NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
नज़रिया
समाज
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
मदर्स डे : कोरी भावुकता नहीं, ठोस प्रयास हैं आवश्यक
यदि हम झूठे महिमामंडन के स्थान पर माताओं की बेहतरी के लिए कुछ ठोस एवं योजनाबद्ध प्रयास कर सकें तभी मदर्स डे जैसे उत्सव सार्थक हो सकेंगे।
डॉ. राजू पाण्डेय
12 May 2019
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy : Hindustan

मदर्स डे के अवसर पर जब भी युवा पीढ़ी बढ़ चढ़ कर अपनी भावनाओं को सोशल मीडिया के माध्यम से अभिव्यक्त करती है तो इस शाश्वत बहस का प्रारंभ हो जाता है कि क्या किसी पाश्चात्य अवधारणा को इस तरह जीवन का एक भाग बना लेना उचित है? यह बहस उचित भी है। प्रायः हमें मदर्स डे का स्मरण बाजार दिलाता है। महिलाओं और विशेषकर वृद्धाओं के लिए उत्पाद बनाने वाली कंपनियों के संदेश हमें यह सूचित करते हैं कि बाजार मदर्स डे के लिए उत्पादों की नवीन श्रृंखला के साथ सजकर तैयार है। मदर्स डे उत्सव का सूत्रपात करने वाली अमेरिकी महिला एना जार्विस को भी इस व्यवसायीकरण ने आहत किया था।

मई 1905 में दिवंगत हुई अपनी माता के प्रति अपनी कृतज्ञता और श्रद्धा की अभिव्यक्ति को विराट फलक देते हुए एना जार्विस ने इसे समस्त माताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के अवसर में बदल दिया। ‘द बेस्ट मदर हू एवर लिव्ड- योर्स’ - एना जार्विस के इन शब्दों में मातृ भक्ति और प्रेम के उच्चतम स्वरूप को देखा जा सकता है। जार्विस के प्रयासों से 1908 में सेंट एंड्रूज मेथोडिस्ट चर्च, वेस्ट वर्जिनिया में पहली बार मदर्स डे का उत्सव मनाया गया।  जार्विस के अनथक संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि उनके द्वारा प्रारंभ किए गए मदर्स डे को 1914 में अमेरिकी राष्ट्रपति डब्लू विल्सन ने राष्ट्रीय अवकाश का दर्जा दिया।

बाजार ने जार्विस के मदर्स डे को उनकी आशाओं से अधिक लोकप्रिय बना दिया। लोग फूलों की सजावट, महंगे ग्रीटिंग कार्डों और चॉकलेटस पर अनाप शनाप खर्च करने लगे। जार्विस को इससे बड़ी पीड़ा हुई और उन्होंने इसका पुरजोर विरोध किया। इसी प्रकार जब प्रथम महिला एलेनोर रूज़वेल्ट ने मदर्स डे को महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य तथा कल्याण को समर्पित किया तब भी जार्विस ने इसकी आलोचना की, यद्यपि जार्विस की माता सामुदायिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में ही कार्यरत थीं।

अपनी तमाम व्यावसायिक विकृतियों के बावजूद मदर्स डे आज की आपाधापी में आत्मकेंद्रित होती जा रही युवा पीढ़ी को माता का स्मरण कर उसके प्रति आभार व्यक्त करने का एक अवसर प्रदान करता है। कोमल और पवित्र भावनाओं का स्फुरण महत्वपूर्ण है भले ही उसके लिए उद्दीपन आधुनिक तकनीकी के माध्यम से बाजार द्वारा ही दिया गया हो।  इस अवसर पर हम पश्चिमी देशों में एक संस्था के रूप में परिवार की शक्ति के ह्रास, न्यूक्लियस फैमिलीज की संख्या में वृद्धि, वृद्धों की उपेक्षा और ओल्ड ऐज होम्स में एकाकी जीवन बिताने की उनकी त्रासदी की चर्चा कर सकते हैं। हम हमारे देश की संयुक्त परिवार की प्रथा का गौरव गान भी कर सकते हैं। किंतु यह भी सत्य है वैश्वीकृत मुक्त अर्थव्यवस्था के इस युग में विकास के जिस मॉडल को सर्वस्वीकृत और अपरिहार्य मान लिया गया है उसमें तकनीकी क्रांति द्वारा भौतिक सुख समृद्धि की प्राप्ति का लक्ष्य सर्वोपरि है।  मनुष्यों के बीच भावनात्मक संबंधों का ह्रास, निजी संपर्क में कमी और सामुदायिकता की भावना का क्षरण, विकास के इस मॉडल के अनिवार्य साइड इफेक्ट्स हैं। हम इससे अछूते नहीं रह सकते।

