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भारत
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झारखंड : साल का पहला दिन आदिवासियों को आज भी शोक से भर देता है
देश की आज़ादी के दूसरे ही वर्ष 1948 की पहली जनवरी को खरसावाँ में ओडिशा राज्य की पुलिस ने सैकड़ों निर्दोष आदिवासियों की जान ले ली थी। जिसकी देश के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने जालियाँवाला से भी बड़ा जनसंहार कहकर निंदा की थी।
अनिल अंशुमन
01 Jan 2019
सांकेतिक तस्वीर। साभार

1 जनवरी के दिन झारखंड प्रदेश के सिंहभूम ज़िला स्थित खरसावाँ संभवतः पहली ऐसी जगह है जहां के लोग नववर्ष की खुशी नहीं मनाते हैं। 1948 से ही वे इस दिवस को एक काले दिन के रूप में याद करके शोक मनाते हैं। क्योंकि देश की आज़ादी के दूसरे ही वर्ष 1948 की पहली जनवरी को यहाँ ओडिशा राज्य की पुलिस ने सैकड़ों निर्दोष आदिवासियों की जान ले ली थी। जिसकी देश के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने जालियाँवाला से भी बड़ा जनसंहार कहकर निंदा की थी।

देश के इतिहास लेखन की मुख्यधारा में आज भी सही स्थान नहीं मिलने के बावजूद 1 जनवरी 1948 के खरसावाँ के भीषण जनसंहार कांड की स्मृतियाँ आदिवासी समुदाय में अब भी जीवंत हैं। जो केवल उनके मानस में सिर्फ शोक व उदासी के रूप में ही नहीं वरन अपने पृथक राज्य गठन की पहली उद्घोषणा के दिवस के रूप में भी अंकित है। इसे आज़ाद भारत के इतिहास में झारखंड राज्य गठन के सबसे पहले आंदोलन की शुरुआत भी कहा जा सकता है। जब आज़ादी के तुंरत बाद देश में राज्यों के पुनर्गठन की प्रक्रिया चलायी जा रही थी। ओडिशा सरकार पूरे सिंहभूम इलाके को अपने राज्य में ही शामिल करने पर अड़ी हुई थी। जिसके पक्ष में सरायकेला और खरसावाँ के राजा भी अपने पूरे दल-बल और लाव-लश्कर के साथ खड़े हो गए थे। जबकि इस क्षेत्र के सारे आदिवासी व मूलवासी समुदाय के लोग अपना पृथक झारखंड राज्य बनाने की मांग करते हुए इस इलाके के ओडिशा राज्य में विलय का पुरज़ोर विरोध कर रहे थे। उनका तर्क था कि अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहली बागवत ‘कोल विद्रोह’ उन्होंने ही किया था, इसलिए इस क्षेत्र की स्वायत्तता पर उनका ही हक़ है। इस मांग के विरोध में न ओडिशा सरकार बल्कि खरसावाँ- सरायकेला के राजा भी पूरी हठधर्मिता से पेश आ रहे थे।

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1 जनवरी को हुए कांड के बचे हुए प्रत्यक्षदर्शी रहे बुजुर्ग आदिवासियों के अनुसार 25 दिसंबर 1947 को खरसावाँ इलाके के चंद्रपुर स्थित जोजोडीह नदी के किनारे इलाके के सभी आदिवासी गांव के प्रतिनिधियों ने इकट्ठे होकर एक बड़ी बैठक की थी। जिसमें सर्वसम्मति से तय किया कि सिंहभूम क्षेत्र को ओडिशा राज्य में नहीं शामिल होने देना है और इसे अलग झारखंड राज्य के रूप में गठित करवाना है। इस फैसले की जानकारी देश के संविधान सभा सदस्य रहे व मशहूर हॉकी खिलाड़ी जयपाल सिंह मुंडा, जिन्हें आदिवासी समाज के लोग अपना सर्वमान्य नेता मानते थे समेत रांची व आसपास के सभी आदिवासी संगठनों व नेताओं को दे दी गयी थी। उसी मीटिंग में इस मुद्दे पर 1 जनवरी को खरसाँवाँ के बजार टांड के मैदान में इलाके के सभी आदिवसियों को इकट्ठा करने का निर्णय लिया गया। इसे संबोधित करने के लिए जयपाल सिंह मुंडा समेत कई अन्य वरिष्ठ आदिवासी नेताओं को भी बुलाया गया। जयपाल सिंह के आने की स्वीकृति की खबर सुनकर पूरे इलाके के आदिवासियों में उत्साह की ऐसी लहर फैली कि लोग तीन-चार दिन पहले से ही पूरे परिवार व सगे संबंधियों के साथ खरसाँवाँ चल दिये थे।

