NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
अमेरिका
एशिया के बाकी
क्षेत्रीय देश अमेरिका-तालिबान डील का विरोध नहीं करेंगे
अफ़ग़ानिस्तान के आस-पास के प्रमुख क्षेत्रीय राष्ट्रों की तरफ़ से जो प्रतिक्रियायें आ रही हैं, वह उनसे हुई ग़लती का एहसास जताने वाली हैं और इसमें कोई शक नहीं कि ये अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया के लिए उपयोगी संकेत हैं।
एम. के. भद्रकुमार
04 Mar 2020
तालिबन
अफ़ग़ानिस्तान के जलालाबाद हिंसा में होने वाली कमी को लेकर युवा 28 फ़रवरी, 2020 को जश्न मनाने के लिए गुब्बारे और कबूतर उड़ाते हुए।

शनिवार को दोहा में अमेरिका-तालिबान शांति समझौते को लेकर अफ़ग़ानिस्तान के आसपास के प्रमुख क्षेत्रीय राष्ट्रों की तरफ़ से आने वाली प्रतिक्रियाओं से उनकी तरफ़ से होने वाली ग़लती के एहसास को सामने रखती हैं, जो अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया के लिए उपयोगी संकेत हैं। 

भारतीय विदेश मंत्री एस.जयशंकर द्वारा व्यंग्यात्मक टिप्पणी और ईरानी विदेश मंत्री मोहम्मद जवाद ज़रीफ़ द्वारा असाधारण रूप से अमेरिका-विरोधी नाराज़गी को छोड़ दें, तो इस पर सामान्य राय है कि अफ़ग़ानिस्तान की शांति को लेकर सभी एक मत हैं।

क्षेत्रीय राष्ट्रों को साथ लेकर चलने की अमेरिकी कूटनीति सफल रही है, यहां तक कि पाकिस्तान को छोड़कर उनके साथ कोई "बड़ी सौदेबाज़ी" भी नहीं की गयी है।

पाकिस्तान  

आश्चर्य नहीं कि सबसे उत्साहपूर्ण प्रतिक्रिया इस्लामाबाद से आयी है। पाकिस्तान,अमेरिका के इस अनुमान का नज़दीक से अनुसरण करता है, जिसमें कहा गया है कि दोहा संधि, अफ़ग़ानी पक्षों को एक "ऐतिहासिक अवसर" देता है, जिसे उन्हें "मज़बूती के साथ थाम" लेना चाहिए। पाकिस्तान इस बात का दावा करते हुए ख़ुद को बधाई देने के मूड में है कि अफ़गान समस्या पर जो उसका रुख़ था, वही रूख़ सही साबित हुआ है। पाकिस्तान इस बात को लेकर बेहद आशावादी है कि अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया अपनी पटरी पर लौट आयी है। 

पाकिस्तान,अफ़ग़ान समस्या में अपनी केंद्रीय भूमिका की गर्माहट का मज़ा ले रहा है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाये, तो अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता स्थापित किये जाने की उसकी दशकों पुरानी नीति अपनी मंज़िल तक पहुंच रही है और इसका "रणनीतिक निवेश" अब काबुल में नेतृत्व की भूमिका को लेकर आश्वस्त दिखता है। इस "शांति से मिलने वाला लाभ" -विशेष रूप से अमेरिका के साथ उसके रिश्तों का पुनरुद्धार-एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में पाकिस्तान के लिए एक गेम चेंजर होने का भरोसा देता है।

ईरान  

एक अलग रूख़ के साथ ईरान शांति समझौते को ख़ारिज कर रहा है। इस समझौते को लेकर दिये गये ईरानी विदेश मंत्रालय के बयान के तीन प्रमुख तत्व हैं। 

पहला तत्व इस बात को रेखांकित करता है कि "स्थायी शांति" को अफ़ग़ानिस्तान के भीतर होने वाली आगामी वार्ता के माध्यम से ही ज़मीन पर उतारा जा सकता है, लेकिन पड़ोसी देशों के हितों का भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। इस बयान का दूसरा तत्व यह है कि तेहरान को अमेरिकी इरादों पर शक है। तेहरान इस अमेरिकी क़दम को "अफ़ग़ानिस्तान में अपने सैनिकों की उपस्थिति को वैध बनाए जाने के प्रयास के रूप में देखता है, और इस तरह के क़दम का वह विरोध करता है।" तीसरा तत्व यह है कि ईरान को इस बात का एहसास है कि अफ़ग़ानिस्तान संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है।

