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ख़ास रिपोर्ट: घाटी से लौटे बिहारी कामगारों की कश्मीरियों पर क्या राय है?
बिहार के कामगारों के लिए केरल के बाद जम्मू-कश्मीर पसंदीदा जगह है, जहां वे न केवल चैन से काम कर सकते हैं बल्कि उन्हें अच्छी मज़दूरी भी मिलती है। लेकिन आनेवाले दिनों में हालात के और संगीन होने की आशंका के मद्देनजर वे अपने घर लौटने लगे हैं।
उमेश कुमार राय
13 Aug 2019
jammu kashmir and bihari
बारामुला से लौटे प्रताप पासवान। वह वहां पिछले 30 बरस से रह रहे थे। फोटो : उमेश कु्मार राय

पटना (बिहार): जम्मू-कश्मीर को आर्टिकल 370 के तहत मिले विशेषाधिकारों को खत्म कर कर्फ्यू लगा देने से वहां का जीनजीवन पूरी तरह बेपटरी हो गया है। इंटरनेट और फोन तक काम नहीं कर रहा। इस पूरे घटनाक्रम का असर घाटी में बाहर से आए कामगारों पर भी पड़ रहा है। उनका काम चार अगस्त से ही ठप पड़ा है। दुकान-पाट बंद होने के कारण वे जरूरत का सामान भी नहीं खरीद पा रहे हैं। बाहर निकलने पर पाबंदियों के चलते उन्हें घरों में ही दुबक कर रहना पड़ रहा है।   

आनेवाले दिनों में हालात के और संगीन होने की आशंका के मद्देनजर दीगर सूबों से गए कामगार तमाम मुश्किलों से दो-चार होकर घर लौट रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में बिहारी कामगारों की भी अच्छी-खासी तादाद है। वे भी अपने घर लौटने लगे हैं।

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जम्मू तवी से आने वाली अर्चना एक्सप्रेस सोमवार की रात 8.50 बजे पटना जंक्शन पहुंची, तो ट्रेन के डिब्बे यात्रियों से ठसाठस भरे हुए थे। भीड़ इतनी थी कि रिजर्वेशन बोगी और जनरल डिब्बे में फर्क करना मुश्किल हो रहा था। सभी चेहरे थके हुए और आंखें उनींदी थीं।

22 साल के शिव नारायण सरदार मूल रूप से मधुबनी के रहनेवाले हैं। वह श्रीनगर के रामबाग में किराये के मकान में रहते थे। शिवनारायण दो महीने पहले ही श्रीनगर गए थे। वह वहां कंस्ट्रक्शन साइट पर ईंट-बालू ढोने का काम करते थे।

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शिवनारायण कहते हैं, “चार अगस्त से ही काम बंद हो गया था और उसी रात से सिम कार्ड ने भी काम करना बंद कर दिया था। अगली सुबह से दुकान-पाट भी बंद हो गए। हमलोग घर से दाल लेकर गए थे, सो अब तक दाल-भात और आलू की चटनी खाकर पेट भर रहे थे।”
शिवनारायण आगे बताते हैं, “ठेकेदार के पास मेरा 9 हजार रुपये बकाया है। अभी केवल घर पहुंचने तक के लिए ही ठेकेदार ने पैसा दिया और बोला कि हालात कुछ ठीक होने पर बैंक खाते में पैसा भेज दिया जाएगा।”

कर्फ्यू के कारण उन्हें स्टेशन तक पहुंचने में भी बड़ी मशक्कत करनी पड़ी। शिवनारायण ने बताया, “हमलोग 4 किलोमीटर पैदल चल कर बस स्टैण्ड पहुंचे। वहां से टिकट लेकर बस में सवार हुए और भोर में स्टेशन पहुंचे। स्टेशन पर ही 14 घंटे गुजारने के बाद अर्चना एक्सप्रेस में सवार हुए।” 

क्या वे दोबारा घाटी जाएंगे ? इस सवाल पर वह कहते हैं, “बिहार में रोजगार का साधन नहीं है। अगर काम मिलता भी है, तो पैसा उतना नहीं मिलता है, इसलिए वापस जम्मू-कश्मीर ही जाएंगे, लेकिन तब जब वहां हालात सामान्य हो जाएंगे।”

जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा खत्म होने के बाद बिहार के डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी ने ट्वीट किया था, “धारा 370 के विभेदकारी प्रावधानों का हटना बिहार के लाखों युवाओं के लिए रोजगार का अवसर देगा।” मोदी ये ट्वीट करते हुए शायद ये भूल गए या फिर जान बूझकर स्वीकार नहीं कर सके कि जम्मू-कश्मीर में लाखों बिहारी कामगार काम कर रहे हैं। इन दिनों जम्मू से बिहार आनेवाली पांच एक्सप्रेस ट्रेनों के डिब्बों में वह झांक लेते, तो शायद ऐसा ट्वीट नहीं करते।

बिहार के कामगारों के लिए केरल के बाद जम्मू-कश्मीर पसंदीदा जगह है, जहां वे न केवल चैन से काम कर सकते हैं बल्कि उन्हें अच्छी मजदूरी भी मिलती है।  शिवनारायण को ईंट-बालू ढोने के एवज में रोजाना 500 रुपये मिलते थे। ओवरटाइम काम कर वह 22 से 25 हजार रुपए कमा लेते थे। अब बिहार लौटने पर क्या करेंगे, शिवनारायण कुछ सोच नहीं पा रहे हैं, क्योंकि काम नहीं मिलने के कारण ही वह जम्मू-कश्मीर गए थे।

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33 वर्षीय जालेश्वर सरदार भी मधुबनी के ही रहनेवाले हैं। अर्चना एक्सप्रेस से ही वह भी लौटे हैं। वह कहते हैं, “बिहार में काम की कोई गारंटी नहीं रहती है। दिहाड़ी भी कम मिलता है। मजबूरी में लौटे हैं, अब दिक्कत-सिक्कत से रहना होगा। और क्या करेंगे। बिहार सरकार अगर नौकरी की व्यवस्था कर देती, तो हमें इस तरह इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता।”

बिहारी कामगारों का इस तरह दूसरे सूबों से अचानक पैसा-सामान छोड़ कर लौटना कोई नई घटना नहीं है। कुछ साल पहले मुंबई में जब उत्तर भारतीयों पर हमले हुए थे, तो बिहारी कामगारों को भागना पड़ा था। पिछले ही साल बिहारी कामगारों पर गुजरातियों की नफरत का कहर टूटा था, तो उन्हें वहां से लौटना पड़ा था। उस वक्त बिहार लौटे कई कामगारों से बात हुई थी, तो उन्होंने बताया था कि उन्हें गुजराती लोग मां-बहन की गालियां देते थे और मारते-पीटते थे।

लेकिन, गुजरात और महाराष्ट्र से लौटने और घाटी से लौटने में फर्क है। गुजरात और महाराष्ट्र से उन्हें इसलिए भागना पड़ा था, क्योंकि वहां के लोग उन्हें नफरत की नजर से देखते थे और उन्हें लगता था कि वे उनकी हक़मारी कर रहे हैं। इसके विपरीत घाटी से उन्हें सरकार के फैसले और उसके बाद उपजी स्थितियों के कारण लौटना पड़ा। स्थानीय लोगों में उनको लेकर कोई नफ़रत नहीं थी। घाटी से लौटने वाले ज्यादातर कामगारों ने वहां के स्थानीय लोगों के व्यवहार और मिलनसार प्रवृत्ति की खुल कर तारीफ की।       

जालेश्वर सरदार कहते हैं, “हमलोग जिस मकान मालिक के यहां किराये पर रहते थे, वे मुसलमान थे। उनका व्यवहार बहुत अच्छा था। उन्होंने कभी भी हमारे साथ बुरा व्यवहार नहीं किया।”

बिहार के अररिया के रहने वाले 72 वर्षीय प्रताप पासवान पिछले तीस साल से बारामुला में रह रहे हैं। वहां उन्होंने पत्थरबाजी भी देखी है और पुलिस का एक्शन भी, लेकिन उन्हें कभी भी स्थानीय लोगों ने परेशान नहीं किया। 

जिस कंपनी में वह काम करते थे, वहां उनका 30 हजार रुपये बकाया है। कंपनी ने कहा है कि माहौल ठीक हो जाएगा, तो आइएगा, पैसा मिल जाएगा। 

उन्होंने जो पैसा बचाकर रखा था, उसी के सहारे बारामुला से निकल गए। वह कहते हैं, “घाटी में पैसा कभी नहीं डूबता है। दिक्कत बस यही है कि अभी मुझे लौटने के लिए पैसे की सख्त जरूरत थी, लेकिन पैसा नहीं मिला। मेरी जेब में अभी महज 100 रुपये हैं और इसी में मुझे घर तक जाना है।”    

