NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
नागोर्नो-काराबाख को क्षेत्रीय समाधान की ज़रूरत है
इस संकट से रूसी नीतियों के कुछ विरोधाभास भी सामने आए हैं। एक तरफ़ रूस तुर्की से दोस्ती करता है, तो दूसरी रूस को तुर्की की क्षेत्रीय शक्ति बनने की महत्वकांक्षाएं पसंद नहीं हैं।
एम. के. भद्रकुमार
20 Oct 2020
नागोर्नो-काराबाख को क्षेत्रीय समाधान की ज़रूरत है

हाल के सालों में पश्चिमी मीडिया ने तुर्की और उसके राष्ट्रपति रेसेप एर्दोगन को जमकर नकारात्मक तरीके से दिखाया है। ऐसा लगता है जैसे तुर्की अपने चारों तरफ विवादों में उलझा पड़ा है। ग्रीस और साइप्रस के साथ समुद्री सीमा का विवाद, उत्तरी सीरिया में कब्ज़ा, लीबिया में हस्तक्षेप, हमास और मुस्लिम ब्रदरहुड का समर्थन, कट्टरपंथी मुस्लिम समूहों को प्रायोजित करना इन्हीं विवादों के उदाहरण है।

इन सबके पीछे की वज़ह एर्दोगन की "नव-उस्मानिया (नियो-ऑटोमन) महत्वकांक्षा" बताई जा रही है, जिसके तहत वह तुर्की को एक बार फिर साम्राज्यवादी ताकत बनाना चाहते हैं। लेकिन करीब से देखने पर पता चलता है कि इन सभी विवादों में एक साझा चीज मौजूद है। वह है, शीत युद्ध के बाद तुर्की का क्षेत्रीय शक्ति के तौर पर उभार। जैसे-जैसे अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में बहुपक्षीय धुरियां बढ़ेंगी, वैसे-वैसे बहुत सारे देश तुर्की की तरह बर्ताव करना शुरू कर देंगे। इस दौरान वे स्वतंत्र विदेश नीति पर चलने के नए मौके ढूंढेंगे।

इन नए बर्ताव को "नव-उस्मानिया" महत्वकांक्षा बताना भूराजनीतिक वास्तविकता से मुंह चुराना है, क्योंकि एर्दोगन मजबूती से एक कठिन क्षेत्र में तुर्की के लिए आगे का रास्ता बना रहे हैं। इससे इन्हीं महत्वकांक्षाओं वाली दूसरी क्षेत्रीय ताकतों को दिक्कत तो होगी। इसलिए इज़रायल, ग्रीस, यूएई, सऊदी अरब तुर्की के खिलाफ़ एक साथ आए हैं। इस गठबंधन को अमेरिका का समर्थन भी हासिल है।

पिछले कुछ दिनों में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर लेनिन और एर्दोगन के बीच दूरियां भी बढ़ीं हैं। सीरिया और लीबिया पर दोनों देशों के अलग रुझान किसी से छुपे नहीं हैं। लेकिन इसने कभी एर्दोगन और पुतिन को एक साथ काम करने से नहीं रोका। इसलिए यह बेहद आश्चर्यजनक है कि नागोर्नो-काराबाख में विवाद ने रूस और तुर्की के बीच खाई को इतना ज़्यादा बढ़ा दिया है।

विदेश मंत्री सर्जी लेवरॉव ने साफ़ किया है कि मॉस्को, तुर्की को 'करीबी साझेदार' तक ही सीमित रखता है, ना कि दोनों "रणनीतिक साझेदार" हैं। रूस की गुप्तचर एजेंसी के मुखिया सर्जी नारीशकिन ने भी बिना सबूतों के तुर्की पर आरोप लगाते हुए कहा कि तुर्की जिहादी समूहों को काकेशस भेज रहा है! स्पष्ट है कि रूस के अधिकारी पश्चिमी प्रचार का पालन कर रहे हैं और तुर्की व अमेरिका के बीच तनावपूर्ण संबंधों का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं।

नागोर्नो-काराबाख के मामले पर पुतिन ने कभी एर्दोगन से बात नहीं की। जबकि पुतिन ने इस मुद्दे पर ट्रंप, मैक्रों और रूहानी समेत कई नेताओं के साथ-साथ अजरबैजान और आर्मेनिया के नेतृत्व से विस्तार से बात की है। वह भी एक बार नहीं, कई बार।

इस बीच पश्चिमी मीडिया ने "तुर्की धोखे" का एक प्रोपगेंडा खड़ा कर दिया। जिसमें कहा जा रहा है कि तुर्की साजिशन रूस को ट्रांसकाकेशिया से बाहर करने की कोशिश कर रहा है। बिलकुल, तुर्की अजरबैजान को हथियार बेच रहा है, तो रूस और इज़रायल भी ऐसा ही कर रहे हैं। रूस भी आर्मेनियाई सशस्त्र बलों को हथियार दे रहा है।