तेहरान की प्रमुख चिंता यही है कि अमेरिका का इरादा अफ़ग़ानिस्तान में अपनी मौजूदगी को मज़बूती के साथ बनाए रखना है और ऐसा करते हुए वह अफ़ग़ानिस्तान का इस्तेमाल ईरान को अस्थिर करने में कर सकता है। हालांकि, तेहरान इस शांति प्रक्रिया को नुकसान नहीं पहुंचायेगा। ईरान आख़िर क़दम के रूप में अपने हितों की रक्षा के लिए अफ़ग़ानिस्तान गुटों के साथ अपने प्रभाव का लाभ उठाने की कोशिश करेगा। 

कुल मिलाकर लब्बोलुआब यही है, जिसका खुलासा तालिबान द्वारा हाल ही में किया गया है कि दोहा में अमेरिकी वार्ताकार तालिबान-ईरान रिश्तों को पूर्व शर्त के रूप में लेकर आए थे। स्पष्ट रूप से, ईरान के इस विरोधी बयानबाज़ी के बावजूद, ट्रंप प्रशासन ईरान से इस शांति प्रक्रिया को कमज़ोर करने की उम्मीद नहीं करता है।   

भारत

भारत के बयान में अमेरिकी-तालिबान समझौते को लेकर स्पष्ट स्वागत के स्वर तो नहीं है। लेकिन, भारत उन तमाम पहल के साथ होने का भरोसा दिलाता है, जिसका "अफ़ग़ानिस्तान में सरकार, लोकतांत्रिक राजनीति और नागरिक समाज सहित पूरे राजनीतिक हलके ने स्वागत किया हो।" दिल्ली “अपनी आकांक्षाओं को साकार करने में सरकार और अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को सभी तरह का समर्थन देना जारी रखेगी।”

निस्संदेह, दिल्ली बहुत व्यथित महसूस कर रहा है। इसकी पूरी अफ़ग़ान नीति का अनुमान अफ़ग़ान सुरक्षा एजेंसियों के साथ असाधारण रूप से घनिष्ठ रिश्तों पर टिका हुआ था और इसके केन्द्र में पाकिस्तान था। भारत ख़ुद को किनारे लगे व्हेल की तरह पाता है। पाकिस्तान के खोने-पाने के आधार पर भारत के खोने-पाने की मानसिकता काबुल में किसी संभावित सरकार के बारे में उसकी उन चिंताओं को लेकर है,जो पाकिस्तान के अनुकूल है। 

वाशिंगटन को उम्मीद है कि भारत उसके साथ बना रहेगा। असल में राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत की अपनी हालिया यात्रा के दौरान इस बात का दावा किया था कि दिल्ली और वाशिंगटन के रुख़ समान ही हैं। यह पीएम मोदी के हाथ बांधने और भारतीय प्रतिष्ठान में कट्टरपंथियों पर लगाम लगाने वाली एक शानदार चाल थी। 

लेकिन,इसका कड़वा स्वाद भारत अब भी भूला नहीं है। दिल्ली इस बात की अब भी उम्मीद और प्रार्थना करेगी कि ग़नी का कारवां सत्ता में बना रहे। जयशंकर की व्यंग्यात्मक टिप्पणी इसी गुप्त इच्छा को प्रतिध्वनित करती है।

मोदी के लिए सबसे अच्छा विकल्प यही है कि वह ट्रंप की सलाह लें और पाकिस्तान के साथ अपने रिश्तों को सामान्य बनायें। लेकिन भाजपा अपने चुनावी लाभ पाने के साथ-साथ हिंदुत्व की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए पाकिस्तान को किसी खलनायक की तरह पेश करने पर ज़ोर देती है, जो पाकिस्तान के साथ किसी भी तरह की बातचीत की गुंजाइश को ही ख़त्म कर देता है। 

हालांकि, देर-सबेर दिल्ली, अफ़ग़ानिस्तान में सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग होने के नाते,तालिबान की हक़ीक़त के साथ आ जायेगी। 

रूस

रूस की स्थिति कुछ अलग है। इस अमेरिका-तालिबान संधि पर चुप रहने वाला एकमात्र प्रमुख क्षेत्रीय राष्ट्र मास्को है। लेकिन,रूस ने तालिबान के साथ अपना संपर्क बनाये रखा है और पाकिस्तान के साथ रिश्तों को काफी हद तक सामान्य कर लिया है। 

रूस ने तो उस अंतर-अफ़ग़ान मंचों तक की मेजबानी की है, जिसमें तालिबान भी शामिल था। इस तरह, रूस के पास तालिबान को मुख्यधारा में लाने के उद्देश्य से शांति प्रक्रिया का विरोध करने का कोई कारण नहीं है। 

