NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
बिना रोज़गार और आमदनी के ज़िंदा रहने को मजबूर कई परिवार
नवीनतम सीएमआईई आंकड़ों से पता चलता है कि काम करने वाले दो सदस्यों वाले परिवारों की हिस्सेदारी में भारी गिरावट आई है। इसका मतलब है कि लोग बहुत कम आय पर जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
सुबोध वर्मा
03 Jan 2022
Translated by महेश कुमार
UNEMPLOYMENT

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) द्वारा किए गए आवधिक नमूना सर्वेक्षणों में एकत्र किए गए नवीनतम आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि परिवार में दो कामकाजी सदस्यों की हिस्सेदारी जनवरी 2016 में लगभग 37 फीसदी से घटकर नवंबर 2021 में 24 फीसदी हो गई है। इसके साथ ही, इसी अवधि के दौरान केवल एक कमाने वाले सदस्य वाले परिवारों की संख्या 57 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 68 प्रतिशत से अधिक हो गई है। [नीचे दिया ग्राफ देखें]

इस बीच, वे परिवार जिनमें एक भी सदस्य काम नहीं करता है इन पांच वर्षों में उनकी संख्या  6 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 8 प्रतिशत हो गई है। यदि तीनों प्रवृत्तियों या वास्तविकताओं को एक साथ रखें तो वास्तव में, एक हताश माहौल और आर्थिक संकट का पता चलता है जो भारत के आम कामकाजी लोगों को सता रहा है।

यह आर्थिक संकट कितना तीव्र है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सीएमआईई के सर्वेक्षणों से पता चलता है कि जून 2021 में भारत में औसत आय महज 15,000 रुपये थी। यह कमाई का सबसे निम्न स्तर है, और उस पर बढ़ता कर्ज़, खत्म होती बचत ने परिवारों को ज़िंदगी के पायदान पर नीचे की ओर धकेल दिया है। 

चुनावी प्रचार में व्यस्त और हिंदू राष्ट्र के निर्माण की उम्मीद रखने वाली नरेंद्र मोदी सरकार के पास इस संकट का कोई समाधान नहीं है। वास्तव में, प्रधानमंत्री जो कभी, हर जगह, हर सभा में नौकरी का वादा किया करते थे, अब शायद ही कभी इसका जिक्र करते हिन। 

गिरती कार्य भागीदारी दर के मुख्य कारण 

एक स्पष्ट तथ्य तो यह है कि प्रति परिवार रोज़गारशुदा लोगों की संख्या गिर रही है, शायद यही कारण है कि भारत गिरती कार्य भागीदारी दर (डब्ल्यूपीआर) के विरोधाभास का सामना कर रहा है, यानी काम करने वाले लोगों का हिस्सा और बिना रोज़गार के लोगों का हिस्सा लेकिन काम करने के इच्छुक लोगों का हिस्सा। नवंबर 2021 में, भारत की कार्य भागीदारी दर (डब्ल्यूपीआर) जनवरी 2016 में 44.9 प्रतिशत की तुलना में 40.2 प्रतिशत थी। वर्तमान में, भारत की कार्य भागीदारी दर (डब्ल्यूपीआर) दुनिया में सबसे कम है। विश्व बैंक के अनुसार, पूरी दुनिया में यह  औसत यानि कार्य भागीदारी दर (डब्ल्यूपीआर) लगभग 58.7 प्रतिशत है।

वास्तविकता यह भी है कि बेरोज़गारी दर इस कठोर वास्तविकता को पर्याप्त रूप से प्रतिबिंबित भी नहीं कर रही है क्योंकि यह केवल उन लोगों को ट्रैक करती है जो काम करने के इच्छुक हैं उन्हे नहीं जो काम मिलने की उम्मीद खो चुके हैं। इसके बावजूद, भारत की बेरोज़गारी दर तीन वर्षों से 7 प्रतिशत के आसपास मँडरा रही है, जो कि पिछले औसत 5-6 प्रतिशत से अधिक है। [नीचे दिया ग्राफ देखें]

स्पष्ट रूप से, कामकाजी उम्र की आबादी का एक बड़ा तबका नौकरियों की अनुपलब्धता से बहुत निराश और हताश है और पूरी तरह से कार्यबल से बाहर हो गया है। सीएमआईई के विश्लेषण के अनुसार, यह दो कामकाजी सदस्य परिवारों में भारी गिरावट में परिलक्षित होता है।

कृषि अधिकांश लोगों को काम दे रही है 

ग्रामीण क्षेत्रों में कामकाजी उम्र की आबादी की बढ़ती आबादी का अधिकांश हिस्सा स्वेच्छा से कृषि में अत्यधिक बोझ के कारण काम कर रहा है। चूंकि कृषि आय समान रूप से नहीं बढ़ रही है, इसका मतलब है कि अधिक लोग खेती और संबंधित गतिविधियों से होने वाली आय को आपस में साझा कर रहे हैं।

बड़े पैमाने पर शहरी औद्योगिक और सेवा क्षेत्र में नौकरियों की कमी के कारण बड़ी संख्या में लोग शहर में रोज़गार के लिए प्रवास के विकल्प से हतोत्साहित हुए हैं। यही कारण है कि मार्च 2020 में पहली बार लॉकडाउन की घोषणा के समय घर वापस लौटने वाले प्रवासियों का एक बड़ा हिस्सा आज भी शहरों में अपनी नौकरी पर नहीं लौटा पाया है।

ये लोग या तो कृषि में रोज़गार को साझा कर रहे हैं या ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम (मनरेगा) के तहत मिल रहे कुछ दिनों के काम को कर रहे हैं, जैसा कि इस लोकप्रिय योजना में बढ़ती विस्फोटक संख्या ने दिखाया गया है। 2017-18 में, लगभग 7.6 करोड़ लोगों को मनरेगा में कुछ काम मिला, जो 2020-21 में बढ़कर 11.9 करोड़ हो गया और 2021-22 में दिसंबर के अंत तक यह 9.34 करोड़ तक पहुंच गया था, जबकि अभी वित्तीय वर्ष समाप्त होने में तीन महीने बाकी हैं। .

