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कोविड-19
स्वास्थ्य
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कोविड-19 में पेटेंट और मरीज़ के अधिकार: क्या किसी अधिकार विशेष के बजाय यह पूरी मानवता का सवाल नहीं है ?
आज के समय में न्यायिक प्राधिकरण को पेटेंट अधिकार और मरीज़ों के अधिकार या फिर जीने के अधिकार को संतुलित किये जाने से साबका पड़ सकता है।
जस्टिस प्रभा श्रीदेवन
10 Oct 2020
पेटेंट
फ़ोटो,साभार: एक्सप्रेस फ़ार्मा

जस्टिस प्राभा श्रीदेवन लिखती हैं कि आज के समय में न्यायिक प्राधिकरण को पेटेंट अधिकार और मरीज़ों के अधिकार या फिर जीने के अधिकार को संतुलित किये जाने से साबका पड़ सकता है। न्यायायिक प्राधिकारण अपनी तरफ़ से सभी साधनों का इस्तेमाल करेगा और अगर ज़रूरी हुआ, तो बदलाव भी कर सकता है, लेकिन आख़िरकार जीने के पक्ष में फ़ैसला करेगा।

———–

अपनी बात को रखने का कोविड -19 वाले इस साल से बेहतर भला और वाजिब वक़्त क्या हो सकता कि स्वास्थ्य का अधिकार और लिहाज़ा सम्मान के साथ जीने का अधिकार उस अधिकार से कहीं आगे का साधन है,जो पेटेंट कराये गये आविष्कार के मालिकों को हासिल है। राष्ट्राध्यक्षों और अन्य लोगों द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को लिखे गये एक खुला पत्र से कुछ इस तरह संबोधित किया गया है, “हमारी दुनिया तभी बची रहेगी,जब हर कोई विज्ञान से फ़ायदेमंद हो और किसी वैक्सीन का इस्तेमाल कर सकता हो- और यह एक राजनीतिक चुनौती है…. अब वह समय नहीं है कि दौलतमंद निगमों और सरकारों के हितों को जीवन बचाने की सार्वभौमिक ज़रूरत से ज़्यादा तरज़ीह दी जाये, या इस विराट और नैतिक कार्य को बाज़ार की ताक़तों पर छोड़ दिया जाये।” यह राजनीतिक चुनौती की तरह एक न्यायिक चुनौती भी है।

मेरा तर्क है कि जीने का अधिकार, जिसका तार्किक रूप से मतलब चिकित्सा तक पहुंच के अधिकार और स्वास्थ्य के अधिकार से है, यह अधिकार हर मनुष्य को विरासत में मिला है और यह किसी भी अनुदान के तहत नहीं दिया जाता है, और समय के हिसाब से भी असीमित है। लेकिन, पेटेंट का अधिकार राज्य द्वारा आविष्कारक को एक ऐसे मुआवज़े के रूप में दिया जाता है,जो मालिक को उस अवधि तक के लिए उनके अधिकार को लागू करने और उसकी रक्षा करने की अनुमति देता है, जिसके अंत में मालिक उस प्रौद्योगिकी को हस्तांतरित करेंगे और फिर वह आविष्कार सार्वजनिक तौर पर सामने आ पाता है।

दवा तक पहुंच पाने के अधिकार और संपत्ति के अधिकार के बीच किसी पेटेंट की मुकदमेबाजी में एक जज को "कौन जीवित रहेगा" या "आप किसके पक्ष में हैं",जैसे सवालों को लेकर न सिर्फ़ सावधान रहना चाहिए,बल्कि एक प्रहरी की तरह चौकन्ना भी रहना चाहिए। आज जब हम इस बात को जानते हैं कि दुनिया का अस्तित्व भी वस्तुतः इस बात पर निर्भर करता है कि किसको दवा मिलती है, तो ऐसे में मैं यही कहती हूं कि जीवन का अधिकार किसी भी अधिकार से कहीं ज़्यादा गंभीर है।