एर्दोगन ने पिछले कुछ सालों में अजरबैजान के साथ, दोनों देशों की तुर्क पहचान के आधार पर रणनीतिक साझेदारी का निर्माण किया है। लेकिन यह कहना पूरी तरह अलग बात है कि एर्दोगन रूस के खिलाफ़ साजिश रच रहे हैं या वे काकेशस में जिहादी वायरस पहुंचा रहे हैं।

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने यह बात छेड़ी थी कि तुर्की सीरिया से काकेशस में इस्लामिक लड़ाके भेज रहा है। लेकिन उनका एर्दोगन के साथ पुराना विवाद है। पर यह बेहद बेतुका आरोप है। अजरबैजान के राष्ट्रपति अलियेव "जिहादियों" से घृणा करते हैं।

किसी तरह एर्दोगन ने रूस के साथ ठंडे संबंधों को गर्मी देने की कोशिश की और 14 अक्टूबर को पुतिन को फोन लगाया। क्रेमलिन ने इस बातचीत पर जो दस्तावेज़ जारी किया, उससे भी सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलती दिखाई देती है। दस्तावेज़ में सिर्फ एक ही विपरीत बात कही गई थी, जिसमें कहा गया कि पुतिन ने "सैन्य कार्रवाई में मध्य-पूर्व के लड़ाकों के शामिल होने पर गंभीर चिंताई जताई।" (तुर्की के दस्तावेज़ ने पुतिन के आरोपों को नज़रंदाज किया।

अलियेव ने यह भी बताया है कि तुर्की की योजना उनके देश में एक सैन्यअड्डा बनाने की है। उन्होंने कहा, "तुर्की और हमारे बीच बड़ा कानूनी ढांचा तैयार हुआ है। हमारे कई क्षेत्रों में समझौते हुए हैं, जिसमें सैन्य क्षेत्र में सहयोग और आपसी मदद भी शामिल है। यह हमारा अधिकार है। तुर्की हमारा मित्र है और अगर अजरबैजान को गंभीर ख़तरा है, तो हम इनका इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन अजरबैजान में तुर्की के सैन्यअड्डा स्थापित करने पर कोई चर्चा नहीं हुई है।" यह टिप्पणी मॉस्को के मन में किसी तरह की शंका को दूर करने के लिए जोड़ी गई होगी।

बल्कि नागोर्नो-काराबाख से रूसी नीतियों में कुछ विरोधाभास उभरकर सामने आए हैं। एक तरफ रूस तुर्की का मित्र बनता है, तो दूसरी तरफ वह तुर्की के क्षेत्रीय शक्ति बनने की महत्वकांक्षाओं को नापसंद करता है।

रूस सीरिया में अपने वैध हित होने का दावा करता है, वहीं उसे तेल से भरपूर अजरबैजान में तुर्की के बढ़ते प्रभाव से दिक्कत है। अजरबैजान कैस्पियन तटीय राज्य है, जिसे रूस अपने प्रभाव में रखना चाहता है!

रूस को तुर्की की नाटो और यूरोपियन संघ के साथ तनातनी से फायदा होगा। लेकिन वह तुर्की से बराबरी का व्यवहार नहीं करता। रूस बहुपक्षता का हिमायती बनता है, लेकिन अपने पड़ोस में कुछ दूर स्थित क्षेत्र पर अपने प्रभाव का दावा करता है। इस तरह का मौकापरस्त व्यवहार बर्दाश्त के काबिल नहीं है।

नागोर्नो-काराबाख का समाधान तभी हो सकता है जब आर्मेनिया और अजरबैजान के लोगों को शांति कायम करने के हित में, इस बात के लिए राजी कर लिया जाए कि जिस क्षेत्र पर कब्ज़ा किया गया है, उसे अजरबैजान को वापस सौंप दिया जाए। तुर्की इस मामले में बिलकुल सही है, शायद कुछ विशेष दर्जे के साथ ऐसा करने से दोनों देशों के बीच शांति कायम हो जाए।

इसका मतलब होगा कि रूस को आर्मेनिया में अपना सैन्य अड्डा छोड़ना होगा, जिससे उसे कुछ परेशानी होगी। स्पष्ट है कि मिंस्क समूह को स्थिति को स्थिर बनाए रखने के लिए बनाया गया था। बिलकुल वैसे ही जैसा मध्यपूर्व में किया गया। लेकिन यहां यह रूस का चुनाव है। मिंस्क समूह के सभी तीनों सदस्य अपनी साख गंवा चुके हैं।

मिंस्क समूह को 1990 के दशक में बनाया गया था, तब बोरिस येल्तसिन, अमेरिका के करीब आ रहे थे। पिछले तीन दशकों में अतंरराष्ट्रीय स्थिति बेहद तेजी से बदल चुकी है। आज जब चीजें बड़े शक्ति संबधों में बदल चुकी हैं, तब मिंस्क समूह तय करता है कि नागोर्नो-काराबाख संकट तेजी से भूराजनीतिक धक्का-मुक्की में बदल जाए। क्या हम पहले ही इस तरह की धक्का-मुक्की नहीं देख चुके हैं?