मातृत्व प्रकृति द्वारा नारी को दिया गया एक अनुपम और अद्वितीय उपहार है जो उसे सृष्टि निर्मात्री का दर्जा प्रदान करता है तथा पुरुष से भिन्न एवं श्रेष्ठ बनाता है। किंतु पितृसत्तात्मक सोच पुरुष वर्चस्व की स्थापना के लिए मातृत्व का नारी की उन्मुक्त उड़ान में बाधा उत्पन्न करने हेतु दुरुपयोग करती रही है। पुरुषवादी समाज में नारी की भूमिका को मातृत्व के बहाने घर और परिवार तक सीमित करने का कुटिल प्रयास हमेशा होता रहा है। विश्व के अधिकांश धर्म वैचारिक और सैद्धांतिक स्तर पर माता के रूप में नारी को आदर और श्रद्धा का पात्र मानते हैं। किंतु इन धर्मों के संस्थागत व्यवहारिक स्वरूप में माता को वह स्वतंत्रता, सम्मान और समानाधिकार प्राप्त नहीं हैं। माता तभी तक आदरणीया है जब तक वह पितृसत्ता के निर्देशों पर चलकर स्वयं को घर की चहारदीवारी के भीतर ही आबद्ध रखे। उसे दिए जाने वाले सम्मान के पीछे निषेध और वर्जनाओं का एक पूरा तंत्र छिपा होता है। इस पुरुषवादी वर्चस्व की प्रतिक्रिया में पश्चिम का नारीवादी आंदोलन एक दूसरे अतिरेक की ओर जाता दिखता है जब वह मातृत्व को त्यागने और नकारने का भाव नारी में उत्पन्न करता है यद्यपि इसका मूल तत्व यह है कि मातृत्व धारण करने की स्वतंत्रता और अधिकार नारी के पास सुरक्षित रहें। पुरुषवादी सोच संतान के लालन पालन का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व माता पर डालती है। इस महती दायित्व का निर्वाह करने वाली माताओं को धन्यवाद देने के स्थान पर उनकी आलोचना करना पुरुष के अहंकार को संतुष्ट करता है। माताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे घर को चलाने के लिए अर्थोपार्जन भी करें किंतु उन्हें संतानों के लालन पालन की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जाता। अशोका यूनिवर्सिटी का 2018 का एक अध्ययन यह बताता है कि देश में 73 प्रतिशत महिलाएं पहली बार मां बनने पर अपनी नौकरी छोड़ने के लिए बाध्य हो जाती हैं। 30 वर्ष की आयु की 50 प्रतिशत माताएं अपने बच्चों की देखरेख के लिए जॉब त्याग देती हैं। इनमें से केवल 27 प्रतिशत काम पर वापस लौट पाती हैं किंतु इनमें से 48 प्रतिशत को पुनः काम छोड़ना पड़ता है। यह भयावह स्थिति यह बताती है कि मातृत्व किस प्रकार नारी से उसकी आर्थिक स्वतंत्रता छीन कर उसे पुरुष पर आश्रित बना देता है। विश्व बैंक का 2018-19 का एक अध्ययन यह बताता है कि भारत में 15 वर्ष से अधिक आयु की केवल 27 प्रतिशत महिलाएं ही वर्क फ़ोर्स का हिस्सा हैं जो ब्रिक्स देशों में न्यूनतम है। संतान के लालन पालन का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व माता पर थोपने की प्रवृत्ति इसके लिए ज़िम्मेदार है।

