NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
दो टूक: मोदी जी, आप ग़लत हैं! अधिकारों की लड़ाई से देश कमज़ोर नहीं बल्कि मज़बूत बनता है
75 वर्षों में हम सिर्फ़ अधिकारों की बात करते रहे हैं। अधिकारों के लिए झगड़ते रहे, जूझते रहे, समय भी खपाते रहे। सिर्फ़ अधिकारों की बात करने की वजह से समाज में बहुत बड़ी खाई पैदा हुई है: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
अजय कुमार
23 Jan 2022
pm

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक हालिया वक्तव्य पढ़िए - "75 वर्षों में हम सिर्फ अधिकारों की बात करते रहे हैं। अधिकारों के लिए झगड़ते रहे, जूझते रहे, समय भी खपाते रहे। सिर्फ अधिकारों की बात करने की वजह से समाज में बहुत बड़ी खाई पैदा हुई है।"

यह बात अगर किसी चुनावी रैली का हिस्सा होती तो नजरअंदाज की जा सकती थी। यह बात अगर संदर्भ से कटी हुई होती।  अपने आप में मुकम्मल ना होती तो नजरअंदाज की जा सकती थी। यह बात अगर राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप की शैली में होती तो नजरअंदाज की जा सकती थी। यह बात अगर नरेंद्र मोदी कहते तब भी नजरअंदाज की का सकती थी।

लेकिन यह बात भारत के प्रधानमंत्री की तरफ से की गई है। भारत के सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति की तरफ से की गई है। यह बात पूरी गंभीरता के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'आजादी के अमृत महोत्सव से स्वर्णिम भारत की ओर' कार्यक्रम के शुभारंभ के दौरान कही है। इस बात की प्रकृति ऐसी है कि यह भारत के प्रधानमंत्री के पद पर बैठे नरेंद्र मोदी की संविधान विरोधी सोच और इरादे को अभिव्यक्त करती है।

नरेंद्र मोदी की सोच और जीवन चिंतन यह कि अधिकारों की वकालत करने और अधिकारों के लिए लड़ने से देश कमजोर बनता है, देश पिछड़ता है। यही नरेंद्र मोदी के वक्तव्य की सबसे बड़ी कमी है। यह कमी कोई ऐसी वैसी नहीं है कि इसे नजरअंदाज कर दिया जाए।

ऐसी सोच और अभिव्यक्ति की इजाजत प्रधानमंत्री के पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति को भारत का संविधान नहीं देता है। संविधान कोई ऐसा दस्तावेज नहीं है जिसमें गांधी, मार्क्स और सावरकर की बातें लिखी हैं, जिसे अपने पसंद और नापसंद के आधार पर प्रधानमंत्री के पद पर बैठा कोई व्यक्ति खारिज कर दे। संविधान वह दस्तावेज है जिसके मुताबिक देश का राज काज़ का चलता है। देश की दिशा तय होती है। जिसे मानना भारत के प्रधानमंत्री के पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति का सबसे बड़ा कर्तव्य है।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 13 से लेकर 32 तक की भाषा पढ़िए। इन सभी अनुच्छेदों में मूल अधिकारों का प्रावधान है। हर एक प्रावधान की भाषा ऐसी है, जहां राज्य की सीमा तय की जा रही है। राज्य के वैसे कामकाज करने पर रोक लगाई जा रही है, जिससे व्यक्तियों के अधिकारों पर चोट पहुंचे।

उदाहरण के तौर पर अनुच्छेद 14 की भाषा देखिए। अनुच्छेद 14 - "राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।"  भाषा के इसी अंदाज में सारे मूल अधिकार के प्रावधान को लिखा गया है। मूल अधिकार को संविधान में दर्ज करने का मकसद यही था कि राज्य की भूमिका में मौजूद सरकार अपने पास मौजूद शक्तियों का ऐसा इस्तेमाल ना करने लगे कि नागरिकों का अधिकार ही खत्म हो जाए।