 कहा जा रहा है कि रूस इस असंतोष से बच रहा है और तब हाशिए पर  है, जब अहम और असर डालने वाली कुछ बातें इस दुनिया में हो रही हैं। 

यह पूरी तरह साफ़ है कि अमेरिका ने यह तय रखा है कि "संशोधनवादी शक्ति" रूस को अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया से दूर रखा जाय ताकि ऐसा न हो कि क़ाबुल ज़ोर-आज़माइश का एक मैदान बन जाये। 

बेशक, रूस, अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति को लेकर ईरान के विरोधी रूख़ के साथ है। (भारत इस पहलू पर रूस और ईरान से अलग है।) रूस भी बेसब्री से अमेरिकी इरादे पर नज़र रखे हुए है।

रूस और ईरान के रुख़ इस सम्बन्ध में मोटे तौर पर समान हैं। कहा जा सकता है कि ईरान की तरह, रूस भी अमेरिका का सामना करने को लेकर सतर्क है। उनकी चाल शांति प्रक्रिया को महत्व नहीं देने के बजाय,अमेरिका की छवि को व्यवस्थित रूप से बदनाम करने और अफ़ग़ानों के बीच खड़ा होने की होगी। 

चीन 

सोमवार को बीजिंग स्थित विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता द्वारा की गयी टिप्पणी (दो बार)सभी तरह अमेरिका-तालिबान सौदे का स्पष्ट रूप से समर्थन करती है। बीजिंग ख़ामोशी के साथ "अफ़ग़ान शांति और सुलह प्रक्रिया के एक समर्थक, मध्यस्थ और सूत्रधार" के रूप में अपनी भूमिका से प्रसन्न है। 

बीजिंग आशावादी है और उसने आने वाले समय में उसने "रचनात्मक भूमिका" निभाने की इच्छा व्यक्त भी की है। चीन की तरफ़ से आए बयानों के दो नमून विशेष रूप से ध्यान को आकर्षित करते हैं। 

सबसे पहला बयान,अमेरिकी सैनिकों की एक "ज़िम्मेदार वापसी" को लेकर (जैसा कि एफ़एम क़ुरैशी ने कहा है) वह बयान है,जो पाकिस्तानी दृष्टिकोण के साथ सुर में सुर मिलाने वाला है। यह चीनी बयान स्पष्ट करता है : 

“विदेशी सैनिकों को एक व्यवस्थित और ज़िम्मेदार तरीक़े से पीछे हटना चाहिए, ताकि अफ़ग़ानिस्तान में हालात का एक संतुलित संक्रमण संभव हो सके, और ऐसा होते हुए आतंकवादी ताक़तों के लिए कोई ऐसी सुरक्षा शून्य नहीं बने, जिससे कि वे उस शून्य में अपनी पकड़ बना सके और ख़ुद का विस्तार कर सके। इस बीच, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को अफ़ग़ान शांति और पुनर्निर्माण प्रक्रिया का समर्थन और सहयोग जारी रखना चाहिए।” 

चीन का दूसरा बयान अमेरिका के साथ उसके निरंतर सहयोग और समन्वय में चीन के हित को रेखांकित करता है: “चीन अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ काम करने के लिए तैयार है और अफ़ग़ानिस्तान में शांति और सुलह प्रक्रिया को लेकर हमारा समर्थन और सहायता जारी रहेगा।” 

सही मायने में चीन एक लाभदायक स्थिति में है। अमेरिका ने इसकी मदद ली है; पाकिस्तान इसका "मज़बूत साथी" है; तालिबान इसका एक दोस्ताना वार्ताकार है; सभी अफ़ग़ान गुट चीन की भूमिका को लेकर सकारात्मक रहते हैं। इन सबसे ऊपर, अफ़ग़ान पुनर्निर्माण में योगदान करने की चीनी क्षमता की बराबरी किसी अन्य क्षेत्रीय राष्ट्र या यहां तक कि अमेरिका और यूरोपीय संघ मिलकर भी नहीं कर सकते हैं। 

 चीन इस बात से अनजान नहीं है कि शांति की यह राह लंबी और जटिल हो सकती है। द चाइना मिलिट्री ऑनलाइन ने सोमवार को आने वाले संकट,विशेष रूप से ट्रंप के लिए कठोर वास्तविकता पर एक पैनी टिप्पणी करते हुए लिखा है कि इस शांति प्रक्रिया को चलाने को लेकर ट्रंप की यह कोशिश उनके फिर से चुनाव की दिशा बता रही है। 