समाधान के लिए एकमात्र रास्ता "अष्टाना फॉर्मेट" ही दिखाई पड़ता है, जिसमें रूस, तुर्की और ईरान सीरिया के मुद्दे पर सौहार्द्र बनाने की बात है, ताकि तीनों देश आगे मजबूती के साथ चल सकें। तेहरान ने इसी तरह का प्रस्ताव नागोर्नो-काराबाख का मुद्दा हल करने के लिए सुझाया है, समाधान के तहत यह स्थिति बनाई रखी गई है कि इस तरह के विवादों को क्षेत्रीय राज्यों द्वारा हल किया जाना चाहिए।

लेकिन पुतिन को ट्रंप और मैक्रों का साथ पसंद है, वह अच्छी तरह अमेरिका और फ्रांस की एर्दोगन के प्रति नफ़रत को पहचानते हैं। शायद पुतिन वह सब कुछ कर रहे हैं, जिससे ट्रंप को फिर से चुनाव जीतने में मदद मिले? ( अमेरिकी राजनीति में आर्मेनियन लॉबी प्रभावी है।) लेकिन एर्दोगन नीचे नहीं झुकेंगे।

हाल में S-400 ABM सिस्टम की टेस्टिंग को देखें, तो पता चलता है कि एर्दोगन, ट्रंप के सामने भी खड़े रह सकते हैं। तो समझा जा सकता है कि एर्दोगन रूसी दबाव बनाने वाली चालों को भी नाकाम कर सकते हैं। बल्कि वह ऐसा ही करेंगे। उस क्षेत्र में तुर्की के पास दोस्तों की कमी है, लेकिन रूस के पास तो और भी कम दोस्त हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें। 

Nagorno-Karabakh Needs Regional Solution

Turkey
Recep Erdogan
Nagorno-Karabakh
Neo-Ottoman
vladimir putin
western media
United States

Related Stories

बाइडेन ने यूक्रेन पर अपने नैरेटिव में किया बदलाव

डोनबास में हार के बाद अमेरिकी कहानी ज़िंदा नहीं रहेगी 

नाटो देशों ने यूक्रेन को और हथियारों की आपूर्ति के लिए कसी कमर

यूक्रेन में छिड़े युद्ध और रूस पर लगे प्रतिबंध का मूल्यांकन

यमन में ईरान समर्थित हूती विजेता

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने रूस को शीर्ष मानवाधिकार संस्था से निलंबित किया

बुका हमले के बावजूद रशिया-यूक्रेन के बीच समझौते जारी

रूस-यूक्रेन अपडेट:जेलेंस्की के तेवर नरम, बातचीत में ‘विलंब किए बिना’ शांति की बात

रूस-यूक्रेन युद्धः क्या चल रहा बाइडन व पुतिन के दिमाग़ में

यूक्रेन-रूस युद्ध का संदर्भ और उसके मायने


बाकी खबरें

  • itihas ke panne
    न्यूज़क्लिक टीम
    मलियाना नरसंहार के 35 साल, क्या मिल पाया पीड़ितों को इंसाफ?
    22 May 2022
    न्यूज़क्लिक की इस ख़ास पेशकश में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने पत्रकार और मेरठ दंगो को करीब से देख चुके कुर्बान अली से बात की | 35 साल पहले उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हुए बर्बर मलियाना-…
  • Modi
    अनिल जैन
    ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी और शी जिनपिंग के “निज़ी” रिश्तों से लेकर विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने तक
    22 May 2022
    हर बार की तरह इस हफ़्ते भी, इस सप्ताह की ज़रूरी ख़बरों को लेकर आए हैं लेखक अनिल जैन..
  • न्यूज़क्लिक डेस्क
    इतवार की कविता : 'कल शब मौसम की पहली बारिश थी...'
    22 May 2022
    बदलते मौसम को उर्दू शायरी में कई तरीक़ों से ढाला गया है, ये मौसम कभी दोस्त है तो कभी दुश्मन। बदलते मौसम के बीच पढ़िये परवीन शाकिर की एक नज़्म और इदरीस बाबर की एक ग़ज़ल।
  • diwakar
    अनिल अंशुमन
    बिहार : जन संघर्षों से जुड़े कलाकार राकेश दिवाकर की आकस्मिक मौत से सांस्कृतिक धारा को बड़ा झटका
    22 May 2022
    बिहार के चर्चित क्रन्तिकारी किसान आन्दोलन की धरती कही जानेवाली भोजपुर की धरती से जुड़े आरा के युवा जन संस्कृतिकर्मी व आला दर्जे के प्रयोगधर्मी चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर को एक जीवंत मिसाल माना जा…
  • उपेंद्र स्वामी
    ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री
    22 May 2022
    ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License