संविधान में मूल अधिकार के तमाम प्रावधान होने के बाद भी भारत के 75 साल के इतिहास में सरकारों ने सबसे अधिक हमला व्यक्तियों के मूल अधिकारों पर ही किया है। सुप्रीम कोर्ट में सबसे अधिक बहसें मूल अधिकार को लेकर हुई है। 75 साल का इतिहास उठाकर देख लीजिए। भारत के लोकतंत्र में नागरिकों को कुछ भी आसानी से नहीं मिला है। उन्हें इन्हीं मूल अधिकारों का इस्तेमाल करके लड़ना पड़ा है।

भारत की तकरीबन 80 फ़ीसदी आबादी जो वंचित जातियों के अंतर्गत आती है, उसके लिए संविधान का अनुच्छेद 14 यानी समानता के अधिकार का महत्व दुनिया के किसी भी महत्वपूर्ण विषय से ज्यादा है। यही तर्क स्वतंत्रता के अधिकार से लेकर गरिमा पूर्ण जीवन जीने तक के अधिकार पर लागू होता है। जहां पर संविधान यह कहता है कि राज्य ऐसा कोई काम नहीं करेगा जिससे गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार और स्वतंत्रता के अधिकार पर हमला हो।

पिछले 75 साल में लड़ी गई नाइंसाफी की हर एक लड़ाई की जुबान में आवाज भारत के संविधान में लिखें मूल अधिकार से मिली है। आज भी मूल अधिकार कश्मीर में लड़ रहे किसी नौजवान से लेकर बेरोजगारी में तड़प रहे किसी उत्तर भारत के नौजवान का सबसे बड़ा हथियार है। वह इन्हीं मूल अधिकारों की बदौलत अपनी जिंदगी की बेहतरी की लड़ाई लड़ पाता है।

अधिकारों की लड़ाई लड़ने पर ही हक मिलने पर ही भारत जैसे भेदभाव मूलक समाज में कोई व्यक्ति बेहतरी का रास्ता तय कर पाता है। जब व्यक्ति बेहतर होता है तब वैसे व्यक्तियों से मिलकर बना देश कमजोर नहीं बनता बल्कि मजबूत बनता है।

कहने का मतलब यह कि पिछले 75 सालों में अधिकारों की वकालत और अधिकारों की लड़ाई ने देश को कमजोर करने का काम नहीं किया है। बल्कि देश में जो कुछ भी मजबूती से मौजूद है। वह इन अधिकारों की वकालत और लड़ाई की वजह से ही है। प्रधानमंत्री इन अधिकारों की लड़ाई को देश को कमजोर बनाने का जतन बता कर भारत के अब तक की यात्रा की बहुत गलत व्याख्या कर रहे हैं।

संविधान में व्यक्तियों के अधिकार के महत्व को जानने वाले डॉक्टर अंबेडकर ने कहा था कि अगर कोई मुझसे पूछता है कि संविधान का सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद कौन सा है? तो मैं अनुच्छेद 32 का नाम लूंगा। अनुच्छेद 32 को अगर संविधान से बाहर निकाल दिया जाए तो संविधान अर्थहीन हो जाएगा। अनुच्छेद 32 संविधान की आत्मा है। संविधान का हृदय है। अब आप पूछेंगे कि अनुच्छेद 32 में क्या कहा गया था? अनुच्छेद 32 में उन तरीकों का प्रावधान है जिसके जरिए भारत का कोई भी व्यक्ति मूल अधिकारों के हनन होने पर सरकार से अपने मूल अधिकारों की वसूली के लिए न्यायिक लड़ाई लड़ सकता है।

इस लिहाज से देखा जाए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अधिकारों की लड़ाई को देश की अब तक की यात्रा में कमजोरी के तरह पर मानना उनकी संविधान विरोधी सोच को दिखाता है। नरेंद्र मोदी कोई ऐसी व्यक्ति नहीं है जिन्हें प्रधानमंत्री का पद रातो - रात मिल गया हो। अचानक मिल गया हो। प्रधानमंत्री का पद हासिल करने के लिए उनकी एक लंबी यात्रा रही है। एक लंबा जीवन रहा है।