कर्फ्यू होने से वाहनों की बड़ी किल्लत थी, जिस कारण उन्हें स्टेशन तक पहुंचने में अतिरिक्त खर्च करना पड़ा। उन्होंने कहा, “40 से 50 प्रतिशत ज्यादा खर्च कर मैं स्टेशन पहुंचा। अभी जब तक वहां माहौल सामान्य नहीं हो जाता है, यहीं कुछ किया जाएगा।”

बारामुला में वह मुस्लिम मकान मालिक के घर में किराये पर थे। उन्होंने कहा, “मकान मालिक बहुत अच्छे थे। वहां खाने-पीने पर कोई पाबंदी नहीं थी। मकान मालिक ने कभी दुर्व्यवहार नहीं किया। कोई ये कहे कि घाटी के लोग बुरे हैं, तो मैं ये कभी नहीं मान सकता हूं।”

ऐसा नहीं है कि जम्मू-कश्मीर में रहनेवाले सभी बिहारी मजदूरी ही करते हैं। बहुत ऐसे भी हैं, जो वहां दुकानें लगाते हैं। मूल रूप से बांका रहनेवाले 40 वर्षीय कैलाश पासवान उन्हीं में से एक हैं। वह श्रीनगर में पिछले 20 सालों से आइसक्रीम और गोलगप्पे की दुकान चलाते हैं, लेकिन स्थानीय लोगों ने कभी भी उनका कोई नुकसान नहीं किया। हां, ये जरूर है कि पूर्व में भी कर्फ्यू लगने के कारण उपजे हालत की वजह से उन्हें कुछ दिन के लिए घर लौटना पड़ा। 

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कैलाश पासवान आठ अगस्त को अर्चना एक्सप्रेस से लौटे। उन्होंने बताया कि श्रीनगर में दुकान चला कर वह 25 से 30 हजार रुपये कमा लेते हैं। वह हजार रुपये किराये पर एक मुस्लिम दंपति के मकान में रहते थे। उन्होंने कहा, “जब हमलोग लौट रहे थे, तो दंपति ने हमें रोकने की कोशिश की और कहा कि हालात बहुत जल्द सामान्य हो जाएंगे। लेकिन एक आशंका तो थी ही, इसलिए लौट आए।”

स्थानीय लोगों को लेकर बिहारी कामगारों का ये नजरिया काफी हद तक सच भी है क्योंकि घाटी से पालायित बिहारियों के खिलाफ हिंसा की कोई भी घटना अब तक सामने नहीं आई है। अलबत्ता, इस साल जून में घाटी और बिहार से जुड़ी एक खबर सुर्खियों में आई थी, लेकिन इसमें कश्मीरी अवाम कहीं नहीं था। दरअसल, मई में कश्मीर के एक मिलिटेंड ग्रुप के कमांडर जाकिर मूसा की मौत के बाद दक्षिण कश्मीर के पुलवामा के मुर्रान चौक पर प्रदर्शन शुरू हो गया था और पत्थरबाजी हुई थी।

उसी वक्त सुरक्षा बलों ने पैलेट गन चला दिए थे, जिसमें बिहार के अररिया का रहने वाला 17 वर्षीय मोहम्मद शाहनवाज आलम जख्मी हो गया था। पैलेट गन का छर्रा उसकी आंख में घुस गया था। इस घटना के बाद उसे अररिया लौट जाना पड़ा था। शाहनवाज आलम के बड़े भाई शाहवाज आलम ने बताया था कि वह खुद तीन साल से कश्मीर में काम कर रहे थे, लेकिन कई बार लॉक आउट के बावजूद कामगारों को कई दिक्कत नहीं आई। बल्कि, शाहनवाज आलम के जख्मी होने पर आम कश्मीरियों ने मदद का हाथ बढ़ाया और सोशल मीडिया के जरिए आर्थिक मदद की अपील की थी। 

बहरहाल, कैलाश पासवान भी घाटी से लौटे अन्य बिहारियों की तरह हालात सामान्य होने पर वापस जम्मू-कश्मीर ही जाना चाहते हैं। लाखों बिहारियों की तरह उन्हें भी इस बात का मलाल है कि अपने राज्य में उनके लिए रोजगार के अवसर नहीं हैं। 

(सभी फोटो उमेश कुमार राय)

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