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शरीर विज्ञान या मेडिसिन के क्षेत्र में हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज के लिए 2020 का नोबेल पुरस्कार 
दशकों पूर्व अनुसन्धान के लिए इस वर्ष के नोबेल पुरस्कार को तीन वैज्ञानिकों हार्वे जे आल्टर, माइकल हाटन और चार्ल्स एम. राइस को प्रदान किया जा रहा है।
संदीपन तालुकदार
07 Oct 2020
rm
हार्वे जे. आल्टर, माइकल ह्यूटन और चार्ल्स एम. राइस की छवियाँ | ट्विटर: @नोबेलप्राइ

इस वर्ष का प्रथम नोबेल पुरस्कार कल 5 अक्टूबर को शरीर विज्ञान अथवा मेडिसिन के क्षेत्र में घोषित किया गया है। इस बार का नोबेल पुरस्कार एक ऐसे वायरस की खोज के उपलक्ष्य में दिया जा रहा है, जिसने रक्त-से पैदा होने वाले हेपेटाइटिस रोग के खिलाफ लड़ाई में निर्णायक योगदान देने का काम किया था - एक प्रमुख वैश्विक स्वास्थ्य समस्या जिसके चलते सिरोसिस और यकृत कैंसर रोग उपजते हैं। नोबेल समिति की ओर से प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से इस निर्णय की घोषणा की गई।

शरीर विज्ञान या मेडिसिन के क्षेत्र में 2020 के नोबेल पुरस्कार को इस बार तीन वैज्ञानिकों, हार्वे जे ऑल्टर, माइकल ह्यूटन और चार्ल्स एम. राइस को सामूहिक तौर पर दिया जा रहा है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस वर्ष के नोबेल पुरस्कार को दशकों पूर्व की गई खोज के उपलक्ष्य में प्रदान किया जा रहा है।

हेपेटाइटिस के कारण यकृत में सूजन बनी रहती है और मुख्य तौर पर यह शराब की अधिकता, वातावरण में पाए जाने वाले विषाक्त पदार्थों या कुछ स्वप्रतिरक्षी प्रतिक्रियाओं के साथ-साथ वायरस की वजह से उत्पन्न होता है। वायरस के जरिये हेपेटाइटिस से पीड़ित होने की मुख्यतया दो वजहें हैं- पहला प्रदूषित पानी या भोजन के माध्यम से और दूसरा रक्त या शरीर में मौजूद तरल पदार्थ के माध्यम से। 

अधिकांश मौकों पर हेपेटाइटिस वायरस शरीर में पानी या भोजन के जरिये फैलता है और शरीर पर इसका दीर्घकालिक असर देखने को नहीं मिलता। लेकिन यदि हेपेटाइटिस वायरस का संक्रमण रक्त या शरीर के तरल पदार्थ के जरिये फैलता है तो इसके माध्यम से शरीर में सिरोसिस और यकृत कैंसर जैसे दीर्घकालिक प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। 

इसके साथ-साथ रक्त-जनित हेपेटाइटिस वायरस के लक्षणों को प्रकट होने में काफी वक्त लगता है और कई बार तो ये एचआईवी वायरस के संक्रमण की तरह ही घातक साबित होते हैं।काफी समय पहले तकरीबन 1940 के दशक के दौरान हेपेटाइटिस के इलाज को लेकर यह समझ बनी थी कि इस बीमारी को फैलाने वाले वायरल एजेंट कुछ अलग मार्गों के जरिये उत्पन्न होते हैं। ये या तो पानी या भोजन जैसे पर्यावरणीय माध्यम के जरिये या फिर रक्त या शरीर के तरल पदार्थ के माध्यम से उत्पन्न होते हैं। उन शुरूआती दिनों में पानी या भोजन के जरिये फैलने वाले हेपेटाइटिस ए वायरस की खोज कर ली गई थी, लेकिन रक्त-जनित हेपेटाइटिस वायरस के बारे में पता लगाने में कुछ और वक्त लग गया।

यह केवल 1960 के दशक में ही जाकर संभव हो सका जब पहली बार बरूच ब्लूमबर्ग ने रक्त से उत्पन्न होने वाले हेपेटाइटिस बी वायरस की खोज की और इस खोज के दो दशक बाद जाकर 1976 में उनके काम को नोबेल पुरस्कार के जरिये मान्यता दी गई थी।लेकिन जल्द ही इस बात का एहसास हो चुका था कि बरुच ब्लमबर्ग ने जिसके बारे में खोज की थी, मात्र उसके जरिये रक्त या शरीर के तरल पदार्थ के माध्यम से फैलने वाले हेपेटाइटिस वायरस को समझ पाना काफी नहीं था। उसी दौर में इस वर्ष के शरीर विज्ञान क्षेत्र में नोबेल प्राप्त करने वालों में से एक हार्वे जे. ऑल्टर अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ में उन रोगियों के बीच काम कर रहे थे जिन्हें रक्त चढ़ाया गया था।