सार्वजनिक हित पेटेंट क़ानून में अंतर्निहित है

(भारत के) पेटेंट अधिनियम में सार्वजनिक हित कोई अगर-मगर जैसा कारक नहीं है। इस अधिनियम में जिन सामान्य सिद्धांतों का ज़िक़्र किया गया है, वे पेटेंट किये गये आविष्कारों के कार्य पर लागू होते हैं, उनमें असंदिग्ध रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य का ज़िक़्र है।अनिवार्य लाइसेंस देने के मानदंड का आधार भी सार्वजनिक हित ही हैं; राष्ट्रीय आपातकाल और बेहद ज़रूरत के हालात में यह अनिवार्य लाइसेंस दिया जा सकता है; और सार्वजनिक प्रयोजन के लिए राज्य द्वारा पेटेंट प्राप्त किया जा सकता है। हर देश में इसी तरह के प्रावधान हैं और उन्हें अमीर और ग़रीब,दोनों ही देशों द्वारा सफलतापूर्वक नियोजित किया गया है।

अस्पष्टता को निरूपित करने के लिए एक उच्चतर अदालत बनाकर भारत ने यह सुनिश्चित कर दिया कि वृद्धिशील नवाचारों को पेटेंट के रूप में ”स्थापित" नहीं किया जाय  और इसकी धारा 3 (d) एक तरह से लचीलेपन के इस्तेमाल किये जाने वाले एक मॉडल के रूप में सामने आती है, जिससे स्वास्थ्य तक पहुंच आसान हो सके। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा “(हम) इस पर नज़र रखेंगे कि भारतीय विधायिका ने इस चिंता को किस तरह से हल किया है और देश के पेटेंट क़ानून को ट्रिप्स(TRIPS) यानी बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार-सम्बन्धित पहलुओं पर समझौता के प्रावधानों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए न सिर्फ़ अपने ख़ुद के लोगों के लिए,बल्कि दुनिया के कई दूसरे हिस्सों में (ख़ास तौर पर विकासशील देशों और कम से कम विकसित देशों में) अंतर्राष्ट्रीय संधि के तहत अपने दायित्वों को संतुलित रखने और सार्वजनिक स्वास्थ्य सम्बन्धी विचारों की रक्षा करने और बढ़ावा देने के लिए अपनी प्रतिबद्धता पर कितना ज़ोर दिया है।” राज्य  न सिर्फ़ दवा के पेटेंट मालिक,बल्कि दवा के उपयोगकर्ता के फ़ायदे की ख़ातिर और सामाजिक और आर्थिक कल्याण को बढ़ाने को लेकर प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और तकनीकी नवाचार को बढ़ावा देने के बदले में पेटेंट अधिकारों को लागू करने और उनकी रक्षा करने के लिए पेटेंट के साथ अनुबंध करता है।

आर्थिक अधिकार को लेकर क्या ?

पेटेंट अधिकार धारकों का तर्क अक्सर यही होता है कि दवा विशेष पर उनका विशेष अधिकार उनके आविष्कार के ज़रिये दुनिया में ज्ञान के ज़रिये दिये गये योगदान का नतीजा है। और उन्हें इसे आपूर्ति किये जाने की अनुमति दी जानी चाहिए। स्वीडिश पॉप समूह एबीबीए(ABBA) के शब्दों में कहा जाये यह बात "पैसा, पैसा, और सिर्फ़ पैसा" वाली बात है। यह दलील भी दी जाती है कि मौद्रिक प्रोत्साहन के बिना कोई नवाचार नहीं हो पायेगा। यह भी दलील दी जाती है कि मालिकों को अपने फ़ायदे को अधिकतम करने का अधिकार है। और चूंकि निर्माता का अधिकार एक मानवाधिकार भी है और इसे मान्यता दी गयी है, इसलिए यह स्वास्थ्य के अधिकार को देने के लिए बाध्य नहीं है।

