अप्रैल और जून महीने में अगर बच्चों के खाने को लेकर जागरूकता फैला दी जाए तो बहुत बड़ी संख्या में इन मौतों को रोका जा सकता है।
      
     
    
    
        
            
      
            (फोटो साभार: लाइवमिंट)
      
            मुजफ्फरपुर में इन्सेफेलाइटिस की वजह से साल 1995 से मौतें हो रही हैं। इतने लम्बे समय से यह बीमारी मौजूद है। इससे यह बात तो साफ हो जाती है कि प्रशासन को इस बीमारी की अच्छी तरह से जानकरी होगी। उसने इस बीमारी से लड़ने के तरीके भी बनाएं होंगे। इसलिए अगर इस साल मौतों की संख्या 100 से अधिक पार हो गयी है तो निश्चित तौर पर यह प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा है।  
क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर डॉक्टर टी जैकब जॉन इस बीमारी को लंबे समय से फॉलो कर रहे हैं। उनका कहना है कि साल 2015 से 2017 के बीच इस बीमारी से इस इलाके में कम मौतें हुई। लेकिन अचनाक से ऐसा क्या हुआ कि इस साल मौतें फिर से अधिक हो गयी। निश्चित तौर पर यह प्रशासनिक असफलता का नतीजा है। उनके इस बात की पुष्टि करते हुए इकॉनिमिक टाइम्स में एक रिपोर्ट छपी है। रिपोर्ट में इंडियन एकडेमी ऑफ़ पेड्रिआटिक्स के डॉक्टर अरुण शाह के हवाले से यह बात छपी है कि नीतीश सरकार इस बीमारी से निपटने के लिए साल 2015 में बनाये गए दिशनिर्देशों को जमीन पर लागू करने से असफल रही है। 
डॉक्टर शाह कहते हैं कि इस दिशानिर्देश के मुताबिक आशा और आंगनवाड़ी कामगारों की जिम्मेदारी थी कि अप्रैल और जून के महीने में फैलने वाली इस बीमारी के खिलाफ वे इस इलाके में  'खाना-खाने'  को लेकर जागरूकता अभियान  चलाएं। लेकिन इस बार के सारे कामगारों को सरकार ने लोकसभा  चुनाव में व्यस्त कर दिया। जागरूकता अभियान नहीं चला। जिसका परिणाम हमारे सामने है। 
शाह ही वह डॉक्टर हैं, जिन्होंने डॉक्टर टी जैकब मोहन के साथ दुनिया की प्रतिष्ठित हेल्थ मैगज़ीन लांसेट में इस बीमारी और लीची के बीच जुड़ाव को प्रकाशित किया था। डॉक्टर टी जैकब मोहन हिन्दू में लिखते हैं कि मुजफ्फरपुर के इलाके में फैली बीमारी इनसोफैलोपथी है। इनसोफैलोपथी और इन्सेफेलाइटिस में अंतर होता है। इन्सेफेलाइटिस एक तरह की वायरल बीमारी है जबकि इनसोफैलोपथी एक तरह की बायोकेमिकल बीमारी है। बायोकेमिकल बीमारी का मतलब है  कि अगर शरीर के जैविक रसायनिक के असुंतलन को ठीक कर दिया जाए तो बीमारी से बचा जा सकता है। इसलिए इनसोफैलोपथी की रोकथाम की जा सकती है लेकिन इन्सेफेलाइटिस का इलाज कम है।  
टी जैकब मोहन और अरुण शाह की टीम ने पाया कि इस बीमारी से मरने वाले बच्चों के रक्त में ग्लूकोज की मात्रा कम थी। यानी सही समय पर ग्लूकोज की मात्रा शरीर में उपलब्ध करवा दी जाती तो इस बीमारी से जान बचाया जा सकता था। इस बीमारी से सबसे अधिक गरीब घर के बच्चों की मौत हुई। उन बच्चों की मौत, जो सही पोषण न मिलने की वजह से कुपोषित थे। उनमें भी सबसे अधिक उन बच्चों की मौत जिनका परिवार लीची के व्यापार से जुड़ा था। इस तथ्य पर टी जैकब मोहन और अरुण शाह ने यह निष्कर्ष निकाला कि मुजफ्फरपुर का इलाका लीची के बागानों