1 जनवरी को खरसावाँ में आदिवासी जुटकर सरायकेला-खरसावाँ राजमहल पर हमला करेंगे की झूठी खबर फैलाकर ओडिशा सरकार ने एक दिन पहले ही रात के अंधेरे में भारी सशत्र पुलिसबल भेजकर पूरे इलाके में तैनात कर दिए। राजमहल में भी बंदूकधारी कारिंदों का पहरा बढ़ा दिया गया। शासन की इन तैयारियों से बेखबर हजारों हज़ार की संख्या में आदिवासी अल्ल सुबह से ही खरसावाँ बाज़ार टांड मैदान में जुटने लगे थे। उस दिन साप्ताहिक हाट भी थी इसलिए भीड़ बढ़ती ही जा रही थी लेकिन वहाँ काफी संख्या में तैनात सशत्र पुलिस बल की मौजूदगी पर किसी ने भी बहुत ध्यान नहीं दिया। निर्धारित समय से पूर्व ही सभा शुरू हो गयी लेकिन इसी दौरान सूचना आयी कि जयपाल सिंह मुंडा किसी कारणवश नहीं आयेंगे। जिससे थोड़ी अफरा तफरी होने से लोग इधर उधर होने लगे थे। वहाँ जुटी बीसियों हज़ार से भी अधिक आदिवासियों की संख्या जो लगातार बढ़ती ही जा रही थी, इससे हो रहे मनोवैज्ञानिक दबाव व उनकी भाषा भी नहीं समझ पाने और उनसे संवादहीनता की स्थिति ने वहाँ तैनात पुलिस-प्रशासन के अधिकारियों व पुलिस बल को काफी डरा दिया। सभा से उठते जोशभरे नारों के शोर से इनका कलेजा बैठने लगा। हालांकि वहाँ एकत्र सभी आदिवासीयों का ध्यान सभा में की जा रहीं बातों पर ही लगा हुआ था। तभी बिना कोई पूर्व चेतावनी दिये पुलिस ने सभा को निशाना बनाकर फायरिंग शुरू कर दी। चंद मिनटों में बाज़ार टांडा मैदान अनगिनत लाशों व घायलों से पट गया। अचानक हुई गोलीबारी से मची भगदड़ में कई लोग तो जान बचाने के लिए उसी मैदान में बने इकलौते कुएं में ही कूद पड़े तो कइयों को पुलिस ने अधमरे हाल में लाकर फेंक दिया। बताया जाता है कि कुछ ही देर में वह भी लाशों से भर गया था। आज वह कुआं नहीं है क्योंकि गोलीकांड के बाद वहाँ पड़ी जिन लाशों को लेने कोई नहीं आया उन्हें उसी कुएं में डालकर सदा के लिए बंद कर दिया गया। सरकार के अनुसार इस गोलीकांड में मात्र 17 लोग ही मारे गए जबकि प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार मृतकों की संख्या हज़ार से भी अधिक होगी।

आज भी हर साल 1 जनवरी को हजारों लोग किसी पिकनिक स्थल पर जाने की बजाय खरसावाँ गोलीकांड में मारे गए लोगों की स्मृति में बने समाधि स्थल पर पूरे परिवार के साथ आते हैं और फूल चढ़ाकर नम आँखों से उन्हें याद करते हैं। आज आदिवासी समुदाय की ये गहरी पीड़ा है कि देश के सामाजिक-राजनीतिक जीवन के सभी क्षेत्रों में जो उपेक्षा – वंचना हो रही है, वही भेदभाव देश के इतिहास लेखन की मुख्यधारा में भी जारी है। जबकि इस देश की स्वतंत्रता की जंग लड़ने से लेकर राष्ट्र व झारखंड निर्माण कार्यों में इनकी भूमिका भी किसी से कम नहीं रही है। आज़ाद भारत में आदिवासी अस्मिता व स्वायत्तता की लड़ी गयी पहली जंग .... खरसावाँ गोली कांड  ... का सम्मानजनक रूप से दर्ज़ न होना, बताता है कि हमारे देश के आदिवासी समुदाय को अपनी जद्दोजहद आज भी जारी रखनी होगी ..... !

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