इस उलझन को सुलझाने के उपाय

बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार-सम्बन्धित पहलुओं पर समझौते (ट्रिप्स)  के मज़मून में भी स्वास्थ्य सम्बन्धी ज़रुरतें और चिकित्सा तक पहुंच जैसे सामाजिक उद्देश्य अंतर्निहित हैं। लेकिन, इसके बावजूद कोई संविदा या साधन अच्छा हो सकता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसे लागू करने वाला कैसा है।जो लोग इसे लागू कर रहे हैं,वे अगर अच्छे नहीं हैं, तो यह बुरा साबित होगा। हालांकि अगर इसे लागू करने वाले लोग अच्छे हैं, तो यह अच्छा साबित होगा। और बुद्धिमान न्यायाधीश वही होता है, जो इन उद्देश्यों को संतुलित बनाये रखता है।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने व्यापार के मुक़ाबले स्वास्थ्य का अधिकार, बौद्धिक संपदा अधिकार और अन्य द्विपक्षीय निवेश या व्यापार समझौते जैसे मानवाधिकारों की प्रधानता की पुष्टि की है। संकल्प 32 / L.23 मौलिक मानवाधिकारों में से एक के रूप में सभी मनुष्यों के लिए दवाओं के इस्तेमाल के महत्व की पुष्टि करता है और यह इस बात पर ज़ोर देता है कि दवा की बेहतर पहुंच हर साल लाखों लोगों की जान बचा सकती है।

हर देश के संविधान में यह निहित है या स्पष्ट रूप से उनके संविधानों में इस बत का आश्वासन है कि जीने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। इसकी व्याख्या विस्तार के साथ की जानी चाहिए। “हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि जीने के अधिकार में कई अधिकार शामिल होते है...और उनमें से हर अधिकार बुनियादी और मौलिक है। ये अधिकार हैं-गरिमा के साथ जीने का अधिकार, आश्रय का अधिकार और स्वास्थ्य का अधिकार । राज्य यह सुनिश्चित करने को लेकर बाध्य है कि ये मौलिक अधिकार न सिर्फ़ संरक्षित हों, बल्कि सभी नागरिकों के लिए लागू और उपलब्ध हों।”

अब सवाल यह उठता है कि अदालत अपनी मदद के हाथ कितनी दूर तक बढ़ा सकती है ? इस दलील को खारिज करते हुए कि अदालतें महज़ घोषणात्मक आदेश ही जारी कर सकती हैं, दक्षिण अफ़्रीकी अदालत ने कहा, “उल्लंघन किये गये अधिकार की प्रकृति और उल्लंघन की प्रकृति किसी विशेष मामले में उचित राहत के रूप में मार्गदर्शन प्रदान करेगी। जहां ज़रूरी हो, इसमें परमादेश (इसमें अफ़सरों को इस बात का स्पष्ट आदेश होता है कि "किसी क्षेत्र में निर्दिष्ट कार्य का यथोचित संपादन किया जाये,क्योंकि वही उसका फ़र्ज़ अथवा नियमित कार्य है) जारी करना और पर्यवेक्षी क्षेत्राधिकार की क़वायद,दोनों ही शामिल हो सकते हैं।”

यह बुनियादी बात है कि नहीं दिये जाने की शक्ति,दिये जाने की शक्ति के साथ-साथ चलती है। लेकिन,उस चरम तक गये बिना, न्यायपालिका के पास पहुंच को सुविधाजनक बनाने के लिए पर्याप्त साधन है।

कोस्टा रिका द्वारा शुरू की गयी कोविड-19 टेक्नोलॉजी एक्सेस पूल (C-TAP) का मक़सद सभी के लिए वायरस से लड़ने के लिए टीके, परीक्षण, उपचार और अन्य स्वास्थ्य तकनीकों को सुलभ बनाना है। यह बात पहुंच की अहमियत को दर्शाती है। अगर टीके और दूसरी स्वास्थ्य प्रौद्योगिकियां विकसित देशों में बनायी जाती हैं, और वहीं के लोगों को उपलब्ध करायी जाती हैं, और उन देशों के भीतर भी सिर्फ़ उन्हीं समूहों के लिए उपलब्ध करायी जाती है, जिनकी उनतक पहुंच है, तो यह यह स्थिति किसी महामारी की बड़ी आपदा को दावत देगी।