हेपेटाइटिस बी वायरस की खोज पहले ही की जा चुकी थी जिसकी वजह से हेपेटाइटिस के उन मामलों को कम किया जा सकता था जो रक्त चढाये जाने के जरिये प्रेषित होते थे। लेकिन ऑल्टर और उनके सहयोगियों ने इस बात को महसूस किया कि मामला सिर्फ हेपेटाइटिस बी वायरस का ही नहीं था, बल्कि कुछ अन्य हेपेटाइटिस वायरस भी हैं जो रक्त चढ़ाने वाले मामलों में संचरित हो रहे थे। उन्होंने हेपेटाइटिस ए वायरस के बारे में भी पड़ताल की, लेकिन हेपेटाइटिस ए और बी के अलावा भी उन्होंने पाया कि एक और वायरस था जो रक्त-जनित हेपेटाइटिस को उत्पन्न कर रहा था।

ऑल्टर एवं उनके सहकर्मियों ने पाया कि अज्ञात हेपेटाइटिस वायरस चिंपांज़ी को भी संक्रमित करने की क्षमता रखता है। ऐसा तब देखने को मिला जब उन्हें रक्त-जनित हेपेटाइटिस से पीड़ित रोगियों के रक्त से संक्रमित किया गया। ऑल्टर ने इस बारे में व्यवस्थित तौर पर विस्तृत जांच करने का काम किया और उन्होंने अपने निष्कर्ष में एक नए जटिल हेपेटाइटिस को पाया जिसकी उत्पत्ति किन्हीं रक्त-जनित वायरस के चलते हुई थी। लेकिन इसके चलते नए वायरस की खोज करने की क्षमता को लेकर चिंता को बढ़ा दिया था।

इसी बीच माइकल हॉटन जोकि शरीर विज्ञान के क्षेत्र में 2020 के नोबेल हासिल करने वाले दूसरे वैज्ञानिक हैं, वायरस के आनुवंशिक अनुक्रम को खोजने के दुरूह कार्य में लगे हुए थे। वे और उनके सहयोगियों ने संक्रमित चिंपांज़ी के रक्त में पाए जाने वाले न्यूक्लिक एसिड से डीएनए टुकड़ों का संग्रह किया। उन्होंने क्रोनिक हेपेटाइटिस रोगियों के रक्त सेरा में से वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी खोजने की भी सफलतापूर्वक कोशिश की। उनके शोध से इस बात का पता चला कि अब तक जो अज्ञात वायरस था, वह असल में एक आरएनए वायरस था, और यह फ्लेववायरस नामक परिवार से सम्बद्ध रखता था। उन्होंने इसे हेपेटाइटिस सी वायरस नाम दिया।

यह अपनेआप में उल्लेखनीय खोज थी, लेकिन एक सवाल अभी भी हैरान कर रहा था कि क्या हाल ही में खोजे गए वायरस के जरिये ही हेपेटाइटिस रोग उत्पन्न होता है, या कोई अन्य कारक भी हैं। इस पहेली को हल करने का एक तरीका यह हो सकता था कि क्या वायरस के एक क्लोन के जरिये इस बीमारी को दोहराया जा सकता है, और रोग का कारण बन सकता है। यही वह बिंदु था जहां फिजियोलॉजी के क्षेत्र में 2020 के नोबेल के तीसरे प्राप्तकर्ता चार्ल्स एम. राइस की भूमिका सामने दिखती है। राइस उन दिनों वाशिंगटन विश्वविद्यालय में शोधकर्ता के तौर पर कार्यरत थे। उनके कष्टसाध्य परिश्रम के जरिये आखिरकार यह निष्कर्ष निकलकर सामने आया कि अकेले हेपेटाइटिस सी वायरस के माध्यम से रक्त चढ़ाने से संबंधित रोगियों में क्रोनिक हेपेटाइटिस उत्पन्न हो सकता है।
भले ही नोबेल पुरस्कार के जरिये इसे मान्यता मिलने में कई दशक लग गए हों, लेकिन हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज के कारण वायरल रोगों के खिलाफ लड़ाई में उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा है। आज के दिन वायरस का पता लगाने के लिए रक्त परीक्षण का काम अत्यंत संवेदनशील तौर पर उपलब्ध है। इसके साथ ही वायरस के खात्मे के लिए एंटीवायरल दवाएं भी उपलब्ध हैं। अब यह आम धारणा बन चुकी है कि एंटीवायरल दवा की मदद से हेपेटाइटिस सी के रोगियों का इलाज संभव है।

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CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License