है, और क्यों विभिन्न शहरों छोटे-छोटे लोग उनसे और उनकी टीम से अपने शहरों में स्टॉपरस्टीन स्थापित करने के लिए संपर्क कर रहे हैं? ये युवा लोग उन लोगों के अंतिम स्थान पर एक स्मारक क्यों लगवाना चाहते हैं, जहां नाज़ीवाद के शिकार (और कभी-कभी इससे बचे लोग) रहते थे?

इसमें कोई संदेह नहीं है, कि डेमनिग से जो लोग संपर्क कर रहे हैं उनमें कई युवा ख़ुद यहूदी हैं। या, उनके ऐसे रिश्तेदार हो सकते हैं जो उस दावानल में मौत के घाट उतार दिए गए थे या फिर जिवित रह गए थे। फिर भी, यह ज़ोर देने लायक बात है - और फिर से पूछना चाहिए कि- जर्मनी में आज ऐसे स्मारकों के लिए सामान्य स्वीकृति क्यों है।

इसी तरह के एक समानांतर परिदृश्य की कल्पना करें: क्या नागरिकों के एक जागरुक समूह को यहां जाति, सांप्रदायिक या जातीय हिंसा के पीड़ितों की याद में समान स्मारक स्थापित करने का निर्णय लेना चाहिए, और जो देश की सामान्य आबादी को स्वीकार्य होगा।

देश के हुए विभाजन पर विचार करें, जिसके दौरान एक करोड़ से एक करोड़ बीस लाख लोग दंगों की वजह से अपने घरों से विस्थापित हो गए थे, जिसमें कई सौ हज़ार से लेकर करीब 20 लाख निर्दोष लोगों का जीवन समाप्त हो गया था। क्या कभी दक्षिण एशिया के इस हिस्से में इसी तरह की परियोजनाओं को लाना संभव होगा, एक ऐसे समुदाय के सदस्यों की याद के रूप में जिन्हें सचमुच दूसरे समुदाय द्वारा निष्कासित कर दिया गया था?

यही कारण है कि जर्मनी में और विशेष रूप से जर्मनी में स्टॉपरस्टीन की स्थापना के लिए एक व्यापक स्वीकृति को खोलना और उसे प्रचारित करना महत्वपूर्ण है - जिसने सामान्य जर्मनों के समर्थन से अपनी ख़ुद की बड़ी आबादी के एक हिस्से को नैतिक रूप से साफ करने में दुनिया का नेतृत्व किया था।

हमें यह याद रखने की ज़रूरत है कि नाज़ीवाद के ख़तरे के 70 से अधिक वर्ष हो चुके हैं, जो ख़तरा लाखों यहूदियों, जिप्सियों, रोमा और अन्य लोगों की जातीय सफ़ाई के रूप में दुनिया के सामने आया था, जिसे मित्र राष्ट्रों द्वारा पराजित किया गया।

समय बीतने के बावजूद यह विचार कि पीड़ितों को एक अनोखे तरीक़े से याद किया जाना चाहिए, जो पीड़ितों को कुछ मानवता प्रदान करता है जिन्हे उनकी मृत्यु से पहले भारी कलंकित किया गया था, अब नए रूप में अवतरित हो रहे हैं। यह भी याद रखने होगा कि हर उस पल जब मानवता इन पट्टिकाओं से टकरा कर ठोकर खाती है, न केवल अतीत पर विचार करने में मदद करती है, बल्कि हम सभी के भीतर मानवता को प्रेरित करने के अवसर के रूप में भी काम करती है। यह दूसरों से जुड़ने की भावना को महसूस करवाता है और भविष्य में इस तरह के अत्याचारों को रोकने का आधार बन सकता है।

उन सामान्य नागरिकों की महत्वपूर्ण यादों पर भी ग़ौर करें जो इसे दर्ज़ करते हैं कि वे ख़ुद और उनका देश कैसे अपने नाज़ी अतीत का सामना करता है। यहाँ हमारे साथ, ब्रूनी डे ला मोट्टे, (29) मौजूद हैं जो गुरुवार, 29 मार्च 2007 को द गार्जियन अख़बार में पूर्वी जर्मनी के बारे में अनुभव साझा कर रहे हैं।

 ‘मैं जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक [जीडीआर] में पैदा हुआ और बड़ा हुआ। हमारी स्कूली किताबों में नाज़ी काल और जर्मन राष्ट्र और यूरोप के अधिकांश देशों के रुख के बारे में बड़े पैमाने पर लिखा है। उनकी स्कूली शिक्षा के दौरान, सभी विद्यार्थियों को कम से कम एक बार एक एकाग्रता शिविर (हिटलर का मौत का कैंप) में ले जाया जाता था, जहां इस शिविर में रहे एक पूर्व कैदी काफी विस्तार से समझाएगा कि यहां क्या हुआ था। पूर्व GDR में सभी एकाग्रता शिविरों को स्मारक स्थानों के रूप में बनाए रखा गया था, ताकि कोई उन्हें भूल न जाए। '