नागोया प्रोटोकॉल का इस्तेमाल ए उपाय के तौर पर किया जा सकता है। जिन बातों की अनदेखी की गयी है “…आईपी और कोविड को लेकर चल रही चर्चाओं में यह बात भी शामिल है कि नागोया प्रोटोकॉल और इसके इक़रारनामे में आनुवंशिक संसाधनों के इस्तेमाल से होने वाले फ़ायदों को साझा करने की ज़रूरत है। इस तरह,कोविड से जुड़े इलाज और / या रोकथाम के उपाय का किसी भी तरह के व्यावसायीकरण का इस प्रोटोकॉल और इसके फ़ायदे-साझा किये जाने के प्रावधानों से बंधे होने का तर्क दिया जा सकता है।”

इस विरोधाभास का समाधान

न्यायिक प्राधिकरण को इस अधिकार विशेष और मौद्रिक लाभ के अधिकार के ख़िलाफ़ जीने के उस अधिकार को संतुलित किये जाने से साबका पड़ता है, जिसमें रोज़गार और समाधान का नवाचार वाले कई उपाय शामिल हैं।

साफ़ है कि बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार-सम्बन्धित पहलुओं पर समझौते(TRIPS) का सार्वजनिक स्वास्थ्य को संतुलित करने का नेक इरादा था। अगर बीच में इसमें कुछ गड़बड़ियां आ गयी हों, तो इस प्रणाली को अब दुरुस्त भी किया जा सकता है। न्यायिक प्राधिकारण तक पहुंच बनाने के पक्ष में फ़ैसले करने को लेकर बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार-सम्बन्धित पहलुओं पर समझौते(TRIPS) के भीतर पर्याप्त हद तक मार्गदर्शन है।

इसमें कोई शक नहीं है कि सस्ती दवा या इलाज के लिए पर्याप्त सुविधा का इस्तेमाल न्यायिक उपाय से तो नहीं किया जा सकता है। इसे लेकर शासनात्मक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है, और ऐसे द्विपक्षीय समझौते और ऊपरी तौर पर दूसरे प्रसांगिक क़ानून हैं,जो ट्रिप्स के  लचीलेपन वाले समूचे खेल के रास्ते के बीच आड़े आ सकते हैं। वह पहल और प्रोत्साहन,जो कोई इच्छुक जेनेरिक निर्माता दिखा सकता है, वह एक दूसरा मुद्दा है। इस बात की भरपूर आशंका है कि जेनेरिक दवाओं के निर्माता भी वही राग अलाप सकते हैं। दवाओं की बिक्री को "...स्वाभाविक रूप से उन लोगों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहित किया जायेगा,जो ज़्यादा भुगतान कर सकते हैं, न कि उन बड़ी संख्या में आम लोगों लिए,जो ज़्यादा ख़र्च नहीं कर सकते हैं…. यह स्थिति न सिर्फ़ अनावश्यक रूप से क़ीमतों को बढ़ा देती है, बल्कि कमजोर पेटेंट की चुनौती दिये जाने की संभावना को भी कम कर देती है।” अब सवाल उठता है कि मौजूदा आर्थिक मंदी का सामान्य उत्पादकों पर क्या असर पड़ेगा ? प्रो.शमनाद बशीर के शब्दों में,“… यह एक ऐसा फ़ैसला है, जो 'आर्थिक' और 'राजनीतिक' व्यवहार्यता के मुद्दों पर विचार करता है। दूसरे शब्दों में दवा तक ‘पहुंच’ की समस्या विशुद्ध रूप से क़ानूनी’ दायरे से परे ‘अर्थशास्त्र’ और ‘राजनीति’ के दायरे में चलती है।