का इलाका है। जमीन से चुनकर लीची इकठ्ठा करने वाले लोग सुबह के तकरीबन 4 से 7 बजे इस काम को निपटाते हैं। इनके साथ इनके बच्चे भी जाते हैं। गरीब बच्चे पहले से ही कुपोषित होते हैं। अगर बिन खाना खाये सो गए तो उनकी स्थिति और अधिक कमजोर हो जाती है। उनके शरीर में ग्लुकोज की मात्रा कम रहती है। जैसे ही लीची चुनते समय वह लीची खा  लेते हैं  तो लीची  में मौजूद रसायन की वजह से ग्लूकोज की मात्रा और अधिक कम हो जाती है। दिमाग को ग्लुकोज से एनर्जी मिलती है। ग्लूकोज  की कमी की वजह से दिमाग काम करना बंद कर देता है। उल्टियां आती हैं, शरीर सुन्न पड़ जाता है और कुछ दिनों के भीतर मौत हो जाती है। 
इस पूरी जानकारी से यह साफ़ है कि अप्रैल और जून महीने में अगर बच्चों के खाने को लेकर जागरूकता फैला दी जाए तो बहुत बड़ी संख्या में इन मौतों को रोका जा सकता है। दिशानिर्देश के मुताबिक यह जिम्मेदारी आंगनवाड़ी और आशा कामगारों को सौंपा गया था कि लोगों के बीच यह बात फ़ैलाने के काम करे कि कोई बच्चा खाली पेट न सोए और अगर दिन में भी भूखा रहा हो तो शाम को दूध पीकर सोए। इन सब दिशानिर्देशों को अपनाकर इस बीमारी से होने वाली मौतों में कमी लायी गयी थी। लेकिन इस बार सभी आशा और आंगनवाड़ी कामगारों को लोकसभा चुनाव में इलेक्ट्रोल रॉल की जाँच-परख करने के काम में लगा दिया गया। और सैकड़ों बच्चों को मरने के लिए छोड़ दिया गया।  
यह पूरी तरह से प्रशासनिक लापरवाही है। इसकी जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं बनती उस नौकरशाही आलाकमान की भी बनती है, जो इन इलाकों में काम करती है। और इलाके के मिजाज को पूरी तरह से जानती है। प्रशासनिक आलाकमान को सरकार से भीड़ जाना चाहिए था।  
डॉक्टर टी जैकब मोहन और अरुण  शाह की टीम यह भी कहती है कि अगर जल्दी से बच्चों को हॉस्पिटल में भर्ती कर सही समय पर ग्लूकोज देते रहा जाए तो जान बचायी जा सकती है। लेकिन न ही जल्दी से बच्चों की भर्ती हॉस्पिटल में हो पाती है और भर्ती हो जाने के बाद न ही सही समय पर ग्लूकोज देने के काम को ठीक से निभाया जाता है। क्योंकि हॉस्पिटलों की संख्या कम है, जो हैं उनकी सुविधाएँ और व्यवस्थाएं इतनी कमजोर हैं कि उनके मान का नहीं कि वह मुश्किल की घड़ी में कारगर साबित हो पाए। इस तरह से यह पूरी तरह से स्वास्थ्य से जुड़े अवसंरचना के कमजोर होने से जुड़ा मामला है। इसकी सीधी जिम्मेदारी सरकारों की बनती है। उन सरकारों की जिनके लिए बीमारी मुद्दा होना चाहिए लेकिन बीमारी कोई मुद्दा नहीं होता। 
बिहार में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में छोटे कद वाले बच्चे तकरीबन 48 फीसदी हैं, जबकि इस मामलें में पूरे भारत का औसत 48 फीसदी है। कम वजनी बच्चे तकरीबन 44 फीसदी है जबकि पूरे भारत का औसत 39 फीसदी है। यह स्थिति है, जिसे मुजफ्फरपुर का इंसेफ्लाइटिस  आसानी से लील सकता है। और हम बस दुःख जताने के सिवाय कुछ भी नहीं कर सकते। मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौत से जुड़ा हर सिरा यह साबित करता है कि स्वास्थ्य के मसले पर हमारे सिस्टम का पूरी तरह से कबाड़ा निकल चुका है।