यह पूरा जीवन जीने के बाद भी अगर प्रधानमंत्री अधिकारों के महत्व को नहीं समझ रहे तो इसका मतलब यह भी है कि वह अपनी सोच में ऐसे व्यक्ति नहीं है जो नागरिक अधिकारों की परवाह करता हो। यह मुमकिन है कि उनकी सफलता की हर एक सीढ़ी के नीचे कई तरह के नागरिक हनन की कार्यवाहियां दबी हो। उन्होंने लोगों के अधिकारों की परवाह किए बिना अपनी यात्रा तय की हो। अगर वह अधिकारों का महत्व जानते, समाज गढ़ने में उसकी भूमिका से अवगत होते तो ऐसी बात नहीं कहते कि अधिकारों की वकालत करने से समाज कमजोर होता है।

यह बात तो अधिकारों की हुई। लेकिन इसके साथ प्रधानमंत्री ने अपने वक्तव्य में कर्तव्यों को लेकर भी बात की। प्रधानमंत्री ने कहा कि आजादी के बाद के 75 वर्षों में हमारे समाज में हमारे राष्ट्र में एक बुराई सबके भीतर घर कर गई है। यह बुराई है अपने कर्तव्य से विमुख होना। अपने कर्तव्यों को सर्वोपरि ना रखना।

प्रधानमंत्री के इस बात में थोड़ी सी वजन है। प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य को उस तरह से खारिज नहीं किया जा सकता जिस तरह से उनके अधिकार वाले वक्तव्य को खारिज किया जा सकता है। लेकिन असल सवाल है कि कर्तव्य विमुख कौन हुआ है? कर्तव्य विमुख होने का ठीकरा सबसे अधिक और सबसे पहले किस पर फोड़ा जाना चाहिए? क्या इसका ठीकरा उन भोले भाले तमाम नागरिकों पर फोड़ना चाहिए जो गरीबी में जी रहे हैं। जिनकी कमाई ही इतनी कम है कि वह गुलामी की जंजीरों से जीवन भर बाहर नहीं निकल पाते। या उन पर डालना चाहिए जिनके पास किसी भी तरह का पद नहीं है। किसी भी तरह की अथॉरिटी नहीं है। किसी भी तरह की शक्ति नहीं है।

अगर कर्तव्य विमुख होने की बात आएगी तो सबसे पहले सवाल तो प्रधानमंत्री के पद पर ही उठेगा, सरकार पर उठेगा कि जनता ने अपनी भलाई के लिए सत्ता इन्हें सौंपी होती है। बहुत बड़ी आबादी की जिंदगी अंधेरे में रहेगी या रोशन होगी यह सरकार पर ही निर्भर करता है।

प्रधानमंत्री जब यह कहते हैं कि अधिकारों ने देश को कमजोर किया है तो वह प्रधानमंत्री पद के कर्तव्य से कर्तव्य विमुख हो रहे होते हैं। प्रधानमंत्री जब भीषण बेरोजगारी होने के बावजूद भी बेरोजगारी को खत्म करने के लिए किसी भी तरह का कदम उठाने की बजाय आत्म प्रलाप करते हैं तो वह कर्तव्य विमुख हो रहे होते हैं। अपने नागरिकों को रोजगार न मुहैया करवाकर उन्हें भी कर्तव्य विमुख कर रहे होते हैं।

जब प्रधानमंत्री लोगों के दुख दर्द को सुनने की बजाय अपने सलाहकारों की उचित राय को सुनने की बजाय केवल पूंजीपतियों के फायदे के लिए काम कर रहे होते हैं तब वह कर्तव्य विमुख हो रहे होते हैं। जब प्रधानमंत्री की अगुवाई में चल रही सरकार बिना संसद में वाद-विवाद, विचार-विमर्श किए ढेरों कानून पास कर देती है, तब वह कर्तव्य विमुख हो रही होती है।

जब जम्मू-कश्मीर की पूरी कौम को डरा धमका कर, बंदूक की नोक पर आर्टिकल 370 को खत्म किया जा रहा होता है तब वह कर्तव्य विमुख हो रहे होते हैं। प्रधानमंत्री की रहनुमाई में रोजाना मीडिया का गला घोंटा जाता है। देश को हिंदू-मुस्लिम नफरत में झोंका जा रहा होता है तब वह कर्तव्य में हो रहे होते हैं। ठंडा, गर्मी, बरसात सब कुछ सहने के बाद साल भर डटे रहने के बाद भी किसानों को जब मिनिमम लीगल गारंटी नहीं मिलती है तब सरकार और प्रधानमंत्री कर्तव्य विमुख से बदतर हो रहे होते हैं। जब नफरत फैलाने वालों को खुली छूट दी जाती है और शांति का काम कर रहे लोगों को जेल में भरा जाता है तब प्रधानमंत्री कर्तव्य विमुख हो रहे होते हैं। प्रधानमंत्री के कर्तव्य विमुख होने के ऐसे तमाम उदाहरण हैं कि लिखते लिखते स्याही ख़त्म हो सकती हैं।