न्यायिक प्राधिकरण को इन सवालों में से ‘जीवन’ के सवाल को चुनना होगा। प्राधिकरण को “संविधान (Art.5) द्वारा एक अहस्तांतरणीय(जिसे किसी भी सूरत में अलग नहीं किया जा सके) अधिकार,यानी जीने के ज़रूरी अधिकार की रक्षा करने  या फिर यह राज्य के गौण या वित्तीय हितों के पक्ष में इसे निष्प्रभावी करने के बीच किसी एक को चुनने के लिए बाध्य होना होगा I हालांकि इस दुविधा का यही हल है कि न्यायिक नैतिकता न्यायाधीश को केवल एक संभावित विकल्प के लिए निर्देशित करती है,और वह विकल्प है-जीने के निर्विवाद अधिकार के पक्ष में फ़ैसला लेना।” हालांकि बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR) को मानवाधिकार के रूप में नामित किया गया है, ऐसे में निर्विवाद रूप से यह एक स्वीकृत अधिकार तो है, और इसे "अस्वीकृत" भी कहा जा सकता है। जीने का अधिकार और स्वास्थ्य तक पहुंच का अधिकार कहीं श्रेष्ठतर अधिकार हैं। यह एक ऐसा अधिकार है, जिसे हम गरिमा के अधिकार की तरह पैदा होने के साथ ही हासिल कर लेते हैं, और हम उस अधिकार से वंचित नहीं किये जा सकते।

अब समय आ गया है कि मौजूदा पेटेंट प्रणाली का एक ऐसा विकल्प ढूंढा जाये, जो पहुंच को नकारने वाले किसी अधिकार विशेष पर पूरी तरह आधारित नहीं हो, बल्कि जो नवाचार और पहुंच दोनों को साथ लेकर आगे बढ़ सकता हो। मौजूदा समय में किसी भी तरह का एकाधिकार सचमुच लाखों लोगों की जान ले सकता है। डी’आर्की  बनाम मैरिड जेनेटिक्स मामले में ऑस्ट्रेलिया उच्च न्यायालय के फ़ैसले पर टिप्पणी करते हुए इस बात पर ग़ौर किया गया है, “यह फ़ैसला इस सवाल को उठाता है कि किसी पेटेंट व्यवस्था को जीवन की गुणवत्ता को लेकर एकाधिकार की वस्तु बनाने की अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं।”

आज कारोबार वाली वह वस्तु न सिर्फ़ जीवन की गुणवत्ता वाली होगी, बल्कि जीवन को बनाये रखने वाली भी होगी। अगर इलाज की आपूर्ति बहुत सीमित हो,तो किसी महामारी के नतीजे भौगोलिक रूप से सीमित नहीं हो सकते। यहां तक कि सबसे कमज़ोर लोगों की आबादी की एक सतही जांच-पड़ताल भी पहुंच के पक्ष में ही दलील देती है। इसलिए, दक्षिण गोलार्ध के देशों को एक ऐसा विकल्प प्रस्तुत करना चाहिए, जहां जीवन को ख़तरे में डाले बिना या जीवन की गुणवत्ता को कम किये बिना दोनों के अधिकारों में समन्वय स्थापित किया जा सके।

ऐसा पहले भी हो चुका है और दक्षिण ने "ऐसे कॉर्पोरेट और राजनीतिक आधिपत्य का विरोध किया है", जिसने "विभिन्न रूपों में स्वास्थ्य के पूंजीकरण को प्रोत्साहित किया है", और इस तरह की पहल "बेहद महत्व की पहल रही है और उन देशों ने इस लिहाज से अहम जीत हासिल की है", लेकिन ये देश भी पूंजी के ज़रिये स्वास्थ्य के संरचनात्मक समायोजन को बदलने या उलटने में कामयाब नहीं हुए हैं।”