लेकिन, कम वेतन, भुगतान में देरी और रुक-रुक कर काम मिलने की प्रकृति ने इस कार्यक्रम को भी बुरे ढंग से प्रभावित किया है। 2020-21 में काम किए गए दिनों की औसत संख्या 52 थी, जबकि क़ानूनी जरूरत के मुताबिक इसे न्यूनतम 100-दिनों का काम होना चाहिए था। 2020-21 में औसत वेतन महज 200.7 रुपये था, जो चालू वर्ष में बढ़कर 209.4 रुपये हो गया है।

इस गहरे और हताश आर्थिक संकट का पैमाना यही है कि परिवार इन कठिन और बर्बर परिस्थितियों में काम करना जारी रखे हुए हैं, यहां तक ​​कि देश को तबाह करने वाली कोविड  महामारी भी जारी है।

रोज़गारहिन परिवारों की संख्या में इजाफ़ा जारी 

जैसा कि पहले ग्राफ में दिखाया गया है, सबसे निचले स्तर के परिवार यानि जिनके पास कोई रोज़गार नहीं है उनकी संख्या 6.3 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 8 प्रतिशत हो गई है। वास्तव में, सीएमआईई विश्लेषण के अनुसार, 2020 में, जोकि लॉकडाउन का वर्ष था, यह हिस्सा बढ़कर 11.5 प्रतिशत हो गया था। अप्रैल 2020 में, गंभीर लॉकडाउन के दौरान पूरे महीने यह अनुपात अकल्पनीय 33 प्रतिशत पर था।

ज़ाहिर है, ये वे परिवार हैं जो सबसे कमज़ोर हैं और इन्हे सरकार से सक्रिय और तत्काल समर्थन की अत्यधिक जरूरत है। जबकि मुफ़्त अतिरिक्त राशन के वितरण (जिसे अब मार्च 2022 तक बढ़ा दिया गया है) ने महामारी से संबंधित आर्थिक मंदी से बचने में मदद जरूर की होगी, लेकिन परिवारों को सिर्फ खाद्यान्न की जरूरत नहीं है। कई अन्य खर्च भी होते हैं – जैसे कि बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, कपड़े, ईंधन, आदि - की जरूरत। लेकिन नौकरियों के संकट की वजह से ये जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं। 

क्या इसका कोई राजनीतिक नतीजा निकलेगा?

हाल के वर्षों में, आर्थिक संकट, विशेषकर नौकरियों के संकट से निपटने में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की पूर्ण विफलता, ने जनता को इसके खिलाफ खड़ा कर दिया है। हाल के विधानसभा चुनावों में, लोगों के दिमाग में सबसे प्रमुख मुद्दा नौकरी यानि रोज़गार बताया गया था। धार्मिक ध्रुवीकरण के ज़रिए सामाजिक अशांति पैदा करने के उनके सभी प्रयासों के बावजूद, भाजपा के समर्थन में स्पष्ट रूप से कमी आई है।

और, जैसे-जैसे समय बीत रहा है, यह असंतोष बढ़ता जा रहा है। यह असंतोष साल भर चले किसान आंदोलन, मजदूरों और कर्मचारियों के आंदोलन और संघर्षों में परिलक्षित हुआ, जो पिछले कुछ वर्षों से लगातार जारी है। ज़िंदगी इतनी कठिन हो गई है कि लोग अपना अर्जित वेतन पाने के लिए, या मामूली लाभों को संरक्षित करने के लिए भी कड़ा संघर्ष कर रहे हैं। मूल्य वृद्धि यानि महंगाई बेलगाम है और पहले से ही कम कमाई को भी लूट रही है। इसलिए, इस बात की  संभावना अधिक है कि मोदी (और उनकी पार्टी) से हुए मोहभंग की गूंज़ - जिन्होंने हर साल दो करोड़ नौकरियों का वादा किया था, आगामी विधानसभा चुनावों में सुनाई देगी। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

More Families Pushed to Surviving Without Jobs

Jobs Crisis
unemployment
CMIE
Assembly elections
Modi Promise
Work Participation Rate
Non-Job families

Related Stories

डरावना आर्थिक संकट: न तो ख़रीदने की ताक़त, न कोई नौकरी, और उस पर बढ़ती कीमतें

उत्तर प्रदेश: "सरकार हमें नियुक्ति दे या मुक्ति दे"  इच्छामृत्यु की माँग करते हजारों बेरोजगार युवा

मोदी@8: भाजपा की 'कल्याण' और 'सेवा' की बात

UPSI भर्ती: 15-15 लाख में दरोगा बनने की स्कीम का ऐसे हो गया पर्दाफ़ाश

मोदी के आठ साल: सांप्रदायिक नफ़रत और हिंसा पर क्यों नहीं टूटती चुप्पी?

जन-संगठनों और नागरिक समाज का उभरता प्रतिरोध लोकतन्त्र के लिये शुभ है

ज्ञानव्यापी- क़ुतुब में उलझा भारत कब राह पर आएगा ?

वाम दलों का महंगाई और बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ कल से 31 मई तक देशव्यापी आंदोलन का आह्वान

सारे सुख़न हमारे : भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी की शायरी

लोगों की बदहाली को दबाने का हथियार मंदिर-मस्जिद मुद्दा


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License