मदर्स डे के अवसर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा माताओं के स्वास्थ्य के विषय में 28 मार्च 2019 को जारी नवीनतम आंकड़ों की चर्चा आवश्यक लगती है। आसानी से दूर की जा सकने वाली स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान न हो पाने के कारण  विश्व में प्रतिदिन गर्भावस्था और प्रसव के दौरान 830 महिलाओं की मृत्यु हो जाती है। मातृत्व से जुड़ी हुई 99 प्रतिशत मौतें विकासशील देशों में होती हैं। ग्रामीण इलाकों में रहने वाली निर्धन महिलाओं में मातृत्व के दौरान मृत्यु दर सर्वाधिक होती है।  राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के आंकड़ों का 2016 का एक विश्लेषण यह दर्शाता है कि सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रमों के तहत प्रसव पूर्व देखभाल हेतु बल दिए जाने के बावजूद भारत की स्थिति आदर्श नहीं है। विश्लेषण में पाया गया है कि वंचित समुदायों, विशेष रूप से अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित-जनजाति (एसटी) और ग्रामीण क्षेत्रों से संबंधित महिलाओं को प्रसव पूर्व देखभाल बहुत कम मिल पाती है। 2015-16 के आंकड़े यह बताते हैं कि भारत में गर्भधारण करने की आयु में प्रवेश कर चुकी 53.1 प्रतिशत महिलाएं रक्ताल्पता से पीड़ित रहती हैं। इंडिया स्पेंड की 25 फरवरी 2017 की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में मातृ मृत्यु दर का सबसे बड़ा कारण एनीमिया ही है। 50 प्रतिशत मातृ मृत्यु की घटनाएं सीधे खून की कमी के कारण ही होती हैं, जबकि अन्य 20 प्रतिशत के लिए एनीमिया अप्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी होता है। वर्ल्डस मदर रिपोर्ट में भारत हमेशा बहुत निचली पायदानों पर रहा है। सरकार के प्रयासों से प्रसव के लिए महिलाएं अस्पताल आ तो रही हैं किंतु मातृ मृत्यु दर इसलिए अधिक बनी हुई है कि प्रसव पूर्व देखभाल के मामले में हम बहुत पीछे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत, बांग्लादेश, तंजानिया, नाइजीरिया, घाना, मलावी, युगांडा और इथियोपिया को मिलाकर एक नेटवर्क बनाया है जो मातृत्व सुरक्षा और शिशु स्वास्थ्य पर फोकस करेगा। किंतु डब्लूएचओ की सिफारिशों को लागू करने के लिए हमारे पास फण्ड, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के नेटवर्क और प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की भारी कमी है।

संगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के लिए तो मैटरनिटी लीव और चाइल्ड केअर लीव जैसे प्रावधान हैं किंतु असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली लाखों महिलाओं के लिए ऐसे प्रावधानों का अभाव है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की धारा 4 बी के अनुसार सभी गर्भवती महिलाओं को कम से कम 6000 रुपये की मातृत्व सहायता मिलनी चाहिए किंतु सरकारों द्वारा बजट में समुचित प्रावधानों के अभाव में इस धारा का समुचित एवं सम्पूर्ण क्रियान्वयन नहीं हो पाया। वर्तमान एनडीए सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों के बाद 2017 में देश के  650 जिलों में गर्भवती महिलाओं और दुग्धपान कराने वाली माताओं को यह लाभ देने का निर्णय किया गया। किंतु यह राशि अपर्याप्त है, केवल प्रथम जीवित शिशु के लिए दी जानी है और तीन किस्तों में दी जानी है। इस राशि को पाने के लिए प्रसव पूर्व देखरेख, संस्थागत प्रसव और टीकाकरण जैसी शर्तों को पूरा भी करना पड़ेगा। इस कारण सर्वाधिक जरूरतमंद माताएं ही यह राशि पाने से वंचित रह जाएंगी।

भारत जैसे देश में माताएं न केवल विकासशील देशों में व्याप्त पिछड़ेपन और गरीबी की मार झेल रही हैं अपितु उन्हें भोगवादी संस्कृति की पुजारी नव धनाढ्य युवा पीढ़ी की उपेक्षा का सामना भी करना पड़ रहा है जो हर संबंध का आकलन उपयोगिता के आधार पर करती है। समाचार पत्रों में आए दिन वृद्धा माताओं के साथ उनकी संतानों द्वारा किए जा रहे अमानवीय व्यवहार की खबरें प्रकाशित होती रहती हैं। देश में वृद्धों की देखरेख की समुचित व्यवस्था के अभाव के कारण ऐसी महिलाएं भटकती भटकती वृंदावन जैसे धार्मिक तीर्थों में शरण पाने की कोशिश करती हैं किंतु वहां भी अभाव, गरीबी और शोषण उनका पीछा नहीं छोड़ते।

इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद माताओं ने वैश्विक स्तर पर जीवन के हर क्षेत्र में मातृत्व के बाद भी उल्लेखनीय सफलताएं प्राप्त की हैं। विशेषकर खेलों में मैरी कॉम (बॉक्सिंग), किम क्लिस्टर्स (टेनिस), सेरेना विलियम्स (टेनिस) डाना वॉलमर (तैराकी), क्रिस्टी राम्पोनी (फुटबॉल) जैसे सैकड़ों नाम यह बताते हैं कि मातृत्व ने माताओं को शारीरिक और मानसिक तौर पर मजबूत ही किया है। यदि राजनीति और प्रशासन की चर्चा करें तो हमारे देश में ही मातृ शक्ति के ऐसे अनगिनत उदाहरण उपस्थित हैं जो अपनी संतान को शानदार परवरिश देने के साथ साथ देश को भी नई दिशा देने में सक्षम हुए हैं। राजनीति, व्यापार और प्रशासन में शीर्ष पदों पर कार्यरत माताओं के निर्णयों में परिपक्वता, संतुलन और मानवीयता का समन्वय देखने में आता है। प्रयोग के तौर पर नक्सलवाद, अलगाववाद और आतंकवाद से प्रभावित क्षेत्रों में प्रशासन की कमान मातृ शक्ति को सौंपी जा सकती है। भटके हुए युवाओं को हिंसा त्याग कर मुख्य धारा में लाने का कार्य माताएं बड़ी सहजता से कर सकती हैं और स्थायी शांति की स्थापना में अपना योगदान दे सकती हैं। 

यदि हम झूठे महिमामंडन के स्थान पर माताओं की बेहतरी के लिए कुछ ठोस एवं योजनाबद्ध प्रयास कर सकें तभी मदर्स डे जैसे उत्सव सार्थक हो सकेंगे।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

mothers day
maa
Women Rights
exploitation of women
Marketing
Women's Health Issues
women empowerment

Related Stories

मदर्स डे: प्यार का इज़हार भी ज़रूरी है

सोनी सोरी और बेला भाटिया: संघर्ष-ग्रस्त बस्तर में आदिवासियों-महिलाओं के लिए मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली योद्धा

विशेष: लड़ेगी आधी आबादी, लड़ेंगे हम भारत के लोग!

मुद्दा: महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व का सवाल और वबाल

क्या समाज और मीडिया में स्त्री-पुरुष की उम्र को लेकर दोहरी मानसिकता न्याय संगत है?

हाथरस, कठुआ, खैरलांजी, कुनन पोशपोरा और...

हाथरस बनाम बलरामपुर, यूपी बनाम राजस्थान की बहस कौन खड़ी कर रहा है!

भारतीय कला के उन्नयन में महिलाओं का योगदान

चमन बहार रिव्यु: मर्दों के नज़रिये से बनी फ़िल्म में सेक्सिज़्म के अलावा कुछ नहीं है

हैदराबाद एनकाउंटरः #हमारेनामपरहत्यानहीं


बाकी खबरें

  • hafte ki baat
    न्यूज़क्लिक टीम
    मोदी सरकार के 8 साल: सत्ता के अच्छे दिन, लोगोें के बुरे दिन!
    29 May 2022
    देश के सत्ताधारी अपने शासन के आठ सालो को 'गौरवशाली 8 साल' बताकर उत्सव कर रहे हैं. पर आम लोग हर मोर्चे पर बेहाल हैं. हर हलके में तबाही का आलम है. #HafteKiBaat के नये एपिसोड में वरिष्ठ पत्रकार…
  • Kejriwal
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: MCD के बाद क्या ख़त्म हो सकती है दिल्ली विधानसभा?
    29 May 2022
    हर हफ़्ते की तरह इस बार भी सप्ताह की महत्वपूर्ण ख़बरों को लेकर हाज़िर हैं लेखक अनिल जैन…
  • राजेंद्र शर्मा
    कटाक्ष:  …गोडसे जी का नंबर कब आएगा!
    29 May 2022
    गोडसे जी के साथ न्याय नहीं हुआ। हम पूछते हैं, अब भी नहीं तो कब। गोडसे जी के अच्छे दिन कब आएंगे! गोडसे जी का नंबर कब आएगा!
  • Raja Ram Mohan Roy
    न्यूज़क्लिक टीम
    क्या राजा राममोहन राय की सीख आज के ध्रुवीकरण की काट है ?
    29 May 2022
    इस साल राजा राममोहन रॉय की 250वी वर्षगांठ है। राजा राम मोहन राय ने ही देश में अंतर धर्म सौहार्द और शान्ति की नींव रखी थी जिसे आज बर्बाद किया जा रहा है। क्या अब वक्त आ गया है उनकी दी हुई सीख को अमल…
  • अरविंद दास
    ओटीटी से जगी थी आशा, लेकिन यह छोटे फिल्मकारों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा: गिरीश कसारावल्ली
    29 May 2022
    प्रख्यात निर्देशक का कहना है कि फिल्मी अवसंरचना, जिसमें प्राथमिक तौर पर थिएटर और वितरण तंत्र शामिल है, वह मुख्यधारा से हटकर बनने वाली समानांतर फिल्मों या गैर फिल्मों की जरूरतों के लिए मुफ़ीद नहीं है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License