यह टिप्पणी इस बात को लेकर  एक कुशल टिप्पणी है कि यदि वॉशिंगटन, अफ़ग़ान सरकार पर बहुत अधिक दबाव डालता है,तो "अफ़ग़ान सरकार अपने स्वयं के हितों की रक्षा के लिए "मानवाधिकारों" और अन्य विषयों के बहाने [यूएस हाउस स्पीकर नैन्सी] पेलोसी की मदद अच्छी तरह ले सकता है, इस प्रकार यह वाशिंगटन के माध्यम से तालिबान का प्रतिसंतुलन है। दरअसल, पेलोसी ने फ़रवरी के मध्य में जर्मनी के 56 वें म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन के मौक़े पर ग़नी से मिलने का समय निकाला था

US-Taliban Peace Dialogues
Afghanistan
Pakistan
India
Russia
IRAN
China

Related Stories

भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल

डेनमार्क: प्रगतिशील ताकतों का आगामी यूरोपीय संघ के सैन्य गठबंधन से बाहर बने रहने पर जनमत संग्रह में ‘न’ के पक्ष में वोट का आह्वान

रूसी तेल आयात पर प्रतिबंध लगाने के समझौते पर पहुंचा यूरोपीय संघ

यूक्रेन: यूरोप द्वारा रूस पर प्रतिबंध लगाना इसलिए आसान नहीं है! 

पश्चिम बैन हटाए तो रूस वैश्विक खाद्य संकट कम करने में मदद करेगा: पुतिन

और फिर अचानक कोई साम्राज्य नहीं बचा था

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन में हो रहा क्रांतिकारी बदलाव

ईरानी नागरिक एक बार फिर सड़कों पर, आम ज़रूरत की वस्तुओं के दामों में अचानक 300% की वृद्धि

90 दिनों के युद्ध के बाद का क्या हैं यूक्रेन के हालात

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आईपीईएफ़ पर दूसरे देशों को साथ लाना कठिन कार्य होगा


बाकी खबरें

  • बिहार में ज़िला व अनुमंडलीय अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    बिहार में ज़िला व अनुमंडलीय अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी
    18 May 2022
    ज़िला अस्पतालों में डॉक्टरों के लिए स्वीकृत पद 1872 हैं, जिनमें 1204 डॉक्टर ही पदस्थापित हैं, जबकि 668 पद खाली हैं। अनुमंडल अस्पतालों में 1595 पद स्वीकृत हैं, जिनमें 547 ही पदस्थापित हैं, जबकि 1048…
  • heat
    मोहम्मद इमरान खान
    लू का कहर: विशेषज्ञों ने कहा झुलसाती गर्मी से निबटने की योजनाओं पर अमल करे सरकार
    18 May 2022
    उत्तर भारत के कई-कई शहरों में 45 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पारा चढ़ने के दो दिन बाद, विशेषज्ञ जलवायु परिवर्तन के चलते पड़ रही प्रचंड गर्मी की मार से आम लोगों के बचाव के लिए सरकार पर जोर दे रहे हैं।
  • hardik
    रवि शंकर दुबे
    हार्दिक पटेल का अगला राजनीतिक ठिकाना... भाजपा या AAP?
    18 May 2022
    गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले हार्दिक पटेल ने कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है। हार्दिक पटेल ने पार्टी पर तमाम आरोप मढ़ते हुए इस्तीफा दे दिया है।
  • masjid
    अजय कुमार
    समझिये पूजा स्थल अधिनियम 1991 से जुड़ी सारी बारीकियां
    18 May 2022
    पूजा स्थल अधिनयम 1991 से जुड़ी सारी बारीकियां तब खुलकर सामने आती हैं जब इसके ख़िलाफ़ दायर की गयी याचिका से जुड़े सवालों का भी इस क़ानून के आधार पर जवाब दिया जाता है।  
  • PROTEST
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    पंजाब: आप सरकार के ख़िलाफ़ किसानों ने खोला बड़ा मोर्चा, चंडीगढ़-मोहाली बॉर्डर पर डाला डेरा
    18 May 2022
    पंजाब के किसान अपनी विभिन्न मांगों को लेकर राजधानी में प्रदर्शन करना चाहते हैं, लेकिन राज्य की राजधानी जाने से रोके जाने के बाद वे मंगलवार से ही चंडीगढ़-मोहाली सीमा के पास धरने पर बैठ गए हैं।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License