अगर प्रधानमंत्री यह बात कह रहे हैं कि अगले 25 सालों में बिना अधिकारों की परवाह किए समर्पण के साथ काम करने पर देश को नई बुलंदियों तक ले जाया जाएगा तो वह गलत कह रहे हैं। बिना अधिकारों की बहाली किए हुए, बिना नागरिकों के दुख दर्द को सुने हुए किसी भी देश की कोई ऐसी यात्रा नहीं हो सकती चाहे मंजिल बुलंदियों को छूने वाली हो, लोक कल्याण से जुड़ी हुई हो। लोक कल्याण हासिल करने का एक ही रास्ता है कि लोगों को उनके जायज अधिकार दिए जाएं। जब जायज अधिकार मिलेंगे तभी उनके भीतर कर्तव्य बोध की उम्मीद की जा सकती। उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वह अपने कर्तव्य को पूरा करेंगे। जरा सोच कर देखिए कि जिस देश के करोड़ों नौजवान बेरोजगार हों, काम करने वाले लोगों में तकरीबन 80 फ़ीसदी लोगों की महीने की आमदनी 10 हजार के आसपास हो तो वहां के लोगों को कैसा कर्तव्य बोध होगा? वहां के लोग अपने जिंदगी की दो जून की रोटी की चिंता करेंगे या अपने कर्तव्य बोध की?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
Narendra modi
BJP
narendra modi on rights
naredra modi ideology
narendra modi on duties
Narendra Modi speech
Azadi Ka Amrit Mahotsav

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति


बाकी खबरें

  • women in politics
    तृप्ता नारंग
    पंजाब की सियासत में महिलाएं आहिस्ता-आहिस्ता अपनी जगह बना रही हैं 
    31 Jan 2022
    जानकारों का मानना है कि अगर राजनीतिक दल महिला उम्मीदवारों को टिकट भी देते हैं, तो वे अपने परिवारों और समुदायों के समर्थन की कमी के कारण पीछे हट जाती हैं।
  • Indian Economy
    प्रभात पटनायक
    बजट की पूर्व-संध्या पर अर्थव्यवस्था की हालत
    31 Jan 2022
    इस समय ज़रूरत है, सरकार के ख़र्चे में बढ़ोतरी की। यह बढ़ोतरी मेहनतकश जनता के हाथों में सरकार की ओर से हस्तांतरण के रूप में होनी चाहिए और सार्वजनिक शिक्षा व सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए हस्तांतरणों से…
  • Collective Security
    जॉन पी. रुएहल
    यह वक्त रूसी सैन्य गठबंधन को गंभीरता से लेने का क्यों है?
    31 Jan 2022
    कज़ाकिस्तान में सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (CSTO) का हस्तक्षेप क्षेत्रीय और दुनिया भर में बहुराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक बदलाव का प्रतीक है।
  • strike
    रौनक छाबड़ा
    समझिए: क्या है नई श्रम संहिता, जिसे लाने का विचार कर रही है सरकार, क्यों हो रहा है विरोध
    31 Jan 2022
    श्रम संहिताओं पर हालिया विमर्श यह साफ़ करता है कि केंद्र सरकार अपनी मूल स्थिति से पलायन कर चुकी है। लेकिन इस पलायन का मज़दूर संघों के लिए क्या मतलब है, आइए जानने की कोशिश करते हैं। हालांकि उन्होंने…
  • mexico
    तान्या वाधवा
    पत्रकारों की हो रही हत्याओंं को लेकर मेक्सिको में आक्रोश
    31 Jan 2022
    तीन पत्रकारों की हत्या के बाद भड़की हिंसा और अपराधियों को सज़ा देने की मांग करते हुए मेक्सिको के 65 शहरों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये हैं। 
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License