जब जर्मनी के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक, एक नए परिचित, हीडलबर्ग, जो एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में एक इंजीनियर हैं, के साथ हमारे ड्राइव के दौरान इस विषय को लाया गया, तो उन्होने लोगों को इतिहास में फिर से नज़र दौड़ने के लोगों को तैयार करने में मीडिया की भूमिका को रेखांकित किया। उन्होंने समझाया कि तीसवां दशक और चालीसवें दशक की शुरुआती जातीय सफ़ाई के बारे में अपराध की भावना अभी भी जर्मन आबादी के एक बड़े हिस्से में इस तथ्य के बावजूद व्याप्त रहती है कि शायद ही उनमें से किसी ने व्यक्तिगत रूप से इसमें भूमिका निभाई होती, क्योंकि वे इसके बहुत बाद में पैदा हुए हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है, कि यह एक तथ्य कि पश्चिम जर्मनी और पूर्वी जर्मनी दोनों को, संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएसए) और सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक (यूएसएसआर) के पूर्व संघ-दोनों ने समाज, संस्कृति, प्रेस, अर्थव्यवस्था, न्यायपालिका और नाज़ी विचारधारा की राजनीति से छुटकारा दिलाने में योगदान दिया। इसमें कोई शक़ नहीं को उनके प्रभाव में जर्मनी के ‘नाज़ीकरण’ से मुक्त करने की कुंजी रही हो, लेकिन फिर भी, समय के साथ जर्मन लोगों ने अपने अतीत को गंभीरता से देखने और सामना करने के कौशल और क्षमता को विकसित किया है।

मुझे एक स्वीडिश पत्रकार के साथ एक संक्षिप्त सी बातचीत याद आती है, जो भारत के दौरे पर था, और एडॉल्फ़ हिटलर द्वारा लिखित पुस्तक, मीन काम्फ़ (मेरा संघर्ष) को भारत में व्यापक रूप से उपलब्धता पर हैरान हो रहा था। उन्होंने मुझे बताया था कि इस पुस्तक को यूरोप के कई हिस्सों में आधिकारिक रूप से प्रतिबंधित नहीं किया गया था, लेकिन फिर भी, यह अनुपलब्ध है।

जर्मनी में, मीन काम्फ़ (मेरा संघर्ष) के पुनर्मुद्रण को 2015 तक प्रतिबंधित कर दिया गया था। जर्मनी का दृष्टिकोण प्रतीकों सहित सभी नाज़ी संस्मरणों पर एकमुश्त प्रतिबंध लगाने का हुआ करता था, (हालांकि कुछ वर्षों से इन प्रतिबंधों को कम कर दिया गया है)। हिटलर की मृत्यु के सत्तर साल बाद, कर-वित्त पोषित संस्था, इंस्टीट्यूट ऑफ़ कंटेम्परेरी हिस्ट्री द्वारा मीन काम्फ़ (मेरा संघर्ष) का एक नया भारी सटीक 2,000-पृष्ठ वॉल्यूम उपलब्ध कराया गया है।

मीन काम्फ़ (मेरा संघर्ष) की अनुपलब्धता का ही परिणाम है कि जर्मन राज्य ने इस पुस्तक में निहित नस्लवादी उद्घोष को एक सचेत क़दम के तौर पर पेश किया है। लोगों की अपने जीवन में एक नया अध्याय चालू करने के लिए इसकी अनुपलब्धता को देखना संभव है, हालांकि उनके माता-पिता, पूर्वजों और माताओं ने नाज़ी अतीत में ज़रूर एक भूमिका निभाई हो सकती है, या उन्होंने मानव विरोधी एजेंडा को मज़बूत किया हो सकता है नाज़ियों और फ़ासिस्टों ने या तो चुप रहकर या अपने अधिकार को प्रशासन के सामने समर्पित कर ऐसा किया।

वापस बॉन के रास्ते में, मैंने सोचा कि क्या कभी हम उत्तर प्रदेश के दादरी के रहने वाले अख़लाक़ के लिए एक स्टॉपरस्टाइनिन बना सकते हैं, जिन्हें केवल केवल गोमांस के भंडारण के संदेह के नाम पर एक भयंकर हिंसक भीड़ ने दिन की रोशनी में क़त्ल कर दिया था। हो सकता है कि अख़लाक़ का स्टॉपरस्टाइन, धर्म के आधार पर बहिष्कार की दुनिया के समाज में एक नए दृष्टिकोण की शुरुआत का प्रतीक बन जाए, जो 'अन्य' के ख़िलाफ़ हिंसा को बढ़ावा देता है, एक विचार जो हर दिन नए नाज़ियों को देश में पैदा कर रहा है।

लेखक दिल्ली स्थित वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

BJP
RSS
Akhlaq Lynching
nazi
germany
Hitler
Narendra modi

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License