न्यायिक प्राधिकरण को संवैधानिकता की उस भावना के साथ ख़ुद को जोड़ना चाहिए, "जो एक व्याख्यात्मक, ग़ैर-तकनीकी विश्लेषणात्मक व्यवस्था पर निर्भर करती है" और यह "बहुराष्ट्रीय दवा पूंजी के युक्तिसंगत तर्क के विरुद्ध एक लोकतांत्रिक प्रति संतलन के रूप में सामने आयी है।" जब निषेधाज्ञा के आदेश मांगे जायेंगे और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकेगा, तब विशाल जनहित के लिहाज से इसका अपना वज़न होगा। ऐसे हताश कर देने वाली मिसालें भी हैं,जब इसे नामंज़ूर कर दिया जाना चाहिए था। मज़बूती के साथ यह तर्क दिया जा सकता है कि पेटेंट अधिकार मुख्य रूप से एक "वाणिज्यिक" या बाज़ार-उन्मुख संपत्ति हित को साधने का अधिकार है और इसलिए मौद्रिक संदर्भ में यह मुआवज़ा पाने लायक है। और व्यावसायिक हित को कभी भी जीवन बचाने से ज़्यादा तरज़ीह नहीं दिया सकता है।

किसी दवा के आविष्कार करने और जिस क़ीमत पर वह दवा बेची जाती है, दोनों पर होने वाले ख़र्च से सम्बन्धित कोई स्वीकार्य डेटा उपलब्ध नहीं है। यह एक कठिन  सवाल है कि क्या अधिकारों को लागू किये बिना और मुद्रीकृत हुए बिना कोई आविष्कार हो सकेगा,क्या यह एक तर्कपूर्ण बात है। यह मानते हुए कि यह ऐसा ही है, इस समय के मुक़ाबले मुआवज़े के एक अलग मॉडल को तैयार करना मुमकिन है। यह विशिष्ट निजी स्वामित्व वाला मॉडल शिकारी रणनीति के तहत ही ख़ुद को भाड़े पर उपलब्ध कराता है।

इसके बजाय हमारे पास किसी पेटेंट पूल की तरह एक ऐसे अन्य “नये तरीक़े” हो सकते हैं, जो न सिर्फ़ देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ काम कर रहा हो, बल्कि इसमें सैकड़ों शोधकर्ता, इनोवेटर्स, कंपनियां और विश्वविद्यालय भी शामिल हों। इससे संकट से निपटने और सामूहिक रूप से कमाई करने में मदद मिलेगी। यह एक व्यापक क्षतिपूर्ति देनदारी व्यवस्था को लेकर सोचने का समय हो सकता है। ऐसा नहीं है कि दो अधिकारों के बीच की इस परेशानी पर किसी का ध्यान नहीं गया हो। मानवधिकार संवर्धन और संरक्षण उप-आयोग ने बौद्धिक संपदा अधिकार और मानवाधिकारों पर संकल्प 2000/7 को अपनाया था, जिसमें ट्रिप्स को लेकर विरोधी दृष्टिकोण है।

निजी अधिकारों और सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिकारों के बीच के सम्बन्ध को कुछ पेटेंट की निजी पकड़ के रूप में देखे जाने के बजाय संवैधानिक आकांक्षाओं के अनुरूप स्थानिक रूप से विस्तारित किया जाना चाहिए। न्यायालय आविष्कार करने वालों को फ़ायदा पहुंचाने या क्षतिपूर्ति करने वाले विभिन्न मॉडलों का पता तो लगायेगा ही, बल्कि अदालत को इस बात को लेकर भी बंधा होना चाहिए और वह बंधी हुई भी है कि विशिष्ट अधिकार के मुक़ाबले स्वास्थ्य के अधिकार के दावे को हमेशा तरज़ीह दी जाये । इस समय केवल ख़ुद के बजाय मानवता के लिए इस सवाल का जवाब  जीवन के पक्ष में ही दिया जाना चाहिए।

(जस्टिस प्रभा श्रीदेवन मद्रास हाईकोर्ट की पूर्व न्यायाधीश और भारत सरकार की बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड की अध्यक्ष हैं। उनके विचार व्यक्तिगत हैं। यह लेख पहली बार साउथव्यू में प्रकाशित हुआ था।)

यह लेख मूल रूप से द लिफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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